कोरोना ज्ञान का संदेश है ( व्यंग्य ) : डॉ. लोक सेतिया

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक

शायद अभी नहीं पहचानोगे समझोगे तभी जानोगे कभी कोरोना की कथा लिखोगे उसका संदेश मानोगे। क्या अभी कुछ सालों से आपको इक कमी नहीं महसूस हो रही थी कि अब तो समाज के पतन की हद हो गई है अब तो कोई समाज सुधारक आना चाहिए। शायद इस से भी आप भी सहमत होंगे कि ये भी साफ लगने लगा था कि इस युग में उपदेश सुनकर लोग नहीं सुधरने वाले। जब उपदेशक खुद अपनी शिक्षा पर नहीं चलते तब गीता बांचने से भला कोई धर्म को आत्मा नश्वर है जैसी बात को समझेगा गीता ज्ञान या कोई भी धर्म उपदेश जब समझाने वाले ही नहीं समझे तो उनका समझाना किस काम का।

तभी आधुनिक युग में सुधार लाने को कोरोना जैसा उपाय ज़रूरी हो गया था। नहीं यहां कोरोना को अवतार नहीं घोषित करना है वो क्या है कौन है कोई नहीं समझा तो मुझ जैसे को क्या पता इसलिए मुझे उसे अच्छा या बुरा नहीं साबित करना है बस सोचना है समझना है जानना है कि उसके आने से क्या हुआ है। आज के अध्याय में इसी विषय की चर्चा करनी है। कुछ महीने पहले कितनी बिमारियां कितने डॉक्टर नर्सिंग होम अस्पताल शहर शहर रोगी ही रोगी खड़े रहते थे इंतज़ार में। और स्वास्थ्य सेवाओं के लोग जितनी भी भीड़ रहती हो चाहते थे कारोबार को अधिक बढ़ाना। विस्तार में जाना अनावश्यक है कुछ बातों को भूल जाना अच्छा होता है मिट्टी डालो उन सब पर। आज देखते हैं तो लगता है कोरोना को छोड़ कोई रोग नहीं है कोई भीड़ नहीं नज़र आती है।
ऐसा नहीं है कि अब वो ठीक हो गई हैं हुआ ये है कि अब समझ आया जिनसे हम घबराते थे वो कोई इतनी भयानक नहीं थीं जितनी ये है। इक बार कोई इंसान भाग्य विधाता के पास गया और शिकायत की कि आपने मुझे इतनी भारी गठड़ी सर पर बोझ बना लाद दी कोई छोटी हल्की होती तो अच्छा था। विधाता उसको लेकर किसी जगह गया जहां बड़े छोटे कितने ही पत्थर रखे हुए थे , और फिर उस इंसान से कहा इन सभी को उठाओ और पढ़ लो किस पर किसका नाम लिखा हुआ है फिर जो भी तुम्हें उठाते हुए छोटा और हल्का लगे उसी पर अपना नाम मुझसे लिखवा लेना।
एक एक कर कितने पत्थर उठा कर देखे उन पर किस किस का नाम लिखा है पढ़ कर देखा कोई भी पसंद नहीं आया तभी इक छोटा पत्थर दिखाई दिया मगर जब उसे पलट कर देखा तो अपना नाम लिखा हुआ था। वास्तव में जब तक औरों के दुःख दर्द समझते नहीं तभी तक अपने दुःख दर्द परेशानियां बड़ी लगती हैं जब बाकी दुनिया के दर्द तकलीफ समझते हैं तभी पता चलता है कि हमसे भी बदनसीब और तमाम लोग हैं। हैरानी की बात ये भी है कि अब डॉक्टर अस्पताल नर्सिग होम वाले भी कोरोना से घबराते हैं और नहीं चाहते उनके पास भीड़ जमा हो , खुद ही कहते हैं आपको आने की ज़रूरत नहीं है फोन पर ही सलाह ले सकते हैं। कभी उनको फोन पर खुद बात करने की फुर्सत नहीं होती थी और उनका स्टाफ रोगी को समय पर आने की बात कहता क्योंकि डॉक्टर व्यस्त हैं।
