पापा की बातें
पापा की
बातें फैली रहती हैं
पूरे घर में
पर इन बातों में
आवाज नहीं होती!
वे मौन होती हैं,
बहती हवा की तरह
जो जानती है..
सिर्फ़ जिंदगी देना।
पापा की
शोर करती हुई डाँट
मजबूरी और विवशता के
पैरों से चलती है,
जिसकी भरपाई में
पापा को कभी-कभी
माँ बनना पड़ता है।
पापा कभी-कभी
उठ बैठते हैं नींद में!
निःशब्द ताकते हैं,
चारो ओर!
कौन समझ पाता है?
पापा की
उन जादुई आँखों में
सपने उनके बच्चों के थे।
पापा ने
जिस दिन
दीदी को बिदा किया,
उस दिन से
वे आधे हो गए।
मानो जैसे
किसी जुगनू की रात
उससे हमेशा के लिए
दूर चली गयी हो।
पापा ने
बहुत कुछ खोया है,
बचपन, जवानी, और
अब तो आंखों की रौशनी भी!
पापा की एक ही
आखिरी ख्वाहिश है-
‘वे हम में मिलना चाहते हैं’
बुढ़ापे में बैठ कर
बचपन और जवानी
हमारी आँखों से जीना चाहते हैं।
-अभिषेक पाण्डेय
हावड़ा (पश्चिम बंगला)