स्वामी विवेकानंद जयंती : राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष…

‘रहो सदृढ़ हे हृदय-वीर’

भद्र और बुद्ध यद्यपि कम, वे ही पर बनते अधिनायक,
जन साधारण देर से समझे, भ्रष्ट न हो और बढ़ते जाओ।
संग तुम्हारे सिद्ध अनेकों, संग तुम्हारे शक्ति मान,
धन्य -मान तुम, महा आत्म हो, तुम्हे मिलें सारे आशीष!
स्वामी विवेकानंद

श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता। किसी भी देश का भविष्य पूर्णतः उस देश के युवाओं के सुविचारों और सुदृढ़कंधों पर निर्भर करता है। उन्हीं से होकर ही किसी देश का विकास क्रम आगे बढ़ता है। देश के युवा जिस आचरण के होंगे, वह देश भी उसी का अनुगमन करेगा। अतः समयानुसार देश के युवाओं को सही मार्गदर्शन अनिवार्य होता है। अपने देश के युवाओं को सही मार्गदर्शन हेतु प्रति वर्ष 12 जनवरी को युग प्रवर्तक, ओजस्वी विचारक और युवाओं के प्रेरणाश्रोत ‘स्वामी विवेकानंद’ की पावन जयंती को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

चुकी ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने वर्ष 1985 को “अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष” घोषित किया गया था। इसी तथ्य को मद्देनजर में रखते हुए भारत सरकार ने भी इसे स्वीकार कर सन 1985 से प्रति वर्ष ‘12 जनवरी’ को यानी आधुनिक भारत के निर्माता स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस को देशभर में ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा की। स्वामी विवेकानंद के विचारों और जीवन शैली के द्वारा युवाओं को प्रोत्साहित कर देश के भविष्य को और भी बेहतर बनाने के लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है।

स्वामी विवेकानंद के विचार, दर्शन और अध्यापन भारत की महान सांस्कृतिक और पारंपरिक संपत्ति हैं। उनका दर्शन, उनका जीवन, उनका कार्य एवं उनके आदर्श भारतीय युवकों के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं। स्वामी एक महान इंसान ही नहीं, वरन एक युग पुरुष थे, जिन्होंने हमेशा देश की ऐतिहासिक परंपरा को सुदृढ़ बनाने और सही नेतृत्व करने के लिए युवा शक्ति पर विश्वास करते थे। उनका मानना था कि भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए युवाओं के अनन्त ऊर्जा को जागृत कर उन्हें विभिन्न कार्य क्षेत्रों में प्रयोग कर सफलता प्राप्त करने के लिए एक निश्चित चुनौती का पीछा करना अनिवार्य है, जो उन्हें निरंतर सफलता के मार्ग की ओर अग्रसर करती रहेगी।

स्वामी विवेकानंद भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति की जीवंत प्रतिमूर्ति थे, जिन्होंने संपूर्ण विश्व को भारत की संस्कृति, धर्म के मूल आधार और नैतिक मूल्यों से परिचय कराया। उनका जन्म कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील विश्वनाथ दत्त तथा धार्मिकता से युक्त भुवनेश्वरी देवी के उच्च कुलीन धार्मिक आँगन में पौष कृष्णा सप्तमी तिथि (12 जनवरी, 1863) को हुआ था। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। वह भी अन्य बच्चों के समान ही बहुत नटखट स्वभाव के थे, परन्तु पढ़ाई-लिखाई में बहुत ही निपुण थे।

वह जो कुछ भी एक बार पढ़ लेते, उन्हें हमेशा के लिए याद हो जाता था। माता भुवनेश्वरी देवी नरेन्द्र को बाल्यकाल में रामायण और महाभारत सम्बन्धित प्रेरक कहानियाँ सुनाया करती थीं, जिसे सुनते-सुनते बालक नरेन्द्र का सरल शिशु हृदय भक्तिरस से बचपन में ही लबालब हो गया था। वे अक्सर अपने घर में ही ध्यानमग्न हो जाया करते थे, जो कालांतर में और भी अधिक प्रोढ़ होकर ‘विश्व विजयी’ के रूप में परिणत हो गया।

नरेंद्र 25 वर्ष की उम्र में ही अपना घर और परिवार को छोड़कर संन्यासी बनने का निश्चय कर ब्रह्म समाज के वरिष्ठ नेता महर्षि देवेंद्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आये। पर नरेंद्र के मन की जिज्ञासा को वे शांत न कर पाये और उन्होंने नरेन्द्र को महान संत पुजारी रामकृष्ण परमहंस के पास जाने की सलाह दी। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी दक्षिणेश्वर के काली मंदिर के पुजारी थे। सन् 1881 में नरेंद्र की मुलाकात आध्यात्मिकता में पूर्ण समर्थ गुरु रामकृष्ण परमहंस से हुई और मन की विकल जिज्ञासा भी शांत हुई।

आध्यात्म गुरु रामकृष्ण परमहंस जी की कृपा से नरेंद्र को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ और वे उनके प्रमुख शिष्य हो गए। रामकृष्ण परमहंस जी ने नरेंद्र के अन्दर की ज्ञान की ज्योति को प्रज्वलित करने का वृहद् कार्य किया। अब नरेंद्र ‘स्वामी विवेकानंद’ कहलाने लगे। रामकृष्ण परमहंस जी ने उन्हें मंत्र दिया कि ‘सारी मानवता में ही ईश्वर की सचेतन निहित है, उनकी सेवा ही ईश्वरीय आराधना है।‘

