छठ पूजा विशेष : “उगहूँ सुरुज देव अरग के बेर”

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। स्वच्छता और प्रकाश से संबंधित ‘पंच दिवसीय दीपावली पर्व’ की पूर्णता ‘भैया दूज’ के साथ हो गया है और आज सुबह से ही चतुर्दिक ‘केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मेड़राय,…..‘काँच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए’,….. ‘उगु न सुरुज देव भइल अरग के बेर’,….. ‘निंदिया के मातल सुरुज अँखियो न खोले हे’,… ‘सेविले चरन तोहार हे छठी मईया महिमा तोहर अपार’,…. ‘चार कोना के पोखरवा’…..‘हम करेली छठ बरतिया से उनखे लागी’ आदि छठी मईया और सुरुज देव को संबोधित करते हुए सुमधुर गीतों से सम्पूर्ण मानवीय परिवेश ही वैदिक आध्यात्म युग का आभास करवा रहा है।

वैसे भी यह कार्तिक माह श्रीहरि विष्णु जी का सबसे प्रिय माह है अतः इसे विभिन्न पर्व-त्योहारों से युक्त ‘पवित्र माह’ भी कहा जाता है। इस माह में एक ओर जहाँ धरती पर (श्रीलक्ष्मी) श्यामल-पीताभ अन्न सदृश समृद्धि जन्य वस्त्र-आभूषण को धारण कर अपने स्वामी श्रीहरि का अपने लोक में स्वागत करती है, वहीं दूसरी ओर जनमानस अपने कृषि-कार्य से कुछ निवृत होकर आध्यात्म और ईश्वरीय आराधना की ओर विशेष उन्मुख होते हैं। उनका आध्यात्म कार्य करवा चौथ, रमा एकादशी, धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवेर्धन पूजा, भैया दूज आदि रूपों में अभिव्यक्त होता है और इसके बाद ही सर्वत्र प्रारम्भ हो जाती है, मूलतः बिहार की संस्कृति और आस्था का द्योतक पावन ‘छठ पूजा’ की तैयारी।

कार्तिक माह का महत्व ‘छठ पूजा’ से भी है, जो वैदिक काल से ही अनवरत चलते आ रहा है। ‘छठ पूजा’ पूर्णतः प्राकृतिक-अनुकूल और मानवीय सामूहिक सहयोग का निर्बाध त्यौहार है, जिसमें छठ व्रती (परवैतिन) और प्रकृति के बीच न कोई प्रतिकात्मक मूर्ति और न ही कोई पुरोहित का ही महत्व होता है। छठ व्रती स्वयं ही पुजारी और पुरोहित हुआ करते हैं। यह पूजा सूर्य, उषा, प्रत्युषा, छठी मईया, प्रकृति, जल और वायु के प्रति पूर्ण समर्पित है। इसके माध्यम से व्रती पृथ्वी पर समस्त चराचरों के प्राण-रक्षक और ऊर्जा के स्रोत सूर्यदेव सहित अन्य प्राकृतिक अवयवों की प्रत्यक्ष उपासना कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता को ज्ञापन करते हुए पारिवारिक और सामाजिक सुख, समृद्धि, सौभाग्य आदि की कामना करते हैं।

‘छठ’, संस्कृत के दिनमान ‘षष्ठी’ का ही अपभ्रंश है। मूलतः ‘षष्ठी’ तिथि को संपादित होने के कारण इसे ‘छठ’ कहा गया है। धार्मिक मान्यता है कि ‘छठ मईया ’ ब्रह्मा की मानस पुत्री हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार ‘छठ मईया’ को सूर्यदेव की बहन भी माना गया है। जो भी हो, वैज्ञानिक तथ्य तो यह है कि सूर्य की घातक पराबैगनी किरणें चंद्र-सतह से परावर्तित होकर पृथ्वी के वायुमंडल के विभिन्न स्तरों में प्रवेश करती हुई पुनः परावर्तित होकर पृथ्वीतल पर सूर्यास्त तथा सूर्योदय बेला में आवश्यकता से कुछ अधिक सघन होकर पहुँचती है। उन घातक पराबैगनी किरणों के दूषित प्रभाव के निवारण हेतु सूर्यदेव तथा उनकी अर्धांगिनियाँ ‘प्रत्यूषा’ और ‘उषा’ किरणों की उपासना करने की हमारी परंपरा रही है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह सौर संबंधित खगोलीय घटना विशेषकर कार्तिक तथा चैत्र माह के शुक्लपक्ष की ‘षष्ठी’ तिथि के आस-पास ही होती है।

