पारो शैवलिनी की कविता : फागुन में

फागुन में

उनकी यादें सताने लगे फागुन में।
कोयलिया कूकी डारी पे,
लगा मुझे तुम बुला रही हो।
बंशी सी माधुरी सूरों में,
सरगम डोर बन झूला रही हो।
पुरबईया बहकाने लगे फागुन में।।

हर सूरत में सूरत तेरी,
तनहाई में तरसाती है।
लजबंती बन रुप सलोना,
मन दर्पण पर छा जाती है।
रह-रह मुंह चिढ़ाने लगे फागुन में।।

होरी में तुमसे ये दुरी,
लगता कुछ भी पास नहीं है।
अपने होने तक का हमको,
थोड़ा भी अहसास नहीं है।
मन बैरी अकुलाने लगे फागुन में।।

पारो शैवलिनी

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