अब इसी तरह क्या क्या सुधार नहीं हो गया नज़र आता है , पुलिस वाले लोगों को वास्तव में सुरक्षित रखने का फ़र्ज़ निभाने लगे हैं। अब तो वही नेता जो भरी सभा में गोली मारने की बात करते थे आज टीवी पर उसी अपनी सरकार के बीस लाख करोड़  के आर्थिक पैकेज की जानकारी दे रहे हैं। जब तक पानी नाक तलक नहीं आया समझे ही नहीं देश की अर्थव्यवस्था की नैया डोल रही है , जब लगा ये डूबी तो हमें भी ले कर डुबोएगी तब खुद अपनी जान और सबकी जान बचाने की बात समझ आई है। नाखुदा को खुदा कहा है तो फिर , डूब जाओ खुदा खुदा न करो।
बड़ी देर कर दी मेहरबां आते आते। कौन कौन नहीं सुधरने लगा है सामने है। गंगा मैली हो गई थी पापियों के पाप धोते धोते अब सब पापी घर बैठे हैं मेरे जैसे तो गंगा कितनी साफ लगने लगी है। जो लोग रात दिन पैसे कमाने में भाग दौड़ में घर परिवार बच्चे जीने का आनंद तक भूल गए थे अब समझने लगे हैं थोड़ा आराम भी कर लें तो सुकून है। बाहर जाने किस किस ढंग का खाना पीना छोड़ अब घर पर बना सब अच्छा लगने लगा है। मुझे याद नहीं कितने समय से कोई दोस्त कोई जान पहचान वाला कोई रिश्ते नाते वाला बिना काम मिलने क्या फोन भी करना याद रखता हो। अब सभी को मिलने की चाहत दिल से होने लगी है और फोन नहीं तो सोशल मीडिया पर बात मैसेज वीडियो कॉल पर ही सही सम्पर्क बना रहता है।
समाज में और भी बहुत कुछ बदल रहा है मगर ये भी जानते हैं हम सभी कि जैसे सब ठीक होने लगता कभी भी हम वापस अपनी पुरानी आदतों और चाहतों के गुलाम बन जाते हैं। लेकिन अब हर किसी ने समझ लिया जैसे देश की सरकार से विश्व भर की सरकारों ने स्वीकार कर लिया है कि शायद लंबे समय तक या फिर हमेशा हमेशा कोरोना के साथ ही रहना होगा। जब किसी से लड़कर हराना मुश्किल लगता है तब बीच का कोई रास्ता बनाते हैं।
जिओ और जीने दो , कोरोना को समझना समझाना होगा हम हारे न तुम जीते मैच बराबरी पर समाप्त करते हैं। 21 ओवर्स 19 ओवर्स 14 ओवर्स अभी कितने और ओवर्स लॉक डाउन के घरों में बैठे टीवी सोशल मीडिया पर दुनिया भर की जंग देखते रहेंगे। लेकिन जैसा लग रहा है कोरोना दुनिया को बदलने को इक संदेश की तरह आया है मगर अभी भी लोग अपने अहंकार और ताकत से सबको डराने लगे हैं कभी किसी को धमकी कभी सबक सिखाने की बात होती है। कोरोना मुमकिन है ऐसे सभी लोगों की हेकड़ी निकलने तक अपना समाज सुधर जारी रखे।
आजकल कोई ऐसी बात नहीं करता है कभी फ़िल्मकार कथाकार इक सपना देखा करते थे जब सब अच्छा होगा। फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म अकेली नहीं है हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे। नया ज़माना इक फिल्म बनी थी हेमा मालिनी धर्म जी की लिखी किताब से पढ़कर गीत गाती है। कितने दिन आंखें तरसेंगी , कितने दिन यूं दिल तरसेंगे। इक दिन तो बादल बरसेंगे , ए मेरे प्यासे दिल।
आज नहीं तो कल महकेगी खुशियों की महफ़िल। नया ज़माना आएगा। ज़िंदगी पर सबका एक सा हक है सब तसलीम  करेंगे , सारी खुशियां सारे दर्द बराबर हम तकसीम करेंगे। नया ज़माना आएगा नया ज़माना आएगा। शायद यही ढंग हो उस ख्वाब की हक़ीक़त में बदलने का , नया ज़ामना मुमकिन है अच्छे दिन लेकर आये।

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