फलतः ‘छठ पर्व’ वर्ष भर में दो बार मनाया जाता है। चैत्र माह की ‘षष्ठी’ तिथि को, जिसे ‘चैती छठ’ कहा जाता है और फिर कार्तिक माह की ‘षष्ठी’ तिथि को, जिसे ‘कार्तिक छठ’ कहा जाता है। विभिन्न शस्त्रों के अनुसार, सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ‘ऊषा’ और ‘प्रत्यूषा’ हैं। उनकी उपासना संबंधित चार दिवसीय महान उपासना ही ‘छठ पर्व’ है, जिसका प्रारम्भ चतुर्थी के ‘नहाय-खाय’ की श्रद्धा और शुद्धता की रीति से होता है। फिर पंचमी के ‘खरना’ या ‘लोहंडा’, उसके अगले दिन षष्ठी को पूर्णतः निर्जला उपवास की स्थिति में छठ व्रतियों द्वारा संध्या समय किसी पुण्य सलिला या जलाशयों में कमर भर पानी में खड़े होकर सूर्यदेव की अंतिम किरण ‘प्रत्युषा’ को ‘षष्ठी’ के रूप में ‘अरग’ (अर्ध्य) देकर तथा फिर उसके अगले दिन, अर्थात सप्तमी को प्रातः बेला पुनः उसी पुण्य सलिला या जलाशय में कमर भर पानी में खड़े होकर प्रातः कालीन सूर्य की प्रथम किरण ‘ऊषा’ को अरग (अर्ध्य) प्रदान कर इन दोनों सौर्य शक्तियों को ‘छठी मईया’ की संयुक्तरूप की आराधना पूर्ण होती है।

‘छठ पर्व’ और ‘ठेकुआ’ एक-दूसरे के पूरक ही हैं। अहिंदी भाषी लोग तो ‘छठ पर्व’ को ‘ठेकुआ पर्व’ के रूप में ही अधिक जानते हैं। ‘ठेकुआ’ गेहूँ के चूर्ण में गुड़, कुछ मेवे आदि से शुद्ध घी में सुंदर-सुंदर स्वरूप में व्रती द्वारा स्वनिर्मित प्रसाद व्यंजन होता है। इसके अतिरिक्त चावल के चूर्ण से तैयार ‘कचवनिया’ या ‘कसार’, खेतों में उपजे नए फल-कन्द-मूल, गन्ना, हल्दी, नारियल, नींबू, केले आदि सबूत रूप में ही ‘छठ मईया’ के प्रसाद हुआ करते हैं। उन्हें शुद्ध जल से धो कर बाँस से बने हुए ‘दउरा’ और ‘सूप’ में सजाकर घर का पुरुष श्रद्धा भाव से उसे अपने माथे पर धारण कर और उसके पीछे-पीछे छठ व्रती ‘छठी मैया’ और ‘सुरूजदेव’ के आह्वान व विनती-गीत गाते हुए घाट पर जाते हैं। इस पर्व को महिलाएँ व पुरुष दोनों अपनी मनोकामना की पूर्ति हेतु बड़े ही श्रद्धा-भाव से करते हैं। फिर भी महिलाओं की संख्या अधिक होती हैं।

