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नई दिल्ली। लड़कों की शादी पूरब में और लड़कियों की शादी पश्चिम में करने की हमारी सदियों पुरानी परंपरा रही है। अतः बैसवारा में बैस लड़कों की शादियां ज्यादातर पूरब यानि प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, जौनपुर के सोमवंशी, कनपुरिया, बझगोती, बझलगोती, भाले सुल्तान आदि राजपूत गोत्रों (उपजातियों) में और लड़कियों की शादी फर्रूखाबाद, कन्नौज, कानपुर के चौहान, राठौड़, भदौरिया, बघेलों के यहां होती आई है।
चूंकि इन जिलों से हमारा रोटी-बेटी का पीढ़ियों पुराना रिश्ता है। अतः हम लोग एक दूसरे के रीति रिवाजों, परंपराओं, बोली-भाषा आदि को काफी हद तक समझते हैं। लेकिन फिर भी कभी-कभी समझ आने के बाद भी सिर्फ मजे के लिए हम एक दूसरे की बोली पर ठिठोली करते हैं।
अब उदाहरण के लिए फर्रूखाबाद, कन्नौज आदि जिलों में कन्नौजी बोली जाती है जो काफी हद तक बृज भाषा से मिलती जुलती है। वे लोग स्वीकृति (हाँ) के लिए “आँहँ” कहते हैं जबकि मना करने (ना) के लिए “हँआँ”। यहां आपको शब्द से अधिक भाव और सिर हिलाने की दिशा देखनी पड़ेगी। कन्नौजी बोलने वाले आधा र का उच्चारण अमूमन नहीं करते हैं तथा उर्द को उद्द कहते हैं और तिर्वा को तिरवां। इसलिए उनके कुछ वाक्य बड़े रोचक बन पड़ते हैं, जिसका हम खूब मजाक उड़ाते हैं। उदाहरण के लिए- उद्द की दाल फुद्द-फुद्द चुरत हती (उड़द की दाल फुद-फुद की आवाज करते हुए उबल रही थी।)
लेकिन जिस देश में – “कोस कोस में बदले पानी, चार कोस में बानी।”
वहां पर कभी-कभी किसी शब्द के स्थानीय अर्थ को लेकर सचमुच गड़बड़ हो जाती है। एक बार कन्नौज के एक रिश्तेदार बघेल फूफा हमारे गांव आये तो पड़ोसी बाबा का एक मरकहा बैल बहुत बदमाशी कर रहा था। बाबा की तमाम कोशिशों के बाद भी वह बैलगाड़ी के जुएं में नधने का नाम ही नहीं ले रहा था।
बाबा कुछ बूढ़े हो चले थे तथा बैल भरपूर ताकतवर था, अतः बात बन नहीं रही थी। चूंकि बघेल फूफा पुराने रिश्तेदार थे, एक घर के नहीं पूरे गांव के। इसलिए वह गांव के लोगों के दैनिक कामकाज में भी सलाह और दखल दे दिया करते थे। फूफा खुद एक अनुभवी किसान थे, अतः उद्दंड बैलों को काबू करना जानते थे। जब उनसे न रहा गया तो एक लड़के से बोले- “लल्ला, हमयं बा पनैथी देउ, हम अबहीं इन्हय बकरी बनाय दियें।”
बैसवारा में पनेथी का मतलब गोल, बड़ा वाला पराठा होता है। अब वह लड़का मन ही मन सोचने लगा कि फूफा पनेथी से बैल को काबू कैसे करेंगे? वह खुद पनेथी खाएंगे या बैल को खिलाएंगे? यह तो वही जानें लेकिन पनेथी इतनी जल्दी बन भी तो नहीं जाएगी। पहले आटा गूंथा जाएगा, हाथ से थपथपाकर गोल किया जाएगा, फिर उस पर कपड़े से तेल लगाकर पकाया जाएगा, तब कहीं जाकर पनेथी तैयार होगी। यहां तो तुरंत समाधान चाहिए।
जब वह लड़का काफी देर तक असमंजस में खड़ा रहा तो फूफा खुद ही बोल पड़े- “का सोचि, बिचार रहे लल्ला। जा सामने तो धरी हती पनेथी, भाजि के लै आवो। हम अबहीं इनके भूत उतारि दिएं।”
लड़के ने मासूमियत से पूछा- “फूफा, लेकिन वह तो छवार (बैल को हांकने का डंडा जिसमे आगे चमड़े की पट्टी लगी रहती है) है।”
“जई तो पनेथी है मूरख। तुम का कहत हम नाय जानत। “फूफा कुछ गुस्से में बोले। फिर फूफा खुद ही पनेथी ले आये और कुछ ही देर में बैल को बकरी बनाकर जुएं में नाध दिया।
#अंतरराष्ट्रीयमातृभाषादिवस
(विनय सिंह बैस)
बैसवारी (अवधी) बोलने वाले
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