बांग्ला कवि सुनील माझी की कविता
माधवीलता
अभी भी साथ हो, आई और गई कितनी पूर्णिमा,
हमारी पहली मुलाकात, पच्चीस बसंत, स्पर्श की प्रतीकात्मक जयंती।
फिर कितने दिल्ली, बीकानेर, इलाहाबाद बने,
फिर भी जरा भी मलिन नहीं हुई स्पर्श की अनुभूति।
उस अहसास को मैने अपने खून में संजो कर रखा है,
बाहरी इंद्रियों को तूफान से धकेलने दें।
तुम्हें पता है कायम है मेरी पवित्रता,
माधवी लता की चांदनी हमारे दोनों हाथों पर पड़ी।
‘प्यार ही फूलों का त्योहार’ कह कर,
तुम माधवी हो गई हो।
अकेले मैं अपने आप से कहता हूं,
‘क्या राधा के जाने पर कृष्ण जीवन में रहते हैं!’
शायद वह बच गया, क्योंकि वह चला गया।
रह गई माधवी लता सी नव यौवनाएं,
अभी भी मेरी हर सांस में बसे हैं वो पच्चीस बसंत।
सुनील माझी के बांग्ला कविता संग्रह “फूल” से अनुवाद : तारकेश कुमार ओझा द्वारा