अब तो यह पवित्र ‘छठ पर्व’ लिंग, जाति, सम्प्रदाय, अमीर-गरीब, प्रांत आदि के बन्धनों से परे हो गया है। यही कारण है कि हिन्दू, जैन, बौद्ध और सिख के अतिरिक्त अब तो अनेक इस्लाम अनुयायी भी बहुत ही श्रद्धाभाव से ‘छठ पर्व’ को मनाते हुए विभिन्न घाटों पर देखे जाते हैं। इसी तरह ‘छठ पर्व’ अब केवल सनातनी भूमि तक ही नहीं, बल्कि विश्व भर में विभिन्न नदी-जलाशयों के किनारे संपादित हो रहे हैं। इस पूजन प्रक्रिया में प्रारंभ से पूर्णता तक ‘छठी मईया’ और ‘सुरुज देव’ को प्रसन्न करने सम्बन्धित मधुर लोक गीत अनवरत गाये जाते रहते हैं।

‘छठ पर्व’ निर्जला उपवास तथा स्वच्छता संबंधित बड़ा ही कठिन पर्व है। इसमें प्रतिपल स्वच्छता का बहुत ही ज्यादा ध्यान रखा जाता है, चाहे इस पर्व संबंधित विभिन्न वस्तुए हों, या फिर छठ पर्व के व्रती ही हों। यहाँ तक कि जिन राहों से होकर छठ व्रती आवागमन करते हैं, उन्हें भी पवित्र रखने की मानवीय चेष्टा होती रहती है। किसी भी प्रकार की अस्वच्छता या जूठन, चाहे पशु-पक्षी या शिशु संबंधित ही क्यों न हो, पूर्णतः वर्जित रहता है। निरंतर तीन दिन निर्जला (पानी तक नहीं) उपवास रहना पड़ता है। पर छठी व्रती अपने परिजन की सुख-सम्पन्नता और स्वस्थता के लिए इस कठिन पर्व को बड़ी प्रसन्नता और संतुष्टि से हँसते-गाते कर पूर्ण कर लेते हैं। इन तीन दिनों छठी व्रती प्रतिपल ‘छठी मईया’ और ‘सुरुज देव’ संबंधित गीतों की सनिध्यता में निर्जला उपवास रखते हुए समस्त भौतिक सुखों को त्याग करते हैं। रात्रि में भूमि-शयन करते हैं। कटाई-सिलाई विहीन कपड़ों का ही उपयोग करते हैं।

‘छठ पूजा’ का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है। आडंबर और दिखावे से दूर भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस महापर्व में लोक जीवन का साक्षात् दर्शन होता है। बाँस निर्मित साधारण सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्त्तन, गन्ने का रस, गुड़, चावल और गेहूँ से जैसे ग्रामीण साधारण अवयवों में सुमधुर लोकगीतों को समाहित होने के कारण यह पर्व लोक जीवन की भरपूर मिठास से परिपूर्ण हो जाता है। इसके केंद्र में वेद, पुराण, पुरोहित या फिर कोई जटिल कर्मकांड का कोई समावेश न होकर सर्वत्र ही ग्रामीण जीवन की सरलता, मधुरता, अल्पव्ययता और आडंबरहीनता ही होती है।

हमारे अन्य सनातनी पर्वों की भाँति ही ‘छठ पूजा’ का भी धार्मिक के साथ ही सामाजिक महत्व भी है। इस पर्व को लोग धार्मिक भेदभाव, ऊँच-नीच, जात-पात, प्रांत, रंग-रूप आदि को भूलकर परस्पर सहयोग से इसकी तैयारी करते हैं। फिर सभी एक घाट पर एक साथ ही सामूहिक रूप में इसे मनाते हैं। सब एक समान, एक ही विधि से पूजा करते हैं। एक साथ पुण्य सलिला या जलाशय के तट पर अपने हाथों में पूजन-सामग्री से सजे सूप लिये सभी एक ही हाव-भाव में सूर्य-किरणों के प्रति आग्रही दिखते हैं। सब एक साथ, एक ही रीति से सूर्यदेव को अर्घ्य देते हैं। इस पर्व संबंधित सबके प्रसाद भी लगभग एक जैसा ही होते हैं। जैसे कि गंगा (जलाशय) और भगवान भास्कर सबके लिए एक जैसे ही हैं।

