खत हवेली का फुटपाथ के नाम ( व्यंग्य-व्यथा ) : डॉ. लोक सेतिया

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक

सत्ता का मज़ाक है कि अट्टहास है क्या है। ये जो बिगड़े रईस ज़ादे होते हैं कुछ भी करते हैं। अभी कल ही की बात तो है इक मां की लाश से नन्हा बच्चा खेल रहा था उसके ऊपर से चादर खींचता हुआ। बेचारा क्या समझता उसकी मां किस नींद में सोई है। ये जो हालात हैं कोई आजकल में नहीं बने हैं और इसके दोषी आज के शासक नहीं पहले के भी तमाम लोग हैं जिन्होंने गरीबों के नाम पर राजनीती की गरीब को दिया भीख मांगने का हक भी नहीं।

कल उसके घर मातम था मगर यही बेदर्द लोग भीड़ बनकर अपनी अपनी अमानवीय राजनीति करने को चैक देने आये थे मीडिया के कैमरे साथ लाये थे। इतना कम था जो आज इक और बड़े सरकार ने खत भेजा है सभी देशवासियों को जिनमें ऐसे बदनसीब भी शामिल हैं जो जाने ज़िंदा भी हैं कि मर गए हैं। सरकार ने लिखा है उसने पिछले साल भर में बड़े बड़े कीर्तिमान स्थापित किये हैं।

आपको कौन रोक सकता है जनाब आप मौज मस्ती जश्न मनाओ जनता के धन से देश विदेश जाओ। किसी को अपने देश में बुलाओ गरीबों से नमस्ते नमस्ते कहलवाओ और गरीबी को इक दीवार बनवा कर छुपाओ। पर जले पर नमक मत छिड़को मुर्दों को धर्म कथा मत सुनवाओ उनकी आत्मा की शांति के नाम पर उनकी रूहों को और मत तड़पाओ। कोई नहीं है इस देश में दर्दमंद गरीबों का जानते हैं ये बात अब ना समझाओ। गरीबों को आंसू बहाने दो आप अपनी बांसुरी अपने महल में बजाओ हमको मत सुनाओ। बहुत हुआ और मत सताओ।

मेरी ग़ज़ल से कुछ शेर :-

हमको ले डूबे ज़माने वाले , नाखुदा खुद को बताने वाले।

देश सेवा का लगाये तमगा , फिरते हैं देश को खाने वाले।

उनको फुटपाथ पे तो सोने दो ,ये हैं महलों को बनाने वाले।

तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं ,मेरी अर्थी को उठाने वाले।

फुटपाथ को पहली बार ऊंची हवेली ने लिखा है खत खुले आम पढ़ा सुनाया जा रहा था लगता है मन की बात करते करते उकता गए हैं। सच कहूं ये अंजाम देख कर समझ नहीं आया रोया जाये या हंसा जाये। खत बड़ी नाज़ुक चीज़ होती है अल्फ़ाज़ परखता रहता है आवाज़ भी मेरी तोल कभी।

खुशबू की ज़ुबां में बोल कभी फूलों की तरह लब खोल कभी। ये खत लिखना मन की बात करना ये हम दिल वालों की विरासत है इसको अपनी सत्ता की राजनीति का माध्यम मत बनाओ। मगर आपका निज़ाम है नहीं मानोगे मगर वो खत क्या जो हाथ में पकड़ आंखों से पढ़ दिल से महसूस कर उसका जवाब देने को मज़बूर नहीं कर सके।

हमने भी भेजे हैं सैंकड़ों नहीं हज़ारों खत डाक से ईमेल से किसी का भी कोई जवाब नहीं आया। बैरंग लौट आये हमने जितने भी खत भेजे उनको सभी को। नाचो झूमो राजा की सवारी निकली है शानदार लिबास पहनकर। और अपने छोटे बच्चों को खामोश रखना कहीं कोई सच नहीं कह बैठे राजा तो नंगा है।

