- भारतीय सभ्यता और संस्कृति में गुरु महिमा : युगीन परिप्रेक्ष्य में पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न
नि.प्र. उज्जैन : देश की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी का विषय भारतीय सभ्यता और संस्कृति में गुरु महिमा : युगीन परिप्रेक्ष्य में केंद्रित थी। आयोजन के मुख्य अतिथि डॉ. बालकृष्ण शर्मा, कुलपति विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ डॉ. विमल जैन, इंदौर ने की। विशिष्ट अतिथि सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे, डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, सुवर्णा जाधव, डॉ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी और संस्था महासचिव डॉ. प्रभु चौधरी थे।
मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. बालकृष्ण शर्मा ने कहा कि जो भार से युक्त है, वह गुरु है। जो खाली है, वह लघु है, जो खाली नहीं है, वह गुरु है। गुरु वह है जो पूर्णता लिए हुए है। उपनिषद, रामायण, महाभारत और पुराणों में गुरु की महिमा मानी गई है। गुरु परम्परा अनादि है, जिसे तुलसी सहित अनेक संतों ने महत्त्व दिया। गुरु में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश तीनों का स्वरूप माना गया है।
यह बात गुरु के वैशिष्ट्य को निर्धारित करती है। ज्ञान प्राप्ति के लिए शिव की आराधना को महिमा मिली है, तुलसीदास जी उन्हें सर्वोपरि मानते हैं। सदाशिव को त्रिभुवन गुरु माना गया है। गुरु से जुड़े विद्या वंश को भारत भूमि में महत्त्व मिला है। शंकराचार्य मानते हैं कि सद्गुरु की उपमा मिलना मुश्किल है। फिर भी उन्होंने कहा है कि गुरु एक ऐसा पारस है, जो दूसरे को पारस बना देता है।
मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि सनातन, बौद्ध एवं जैन परंपरा में गुरु की महिमाशाली उपस्थिति को मान मिला है। वेदांत हो या सूफी अनुयायी हो सभी में गुरु की महिमा का बखान है। गुरु शिष्य की परंपरा का संकेत ऋग्वेद के सूक्त में भी उपलब्ध है। अथर्ववेद में आचार्य की महत्ता का उल्लेख है। वेद एवं वेदांत से लेकर रामायण, महाभारत और संत साहित्य में गुरु की महिमा आगे बढ़ती रही। शिक्षा गुरु अनेक हो सकते हैं, जिनसे मनुष्य कुछ न कुछ सीखता है।
विशिष्ट वक्ता के रूप में डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने कहा कि भारतीय संस्कृति विश्व में महान संस्कृति मानी जाती है। भारतीय संस्कृति में गुरुओं का विशिष्ट स्थान है। गुरु के प्रति सम्मान को दर्शाता है। गुरु को देवता तुल्य माना गया है। जीवन में सफलता गुरुओं से प्राप्त करते हैं। जीवन के उच्च शिखर में गुरु के सहायता से ही पहुंच पाते हैं।
अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. विमल जैन, इंदौर ने कहा कि ज्ञान परम्परा को आगे बढ़ाने में गुरु की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत एक समृद्ध परंपरा वाला देश है। आधुनिक दौर की शिक्षा में उसके समन्वय की आवश्यकता है। शिक्षकों को गुरु बनने का प्रयास करना चाहिए। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में गुरु महिमा का पारंपरिक देन हैं। इसीलिए गुरु की महिमा की तुलना हम गूगल से नहीं कर सकते क्योंकि गुरु हमें ज्ञान देता है और गूगल हमें केवल सूचना प्रदान करता है। इसलिए गूगल को गुरु ना कहा जाए। गुरु का स्थान सर्वोच्च है।
विशेष अतिथि सुवर्णा जाधव, पुणे ने कहा कि जब सृष्टि की शुरुआत हुई तब से गुरु परंपरा चली आ रही है और हमेशा रहेगी। संत तुलसीदास, कबीर जी ने भी गुरु माहात्म्य के बारे में लिखा है।
