श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : सिसकती मानवता

सिसकती मानवता

श्रीराम पुकार शर्मा

शाम के लगभग साढ़े चार या पाँच बजे का वक्त रहा होगा। शहर की मुख्य सड़क पर गाड़ियों की संख्या और रफ़्तार दोनों ही कुछ और अधिक बढ़ चली थीं। सड़क के किनारे बने फुटपाथ पर भी राहगीरों की संख्या में भी काफी इजाफा हो गया था। अचानक ‘क्रि………….क…… ढस’ करती हुई किसी वस्तुओं की टकराने की बहुत ही तेज आवाज हुई। पथचारीगण कुछ समझ भी पाते कि उन्हें एक व्यक्ति किसी गेंद की तरह उछल कर सड़क के ‘डिवाइडर’ से टकराते हुए तथा एक स्त्री को फेंकाते हुए सड़क के बीच में गिरते हुए देखा।

एक स्कूटर एक बस के अग्रभाग में उलझी हुई दिखाई दी। तब लोगों को समझ में आया कि सड़क पर जाती हुई उस स्कूटर को उसके पीछे से तेज रफ़्तार से आती हुई उस बस ने जबरदस्त टक्कर मार दी। टक्कर इतनी तेज थी कि स्कूटर का चालक ही किसी गेंद की भांति उछल कर सड़क के किनारे के डिवाइडर से जा टकराया था।

‘आह’ व ‘उफ़’ की करुणा भरी चीखें उसके मुख से निकलीं। वह उठने की भरपूर कोशिश कर रहा था। पर वह सफल नहीं हो पा रहा था। शायद उसकी कमर की हड्डी टूट गई थी। कुछ ही देर में उसके पैंट के ऊपर से रक्त रिसते दिखाई देने लगे, जो सड़क पर फैलते ही जा रहे थे। उसकी घबराई नजरें कुछ खोजने का प्रयत्न कर रही थीं। जबकि उस दुर्घटनाग्रस्त स्कूटर पर उसके पीछे सवार शायद उसकी पत्नी ही थी, जो बस के टक्कर से सड़क के बीचो-बीच में जा गिरी थी।

उसके माथे से उसका ‘हेलमेट’ छिटक कर दूर तक ढुलकते हुए सड़क की दूसरी ओर चला गया था। तुरंत ही आने-जाने वाली गाड़ियों की रफ़्तार थम-सी गईं। लोगों में खलबली मच गई। कुछ राहगीर उस घायल युवक की ओर दौड़े। टक्कर की भयनाकता को शायद ड्राईवर समझ गया था। अतः जुटती भीड़ का ध्यान पीड़ितों की ओर देख वह मौके का फौयदा उठाते हुए बस से उतर कर चुपचाप कहीं सरक गया था। फिर बस में तोड़फोड़ और आगजनी जैसी किसी अनहोनी घटना की कल्पना कर अब तक बस के सभी यात्रिगण भी बस को खाली कर भीड़ का ही हिस्सा बन गए थे।

‘मेरी …… पत्नी ………सीमा।’ – ऐसा लगा कि घायल युवक अपनी सारी शक्ति को संचय कर एक बार फिर उठने की भरपूर कोशिश किया और कष्टपूर्वक कहा।
लोग उसे उठाकर सड़क के किनारे ले आये। किसी तरह से उसके माथे से ‘हेलमेट’ को निकला गया। उसके मुँह से रक्तस्नात दो दांत जमीन पर गिर पड़ें। उसके मुँह से निरंतर खून बह रहा था। एक प्रोढ़ राहगीर उसके माथे को अपनी गोद में ले लिया था।

शायद चोट काफी अंदरूनी और गहरी थी। उन्होंने उससे उसका परिचय और ठिकाना पूछने की कोशिश की। पर सब बेकार। वह कुछ भी बोल पाने में असमर्थ था। रह-रह कर वह अपनी सारी शक्ति को नियोजित कर अत्यन्त ही क्षीण दर्दभरी आवाज में केवल ‘मेरी पत्नी …. मेरी पत्नी….. ,’ का ही रट लगा पा रहा था। उसका मुँह सूखता ही जा रहा था। जबान अटक-अटक जाती थी। कुछ ही समय में उसका रटना भी धीरे-धीरे थम गया। शायद वह अपने अन्दरुनी गम्भीर दर्द को सहन न कर सका और वह मूर्छित हो कर एक ओर लुढ़क गया।