हवेली ने आपको सूचना भेजी है उनके घर ख़ुशी पैदा हुई है साल बाद का जश्न है इसको बुलावा मत समझना। चाहो तो जो मिला बीस लाख करोड़ में से आपको उनको शगुन भेज देना शुभकामनाएं देते समय।

ये चिट्ठी कैसी है जिस में जिसको लिख कर भेजी उसका हाल चाल नहीं पूछा ये सोच लिया सरकार में सब राज़ी ख़ुशी हैं तो जनता भी राज़ी ख़ुशी से रह रही होगी। मालूम नहीं कहां से ये तहज़ीब सीखी है जनाब ने कोई हाल ए दिल बताया पूछा नहीं बस खुद ही अपना यशोगान गुणगान महिमा का बखान किया।

अपने मुंह मियां मिट्ठू बन गए ये भी नहीं सोचा होगी आपकी सरकार की वर्षगांठ जनता की हालत इस से बदतर कभी नहीं थी। अमावस की रात को चांदनी रात बताकर ये प्यार मुहब्बत की मीठी बातें करने का सही समय नहीं है जब लोग केवल घर में कैद नहीं हैं मौत से आमना सामना करते कोरोना से ज़िंदगी को छीन कर जीने का जतन कर रहे हैं। और आप ख़ैरख़्वाह हैं जो समझते हैं नमक ही ठीक रहेगा जले कटे के लिए। ये आर पी महरिष जी का शेर है

” ये ख़ैरख़्वाह ज़माने ने तय किया आखिर , नमक ही ठीक रहेगा जले कटे के लिए। “

लोग कोई वक़्त था , डाकघर से लोग जवाबी पोस्टकार्ड लेकर भेजते थे जिस पर अपना पता लिखा पोस्टकार्ड सलंग्न रहता था। ताकि खत मिलने पर जवाब भी ज़रूर देना है ताकीद रहे। कही मैं उसका पता भूल ना जाऊं राशिद , मुझको लिखता है वो हर बार जवाबी काग़ज़।

मगर आपको जवाब पसंद नहीं आएगा इसलिए आपने ये एकतरफा संवाद का तरीका ढूंढ लिया है। मन की बात कहते हैं दर्द की दास्तां हमारी नहीं सुनते। चिट्ठी भी अपने भेजी मिली नहीं खबर इश्तिहार बन गई और आपका पता तो सबको पता है। मगर ये भी पता है कुछ भी लिख भेजो कौन पढ़ता है।

आपने अपनी बात लिखी या लिखवाई और सुनाई भी सुनवाई भी। लेकिन लोग आपको नहीं बता सकते उनकी भी कोई बात है। मेरे इक दोस्त ज़रूरी खत भेजना होता था तो बैरंग भेजते थे जिस पर कोई टिकट नहीं लगाते थे मगर जिसको मिलता उसको दुगनी कीमत देनी होती थी। गरीबी में आटा गीला कहावत है अब आपका खत है बैरंग है मिला है लेना भी ज़रूरी है। इतनी बेदर्दी भी अच्छी नहीं।

आज कहा सो कहा अब ऐसा सितम मत करना ये तो इक फ़रमान है इसको चिट्ठी नाम मत देना फिर कभी। खत चिट्ठी बड़े कोमल एहसास होते हैं जिनमें उनका नाम है बदनाम नहीं करना। कभी मिली थी कोई चिट्ठी आपको लिखा हुआ था चिट्ठी नहीं तार समझना , टेलीग्राफ को तार कहते थे।

थोड़े लिखे को बहुत समझना घर जल्दी वापस आ जाना। मिली क्या कभी लगता है आपको नहीं खबर चिट्ठी क्या होती है कितना असर करती है। हंसाती है रुलाती है , आपकी चिट्ठी ने आंसुओं का समंदर बहा दिया फुटपाथ की आंखें भर आईं हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

18 − three =