नयी दिल्ली। हिन्दी और उर्दू के श्रेष्ठ लेखक ‘कलम के जादूगर’ मुंशी प्रेमचंद अपनी अमर लेखनी से सदियों तक हर उम्र वर्ग के दिलों पर राज करते रहेंगे। उपन्यास के क्षेत्र में उनके अनुपम योगदान के लिए बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट की उपाधि दी थी। देश आज उनकी 142 वीं जयंती मना रहा है। प्रेमचंद की कलम ने कभी काल्पनिक दुनिया की उड़ान नहीं भरी, जो भी लिखा जमीनी हकीकत और आम आदमी के चरित्र को उजागर किया। यही वजह है कि उनकी हर कथा, हर कहानी का एक-एक पात्र आज भी जीवंत लगता है।
प्रेमचंद को आज की युवा पीढ़ी भी पढ़ना पसंद करती है। अगर उसके पास जेन ऑस्टिन, जॉन मिल्टन, हेरॉल्ड पिंटर आदि की पुस्तकें हैं तो प्रेमचंद की ‘निर्मला’, ‘गोदान’ और ‘कफन’भी अवश्य होगी। मुंशी प्रेमचंद एक साहित्यकार, पत्रकार और अध्यापक के साथ ही आदर्शोन्मुखी व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने अपने को किसी वाद से जोड़ने की बजाय तत्कालीन समाज में व्याप्त ज्वलंत मुद्दों से जोड़ा। उनका साहित्य शाश्वत है और यथार्थ के करीब रहकर वह समय से होड़ लेती नजर आती है। प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था।
उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाक मुंशी थे। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। तेरह साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ ‘शरसार’, मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। प्रेमचंद की कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ।
गोदान उनकी कालजयी रचना है। कफन उनकी अंतिम कहानी मानी जाती है। उन्होंने हिंदी और उर्दू में पूरे अधिकार से लिखा। उनकी अधिकांश रचनाएं मूल रूप से उर्दू में लिखी गई हैं लेकिन उनका प्रकाशन हिंदी में पहले हुआ। वह तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में साहित्य की ऐसी विरासत सौंप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमीत। बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, तीन सौ से अधिक कहानियाँ, तीन नाटक, 10 अनुवाद, सात बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र
आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। प्रेमचंद के उपन्यास न केवल हिन्दी उपन्यास साहित्य में बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य में मील के पत्थर हैं।
वह वर्ष 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अध्यक्ष के रूप में चुने गए थे। कई दिनों की बीमारी के बाद और पद पर रहते हुए आठ अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया। उनकी कहानियों में विषय और शिल्प की विविधता है।
उन्होंने मनुष्य के सभी वर्गों से लेकर पशु-पक्षियों तक को अपनी कहानियों में मुख्य पात्र बनाया है। उनकी कहानियों में किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों, आदि की समस्याएं गंभीरता से चित्रित हुई हैं। उन्होंने समाज सुधार, देश प्रेम, स्वाधीनता संग्राम आदि से संबंधित कहानियां लिखी हैं। उनकी ऐतिहासिक और प्रेम संबंधी कहानियां भी काफी लोकप्रिय साबित हुईं। उनकी प्रमुख कहानियों में ‘पंच परमेश्वर’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘दो बैलों की कथा’, ‘ईदगाह’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘पूस की रात’, ‘कफन’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘सद्गति’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘तावान’, ‘विध्वंस’, ‘दूध का दाम’, ‘मंत्र’ आदि शामिल हैं।