कबीर कहते हैं, हरि रुँठे गुरु ठौर है, गुरु रुँठे नहिं ठौर। आज भी अत्याचार, बलात्कार, आतंकवाद फैलता दिखाई दे रहा है, इसलिए आज भी सही मार्ग पर लाने के लिए गुरु की आवश्यकता है।
विशिष्ट अतिथि सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नार्वे में भारतीय सभ्यता और संस्कृति में गुरु महिमा पर कहा कि किस प्रकार गुरु अपने शिष्य की मदद करता है। उसे हर पक्ष पर नए ज्ञान देता है और महिलाओं की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता थी। कोरोना काल में सभी गुरु अपने शिष्य को तकनीकी के माध्यम से अपने ज्ञान का प्रसार किया।
विशिष्ट अतिथि विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज के सचिव डॉ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी ने कहा कि गुरु की धारणा भारतीय धारणा है। भारतीय परंपरा में गुरु जैसा शब्द है जो हमें भाता है। गुरु और अध्यापक में भी काफी अंतर आ गया है परंतु गुरु हमें जो शिक्षा देते हैं, अनुभव देते हैं,स्नेह देते हैं, जो हमें हमेशा नया ज्ञान देते हैं, वह गुरु है। गुरु का कर्ज़ हम कभी भी नहीं चुका सकते।
विशेष वक्ता राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के राष्ट्रीय महासचिव डॉ. प्रभु चौधरी ने कहा कि गुरु और शिष्य की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। इसलिए गुरु का स्थान सर्वोपरि है। हमें अपने गुरु का हमेशा सम्मान करना चाहिए और उनसे ज्ञान लेना चाहिए। विशिष्ट अतिथि उर्वशी उपाध्याय, प्रयागराज ने कहा कि किसी राह में चाहे कोई भी हो उसमें सीखने की तड़प अंदर होनी चाहिए क्योंकि गुरु ही शिष्य को लक्ष्य व उद्देश्य तक पहुंचाता है।
विशेष अतिथि डॉ. सुमा.टी रोडंकर, मंगलौर, कर्नाटक ने कहा कि गुरु शब्द संस्कृत से आया है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले गुरु वशिष्ठ ने सतयुग में सभी गुरु का महत्व बताया। कबीर दास जी ने गुरु के महत्व को बताया। साथ ही कर्नाटक के गुरु सर्वज्ञ के बारे में बताया कि जो व्यक्ति गुरु को महत्व नहीं देता उसका जीवन नर्क के समान है।
विशेष अतिथि डॉ. रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने कहा कि गुरु ही हमें ज्ञान शक्ति से ज्ञान प्रदान करते हैं। उन्होंने ईश्वर चंद्र विद्यासागर, राधाकृष्ण सर्वपल्ली, सावित्रीबाई फुले जैसे महान गुरु का वर्णन किया कि शिक्षक एक ऐसे गुरु हैं जो शिष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले कर जाते हैं।
कार्यक्रम का प्रारंभ डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक मुख्य राष्ट्रीय प्रवक्ता के गुरुब्रह्म गुरुविष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः के स्क्रीन शेयर के माध्यम से वह भुवनेश्वरी जायसवाल, रायपुर, छत्तीसगढ़ के सरस्वती वंदना से हुआ। स्वागत भाषण मुंबई की सुनीता चौहान ने दिया प्रास्ताविक भाषण मुंबई से प्राध्यापिका लता जोशी राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के उप महासचिव ने दिया।
अंतरराष्ट्रीय आभासी संगोष्ठी में अनेक विद्वत जन शिक्षाविद बृजकिशोर शर्मा, अध्यक्ष राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना, डॉ. हरिसिंह पाल महामंत्री, नागरी लिपि परिषद, दिल्ली, पूर्णिमा कौशिक, बालासाहेब तोरस्कर, महाराष्ट्र सहित अनेक गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।
कार्यक्रम का संचालन रायपुर से मुक्ता कान्हा कौशिक ने किया। प्राध्यापिका लता जोशी मुंबई ने किया।