सनातन हिन्दू धर्म के विभिन्न देवी-देवताओं में सूर्य ही एकमात्र ऐसे देवता हैं, जो मूर्त रूप में सभी को दर्शन देते हैं, जो जगत के समस्त चराचरों की सृष्टि और पालन हेतु समस्त उर्जाओं के एकमात्र श्रोत हैं। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की अद्भुत क्षमता निहित है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसन्धान के क्रम में इस सत्य को पहचाना, जिसे आज वैज्ञानिकों ने भी सकारण स्वीकार किया है। सिद्ध हो चुका है कि विटामिन ‘डी’ का एकमात्र श्रोत सूर्य का प्रकाश ही है। इस अद्भुत पारलौकिक शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सम्भवतः सभ्यता के विकास के साथ-साथ ही प्रारम्भ हो गयी थी।

भारत में सूर्योपासना का इतिहास वैदिक युग के प्रारंभ से रहा है। फिर विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि से होता हुआ मध्य काल में आते-आते ‘छठ सूर्योपासना’ के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो आज तक अनवरत चलते रहा है। कहा जाता है कि लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल ‘षष्ठी’ को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। इसी तरह महाभारत काल में सूर्य के परम भक्त सूर्यपुत्र कर्ण प्रतिदिन घण्टों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे । पांडवों की पत्नी महारानी द्रौपदी ने भी अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लम्बी उम्र के लिए नियमित सूर्यदेव की उपासना किया करती थीं।

वैदिक काल से निर्बाध चला आ रहा ‘छठ पर्व’ बिहार की संस्कृति और लोक जीवन का अभिन्न अंग है। बिहारियों के हृदय से इसका अटूट संबंध है। सम्पूर्ण बिहार भर में महीनों से ‘छठ पर्व’ का बेसब्री से इंतजार रहता है। महीनों से लोग इसकी तैयारी करते रहते हैं। किसी परिजन के निधन (छूतका) के कारण किसी बिहारी के घर ‘छठ पर्व’ न हो पाने की स्थिति में, वह स्वयं को उपेक्षित और मर्माहत महसूस करता है। अब तो इसका का प्रचलन पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तर-पूर्वी मध्य प्रदेश, सम्पूर्ण झारखंड सहित लगभग पूरे भारत के अतिरिक्त भारत के बाहर नेपाल और प्रवासी बिहारियों के साथ विश्वभर में प्रचलित हो गया है।

भारत में अनेक सूर्य मन्दिर हैं, पर ‘छठ पूजा’ मूलरूप से बिहार राज्य से संबंधित होने के कारण बिहार प्रान्त के कुछ प्रसिद्ध सूर्य मंदिर- बड़ार्क (बड़गांव, नालंदा), देवार्क (देव, औरंगाबाद), उलार्क (उलार, पालीगंज, पटना), पुण्यार्क (पंडारक, बाढ़), ओंगार्क (अंगोरी), बेलार्क (बेलाउर, भोजपुर), सूर्य मंदिर (गया) झारखंड प्रान्त में बुंडू सूर्य मंदिर, (राँची) आदि ‘छठ पूजा’ के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं। वैसे भी ‘छठ पूजा’ के लिए मंदिरों की अपेक्षा किसी पुण्य सलिला या जलाशय की ही आवश्यकता होती है।

छठ पर्व की प्रमुख तिथियाँ :-
• 5 नवंबर मंगलवार, 2024, पहला दिन- नहाय खाय।
• 6 नवंबर, 2024 बुधवार, दूसरा दिन- खरना।
• 7 नवंबर, 2024 गुरुवार, तीसरा दिन- सांध्य अर्ध्य।
• 8 नवंबर, 2024 शुक्रवार, चौथा दिन- उषा अर्ध्य, छठ पर्व की पूर्णता।
‘छठी मईया’ और उषा, प्रत्यूषा सहित ‘सुरुज देव’ समस्त चराचरों को स्वस्थता और सुख-समृद्धि प्रदान करें।

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
संपर्क सूत्र – 90623 66788
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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