स्वामी विवेकानंद मात्र 25 वर्ष की अल्पायु में ही गेरुआ वस्त्र धारण कर सन्यासी बन गए और पूरे भारत का भ्रमण किये। वे अपनी यात्रा के दौरान अयोध्या, मथुरा, काशी, वृन्दावन, पूरी, द्वारका आदि तीर्थ स्थानों का भ्रमण किये। इस तीर्थ यात्रा के माध्यम से उन्हें पूरे भारत और भारत के विभिन्न लोगों को काफी करीब से जानने का अवसर प्राप्त हुआ। इसी यात्रा के दौरान उन्हें समाज में व्याप्त अमीर-गरीब, उच्च-नीच, भेद-भाव आदि जैसी अनेक कुरीतियों का पता चला, जिसे उन्होंने धर्म और सत्य ज्ञान का सहारा लेकर विनष्ट करने की कोशिश की।

उस समय भारतीयों को तथाकथित विकसित अमेरिका और यूरोपीय देशों में बहुत ही हीन भावना से देखा जाता था। भारतीयों के स्वाभिमान और हिन्दू धर्म-संस्कृति को पुनर्स्थापित करने के उद्देश्य से ही घोर कष्टों का सामना करते हुए स्वामी विवेकाननद जी 11 सितम्बर, 1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित ‘विश्व धर्म महासभा’ में भाग लिये। वहाँ उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत “मेरे अमरीकी भाइयों एवं बहनों” कहकर सम्बोधित कर की थी, जो अमेरिका वासियों के लिए प्रथम बार आत्मीय संबोधन था।

जहाँ उन्होंने दुनिया को ‘शून्य’ पर आधारित दिव्य दार्शनिक ज्ञान से परिचित करवाया। इस प्रकार शून्य को कुछ भी नहीं मानने वालों को शून्य की महत्ता समझाई। स्वामी जी ने दुनिया को भारत के आध्यात्मिकता से परिपूर्ण ‘वेदान्त’ का दर्शन कराये। अब तो देश-विदेश के लोग उनके शिष्यत्व प्राप्ति के लिए दौड़ ही पड़े।

सन् 1885 में स्वामी विवेकानंद के आध्याम गुरु रामकृष्ण परमहंस जी जब कैंसर रोग से पीड़ित होकर शैय्या सेवी बन गए, तब स्वामी विवेकानंद उनके मल-मूत्र से लेकर उनके रक्त मिश्रित कफ आदि को बहुत ही सेवा भाव से सफाई किया करते थे। गुरु के प्रति किसी शिष्य का ऐसी सेवा का उदाहरण बहुत कम ही देखने को मिलता है।

तदन्तर में स्वामी विवेकानंद ने ‘योग’, ‘राजयोग’ तथा ‘ज्ञानयोग’ जैसे ग्रंथों की रचना की। स्वामी विवेकानंद की शिक्षाएँ देश की सबसे बड़ी दार्शनिक संपत्ति हैं। विश्व में भारतीय वेदांत आध्यात्मिकता का दिव्य प्रकाश फ़ैलाने के उपरांत वापस लौट कर स्वामी विवेकानंद जी ने अपने गुरु के स्मरण में वर्तमान पश्चिम बंगाल के ‘बेलूर’ में गंगा (हुगली) नदी के किनारे 1897 में ‘रामकृष्ण संघ’ की स्थापना की। 1898 में श्रीरामकृष्ण मठ युक्त ‘बेलूर मठ’ की स्थापना की। यह एक ऐसी संस्था है, जो मानवीय मूल्य-आधारित शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करती है।

स्वामी विवेकानंद को अपनी मौत का पूर्व आभास था। उन्होंने अपने शिष्यों को पहले ही बताया था कि वे 40 वर्ष से अधिक न जियेंगे। 39 वर्ष की अल्पायु में ही इसी बेलूर मठ में संध्या आरती के उपरांत अपने कमरे में योग करने बाद 4 जुलाई, 1902 को उनके नाश्वर शरीर से तेज पूंज दिव्य प्रकाश निकल कर परमपिता में सर्वदा के लिए लीन हो गया।

एक बार जब स्वामी विवेकानन्द जी विदेश गए तो उनका भगवा वस्त्र और पगड़ी देख कर लोगों ने पूछा, कि आपका बाकी सामान कहाँ है? इस पर स्वामी जी बोले “बस यही सामान है।” इस बात पर कुछ लोगों ने व्यंग्य किया कि “अरे! यह कैसी संस्कृति है, आपकी? तन पर केवल एक भगवा चादर लपेट रखी है। कोट-पतलून जैसा कुछ भी पहनावा नहीं है? इस पर स्वामी विवेकानंद ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, कि “हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से भिन्न है।

आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं, जबकि हमारी संस्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है। इसका तात्पर्य यह है कि संस्कृति का निर्माण वस्त्रों से नहीं, बल्कि चरित्र के विकास से होती है।” – स्वामी जी का यह कथन आधुनिकता के रंग में रंगती हुई अपनी संस्कृति से दूर होती जा रही हमारी युवा पीढ़ी के लिए एक अमूल्य प्रेरणादायक शिक्षा है।

इस दार्शनिक गुरु की जन्म तिथि को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में की घोषित करने का उद्देश्य आने वाली युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानंद के पवित्र आदर्शों को ग्रहण करते हुए राष्ट्र के नव निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन करे। ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के अवसर पर हम भी ‘गौपुत्र श्याम नरेश दीक्षित’ के माध्यम से यही कहना चाहते हैं …….
फूलों-सी तुम महक उड़ाकर मेहनत का आगाज करो।
नई क्रांति की ज्वाला देकर अब फिर से तुम प्रयास करो।।
कर्म अश्व चेतक को लेकर महाराणा सा इतिहास करो।
वीर शिवाजी बनकर के तुम दुश्मनों का सर्वनाश करो।।
(गौपुत्र श्याम नरेश दीक्षित)

श्रीराम पुकार शर्मा

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