भीड़ में ही अपने पास ही एक व्यक्ति को हाथों में पानी की दो बोतलें लिये खड़ा देख वह सहायक प्रोढ़ भलेमानस ने उससे आग्रह करते हुए कहा, – ‘भाई साहब! थोड़ा पानी दो। इसका मुँह सूखता जा रहा है।’
‘नहीं, नहीं। यह जल मैं नहीं दे सकता। यह गंगा जल है। मैं अपनी माँ के लिए लेकर जा रहा हूँ। इसी से वह देवी-देवताओं की पूजा करेगी।’ – और वह अपने ‘गंगा जल’ वाली दोनों बोतलों को थैले में रख भीड़ में कुछ पीछे हट कर खड़ा हो कर तमाशा देखने लगा।

दूसरी ओर सड़क के बीच में गिरी स्त्री उसकी पत्नी ही तो थी। उसी के लिए ही उस घायल की नजरें बेचैन थीं और लगातार रट लगा रहा था। विपत्ति में अपने आत्मीयजन की चिंता ही सताती है। वह तो उसकी पत्नी ही थी। उसके भी माथे से और मुँह से रक्त की पतली धाराएँ बहने लगी थीं। उसके रक्तस्नात कपड़े अस्त-व्यस्त हो गए थे। वह जो लेगिंस पहनी हुई थी, वह फट कर रक्त से सने उसके घुटनों के काफी ऊपर जाँघ से भी ऊपर तक जा चढ़ी थी और उसके ऊपर के टी’ सर्ट कई जगह से फट गए थे। एक तरह से वह अर्धनग्न अवस्था में बीच सड़क पर पड़ी हुई थी। वह थोड़ी देर के लिए तड़पी, कराही और फिर तो वह बिल्कुल ही शांत हो गयी। सम्भवतः वह हमेशा के लिए ही शांत हो गई हो।

भीड़ में बहुत कम ही लोग ऐसे थे, जो उन पीड़ितों की सहायता करने जैसे उपक्रम कर रहे हों। जबकि अब तक कई ‘स्मार्ट मोबाइल’ निकल गए थे। विभिन्न कोणों से कई चित्र लिए जा रहे थे, तो कई विडिओ बनाने में व्यस्त थे। उनके लिए यह एक सुनहरा मौका ही तो था। चुक न जाए। आधुनिकता तथा वैज्ञानिक उपकरणों ने लोगों को कितना निर्मम बना दिया है। मृत्यु के दारुण पल भी किसी के लिए मनमोहक हो सकते हैं? बड़े ही आश्चर्य की बात है! भीड़ में अधिकांश इतने समझदार तो अवश्य थे कि वे स्त्री समझकर उसे अब तक हाथ नहीं लगा रहे थे।

‘लगता है किसी खाते-पीते परिवार से सम्बन्धित हैं।’ – भीड़ में से किसी ने कहा।
‘अभी तो इनके खेलने-खाने के ही दिन थे। देखो न, इनकी उम्र भी पचीस-तीस से अधिक की भी नहीं लगती है।’ – भीड़ में से ही किसी और ने कहा।
‘भरी जवानी में ही चल बसी।’ – भीड़ में से ही दो रसिक मिजाजी आपस में बतिया रहे थे, जिनकी गिद्ध दृष्टि उस मृतप्राय स्त्री के अर्धनग्न कसे लावण्य शरीर पर एकटक जमी हुई थीं। और भी इसी तरह की अनगिनत अनर्गल बातें बारी-बारी से आ रही थीं। बहुत देर बाद किसी ने काम लायक बातें कही, ‘अरे भाई! कोई एम्बुलेंस को बुलाओ। पुलिस को फोन करो।’

तभी अचानक भीड़ में से एक गरीब मजदूर आगे बढ़ा, जो लोगों की अनर्गल बातों को सुन रहा था, और उसने अपने माथे पर बंधा अपने गमछे को उतारा और उस घायल मरणासन्न अर्धनग्न स्त्री के पैरों से लेकर गर्दन तक फैला कर ढक दिया। एक छोटे से मामूली गमछे ने भरे बाजार में नीलाम हो रहे नारी-सम्मान पर जबरदस्त पर्दा डाल दिया।

अब क्या रखा है, मेले में? अब तो भीड़ को खिसकनी ही थी। भीड़ धीरे-धीरे खिसक चली।
कुछ समय उपरांत ही पुलिस की गाड़ी के साथ ही एक एम्बुलेंस भी घटनास्थल पर पहुँच गई थीं।

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