बंगाल में आज काली पूजा-दिवाली की धूम, इन मंदिरों में होती है विशेष पूजा

कोलकाता। पश्चिम बंगाल में दिवाली के साथ-साथ आज काली पूजा का धूमधाम से पालन किया जा रहा है। बंगाल में काली पूजा के अवसर पर मां काली की पूजा-अर्चना की परंपरा है। दुर्गा पूजा की तरह ही गली-मोहल्ले में मां काली की प्रतिमा की पूजा होती है। इसके साथ ही पश्चिम बंगाल के कालीघाट घाट स्थिति मां काली का मंदिर, दक्षिणेश्वर में स्थित मां काली मंदिर और तारापीठ में मां तारा के मंदिर में विशेष पूजा अर्चना होती है।

गुरुवार को सुबह से ही इन मंदिरों में भक्तों की भीड़ उमड़ रही है, हालांकि कोरोना महामारी के कारण कोरोना प्रोटोकॉल का पालन किया जा रहा है और विशेष सावाधानियां बरती जा रही हैं। बता दें कि कालीघाट स्थित मां काली का मंदिर और तारापीठ स्थित मां तारा का मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है और काली पूजा के दिन इन मंदिरों में पूजा-अर्चना का विशेष महत्व है। इस दिन विशेष पूजा की व्यवस्था की जाती है।

कालीघाट : कालीघाट मंदिर लोगों के बीच काफी महत्व रखता है। इस मंदिर में हर साल बड़ी संख्या में देवी के भक्तों का तांता लगा रहता है। यह देश भर में पाए जाने वाले 51 शक्तिपीठों में से एक है. यहां तीन आंखों, कई भुजाओं और उभरी हुई सोने की जीभ वाली काले पत्थर में उकेरी गई मां काली की एक विशाल मूर्ति है। देवी काली का आशीर्वाद लेने के लिए कई तीर्थयात्री इस पवित्र स्थान पर जाते हैं और काली पूजा के दिन विशेष पूजा अर्चना होती है।

दक्षिणेश्वर काली : हुगली नदी के पूर्वी तट पर स्थित दक्षिणेश्वर काली मंदिर में काली के दूसरे रूप भवतारिणी को समर्पित है। रानी रासमनि, जो काली की भक्त थीं, ने 1855 में इस मंदिर का निर्माण किया था। 20 एकड़ भूमि पर निर्मित, मंदिर का आंतरिक भाग भक्तों के लिए एक और आकर्षण है, जिसमें तीन मंजिला संरचना में बंगाल वास्तुकला के नौ शिखर शामिल हैं। इस मंदिर की उत्पत्ति के पीछे की कहानी काफी दिलचस्प है। ऐसा कहा जाता है कि देवी काली ने एक भक्त के सपने में दर्शन देकर इस मनिदर के निर्माण का आदेश दिया था।

तारापीठ : 51 शक्तिपीठों में से 5 शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में स्थित हैं। ये बकुरेश्वर, नालहाटी, बन्दीकेश्वरी, फुलोरा देवी और तारापीठ के नाम से विख्यात है। इनमें तारापीठ सबसे प्रमुख धार्मिक स्थल और सिद्धपीठ माना जाता हैं। पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिला में रामपुरहाट से 8 किलोमीटर की दूरी पर द्वारका नदी के तट पर मां तारा का प्रसिद्ध सिद्धपीठ स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस महातीर्थ में माता सती के दाहिनी आंख की पुतली का तारा गिरा था।

इसलिए इस धार्मिक स्थल को नयन तारा भी कहा जाता हैं और इसी को लेकर मंदिर का नाम तारापीठ पड़ा। इसी नाम पर इस स्थान को तारापीठ कहा जाने लगा। तारापीठ तंत्र साधना का बड़ा केंद्र भी माना जाता है। तारापीठ धाम के श्मशान को काफी जागृत माना जाता है, जो मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर ब्रह्माक्षी नदी के किनारे स्थित है। महाश्मशान में वामाखेपा एवं उनके शिष्य ताराखेपा की साधनाभूमि है। इन्हीं दोनों की साधनाभूमि होने की वजह से तारापीठ को सिद्धपीठ माना गया है। काली पूजा के दिन यहां तंत्र साधना भी होती है।

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