राजीव कुमार झा, पटना। आधुनिक काल से हमारा आशय देश दुनिया और समाज में जीवन की उन नयी परिस्थितियों से है जिसमें हम अपने पहले के दौर जिसे मध्य काल कहा जाता है। वर्तमान समय में जिससे बेहद भिन्न जीवन को जीते दिखाई देते हैं और इसमें हमारे विचारों के अलावा सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में आने वाले परिवर्तनों की वजह से सांस्कृतिक जीवन में भी काफी भिन्नता दिखाई देती है। इतिहास के विभिन्न काल हमारे जीवन में विकास की प्रक्रिया से अवगत कराते हैं और इसकी झलक साहित्य कला संस्कृति में भी खास तौर पर समाविष्ट दिखाई देती है। हिंदी साहित्य में आधुनिकता के प्रभाव से कई तरह के बदलाव दृष्टिगोचर होते हैं और इनमें सामाजिक जीवन में समानता के अलावा शासन में जनता की भागीदारी लोकतंत्र के प्रति लगाव की भावना के अलावा अपनी संस्कृति के विराट स्वरों के संधान से जुड़ी बातें इसमें प्रमुख मानी जाती हैं।

हिन्दी का समकालीन साहित्य भी अपनी जीवन चेतना में इन प्रवृत्तियों को अपने वैचारिक चिंतन में प्रमुखता से प्रकट करता है। साहित्य लेखन को लेकर समाज में कोई पाबंदी नहीं है लेकिन लेखन चाहे वह कविता का हो या कहानी का हो यह आसान काम नहीं है। आज हिंदी में काफी लेखन हो रहा है और विविध विधाओं में रचनाएं प्रकाश में आ रही हैं। साहित्य सृजन में लेखकों को उच्च आदर्शों और जीवनमूल्यों को लेकर आगे बढ़ना चाहिए और इस बारे में आत्माभिमान से भी उन्हें दूर रहना चाहिए। इस बारे में कबीर तुलसीदास और भारतेंदु से लेकर प्रेमचंद निराला और मुक्तिबोध इन सब लेखकों कवियों का जीवन हमें प्रेरणा प्रदान करता है और इस प्रक्रिया में सबसे पहले समाज और जनजीवन से जुड़े प्रश्नों पर विचार करना चाहिए।

आज साहित्य में काफी भटकाव भी दिखाई देता है और लेखन की प्रचलित प्रवृत्तियों में अनुकरण की बातें प्रधान होती जा रही हैं। लेखक अब ज्यादातर यश प्रसिद्धि पुरस्कार की भावना से लेखन में संलग्न हो रहे हैं और साहित्यिक चिंतन बुद्धि विलास में नाना प्रकार के भटकावों से गुजरता दिखाई देता है। इस प्रसंग में समाज में एक सामान्य बुद्धिजीवी की कोई भूमिका अब यहां कायम नहीं रह गयी है और इसमें मुख्य रूप से कालेज यूनिवर्सिटी के प्राध्यापकों का एक तबका साहित्यिक चिंतन विमर्श में प्रमुख होता दिखाई देता है, वह छायावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता इन साहित्यिक स्थापनाओं के विवेचन में अपनी गरिमा को कायम करने में खासकर संलग्न रहा है। समाज में पढ़े-लिखे तबकों से आने वाले अन्य लोग भी इसमें थोड़ी बहुत भागीदारी करते हैं।

हिंदी के वैचारिक विमर्श में अन्य लोगों को बाहर कर दिया गया है। यह निन्दनीय है और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे साहित्य के पुरोधा चाहे वह महावीर प्रसाद द्विवेदी हों, रामचंद्र शुक्ल हों या शिवपूजन सहाय हों सारे लोग सामान्य बुद्धिजीवी तबकों से आने वाले लोग रहे। साहित्य चिंतन में आत्मचिंतन की प्रधानता होनी चाहिए और सजगता से इसमें आत्मिक प्रवृत्तियों को उत्प्रेरित करने वाले तात्विक तत्वों के विवेचन पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए। हिंदी में लंबे समय तक नामवर सिंह बनाम अशोक वाजपेयी का वैचारिक विवाद इसके चिंतन की सहज धारा को नाना प्रकार की अज्ञानता रूढ़ियों और भटकावों की ओर उन्मुख करता रहा और साहित्य जीवन के विविध उपक्रमों में साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा। यह निन्दनीय है।

साहित्य चिंतन में विवाद का समावेश नहीं हो और इस प्रसंग में हमें कबीर तुलसी की बातों का अनुसरण करना चाहिए। यह परंपरा मानसरोवर सुभर जल हंसा केलि कराहिं और गाइए गणपति जगवंदन की उद्गमभूमि पर स्थित है। हिंदी में आज विभिन्न तबकों से आने वाले लेखकगण एक गजब की रस्साकसी से घिरते और इससे बाहर निकलने की कवायद में जुटे दिखाई देते हैं। इसमें हाल में शिक्षित बने दलितों के अलावा नारी लेखिकाओं का तबका और अहिंदीभाषी, प्रवासी लेखकों को शामिल किया जा सकता है, लेकिन इन सबके बावजूद हिंदी का साहित्य इसके सृजन से परंपरागत रूप से जुड़े लोगों का साहित्य ही माना जाता है और इस तबके की जीवन प्रवृत्तियों में सामंती संस्कृति की मुख्य रूप से प्रधानता है।

नामवर सिंह को कम्युनिस्ट संस्कारों का प्रगतिशील चिंतक कहा जाता है और उनके वैचारिक दबदबे से हिंदी काफी दशकों तक आक्रांत रही। वह जिसे लेखक मानते थे, वह लेखक माना जाता था और बाकी लोगों का तबका काफी अपमानित और उपेक्षित दशा में जीवन यापन करता था। उनके वैचारिक फार्मूले को पढ़ सीख कर चार पांच सालों में वैचारिक परिपक्वता को हासिल करके आलोचक बनने वाले उनके अनुयायियों ने हिंदी चिंतन का बेड़ा गर्क कर दिया और इसी प्रकार दिल्ली, बनारस, कोलकाता, पटना और भोपाल में स्टीरियोटाइप लेखन की प्रवहमान वर्तमान लेखन प्रवृत्तियों ने कविता, कहानी, लेखन को नष्ट कर दिया।

हिंदी लेखक देश में सबसे गंदी बातें सोचने वाला लेखक माना जाने लगा और वह पियक्कड़ बनने लगा। इन स्थितियों में कैंसर की बीमारी के दौरान सरकार और धनाढ्य लोगों से भीख मांगने की भावना भी इन लोगों में विकसित हुई और गांव देहात के अपने भाई बन्धुओं को ऐसे लोग कुली मजदूर के रूप में देखने लगे। इसी जीवन दृष्टि को लेकर साहित्य सृजन भी शुरू हुआ। राग दरबारी उपन्यास के अलावा चीफ की दावत, डिप्टी कलेक्टरी, हत्यारे जैसी कहानियां इसी दौर में साहित्य की धरोहर बनीं।

राजीव कुमार झा, कवि/ समीक्षक

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी व व्यक्तिगत है। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है।)

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