श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : “माई! मुझे माफ़ कर दो”

माई! मुझे माफ़ कर दो”

श्रीराम पुकार शर्मा

‘माँ या बाप अकेले अपनी सभी सन्तानों के सभी बोझ को निज पेट काट कर खुशी-खुशी उठा सकते हैं, पर वृद्ध माँ या बाप के बोझ को वे सब संतान मिलकर भी नहीं उठा सकते हैं।

श्रीनारायण ने अपनी माँ रुक्मिणी देवी के चरणों को स्पर्श किया और माँ से सुखी रहने का आशीर्वाद प्राप्त कर भारी मन से गाड़ी से नीचे उतर कर माँ वाली सिट की खिड़की के सामने ही प्लेटफोर्म पर खड़े रह कर माँ को बेवश देखे जा रहा था। गाड़ी की सिटी बजी, फिर वह धीरे-धीरे सरकने लगी। उस खिड़की के साथ कुछ दूर तक श्रीनारायण भी अपनी माँ को देखते हुए आगे तक बढ़ता ही गया, पर अब गाड़ी की गति तेज हो गई थी। धीरे-धीरे उसके कदम रूक गए। माँ अब भी खिड़की से उसे ही देखे ही जा रही थी। फिर कुछ ही देर में माँ का चेहरा ओझिल ही हो गया।

अब रेल-बोगियों के गेट पर खड़े यात्रीगण और फिर कतारबद्ध बोगियाँ ही दिखने लगीं। कुछ ही समय में गाड़ी की आखरी बोगी भी पार कर गई। अब तो उसके पीछे की जलती-बुझती लाल बत्ती ही दिखाई दे रही थी। फिर वह भी क्रमशः आँखों से ओझिल होकर अंधकार की गहनता में कहीं खो गई। दूर वीरान में रेल पटरियों के किनारे जहाँ-तहाँ जलती लाल बत्तियाँ और उसकी क्षीण आभा में रेल की पटरियाँ लालिमा लिये कुछ दमक रही थीं। उस गाड़ी की गमन की दिशा में भले ही अब गहन अन्धेरे का राज्य था, पर उस अँधेरे में भी आज श्रीनारायण को विगत कुछ घटनाएँ स्पष्ट झलकने लगी थीं।

उसका एम.बी.ए. का आखरी वर्ष ही तो था, कि हृदयघात से उसके पिता की अचानक मृत्यु हो गई थी। लेकिन उसकी पढ़ाई पर कोई आर्थिक आँच न आये, इसके लिए उसकी लाचार माँ रुक्मिणी देवी कुछ पैत्रिक खेती की जमीन को ही बेच दीं। फिर पर्याप्त पैसों के अभाव में ही उसके छोटे भाई जगनारायण को मेडिकल में दाखिला मिलते हुए भी, उसे साधारण स्नातक डिग्री हेतु एक कॉलेज में दाखिला करवाया गया था। खैर, अगले वर्ष ही श्रीनारायण का एम.बी.ए. पूर्ण हुआ और लखनऊ में एक MNC कम्पनी में मैनेजर के पद पर आसीन हो गया।

उसके एक वर्ष बाद ही एक धनाढ्य परिवार से सम्बन्धित ‘गर्विता’ के साथ उसका विवाह हो गया। चुकी गर्विता को देहात और वहाँ की संस्कृति पसंद न थी। अतः कुछ माह के बाद से ही वह अपने पति श्रीनारायण के साथ लखनऊ में आ बसी। इसमें श्रीनारायण की ही विशेष भूमिका रही थी। इसी बीच छोटे भाई जगनारायण भी पढ़ाई पूरी कर अपने गाँव के पास ही एक सरकारी विद्यालय में मास्टरी की नौकरी पर लग गया। उसी के अनुरूप एक साधारण खेतिहर परिवार से सम्बन्धित शोभा उसकी पत्नी है। वह बहुत कर्मठ और घर के सभी काम-काज में निपुण भी है। वह रुक्मिणी देवी को अपनी सास नहीं, बल्कि अपनी माँ ही मानती है।

जगनारायण अपनी मास्टरी की नौकरी के साथ घर से लेकर खेती-बाड़ी के कार्यों का भी बखूबी से सम्पादन करता है। माँ रुक्मिणी देवी उसके और उसकी पत्नी शोभा द्वारा प्रदत सेवा-भाव से पूर्ण संतुष्ट हैं।
‘अरे बेटा! अबकी बार तुम्हारे साथ हम भी शहर में जायेंगे।’ – पैसठ वर्षीय विधवा माँ रुक्मिणी देवी अपने बड़े पुत्र श्रीनारायण से बोली। श्रीनारायण बीते दीपावली में सपरिवार गाँव आया था। उसके बाद से वह अब ही अपनी माँ से मिलने गाँव आया है।

वैसे भी माँ से मिलना तो उसका एक बहाना मात्र ही था, वास्तव में गर्विता से ही प्रेरित होकर खेती से प्राप्त धन का अंदाजा लेने ही वह गाँव आया था। वह भी अकेला ही, क्योंकि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में पारिवारिक क्रिया-कलापों जनित कोई भी बाधा गर्विता को स्वीकार नहीं था। तो रुक्मिणी देवी अपने बड़े पुत्र श्रीनारायण के साथ लखनऊ में एक बड़ी इमारत के चौथे तल्ले पर तीन कमरों वाले एक सुसज्जित फ्लैट में आ पहुँचीं। दादी को देख कर श्रीनारायण के दोनों बच्चें चहक उठे। दादी का मन भी हर्षित हो उठा, दोनों बच्चों को दादी अपने कलेजे से लगा ली और उन्हें प्यार-दुलार करने लगी। श्रीनारायण हाल को पार करता हुआ भीतर के एक कमरे में चला गया। कुछ समय के पश्चात वह निकला, तो साथ में उसकी पत्नी गर्विता भी थी।

वह आगे बढ़कर अपनी सास के पैरों की ओर थोड़ा झुक कर प्रणाम की और फिर पास के ही एक सोफे पर बैठ गई। घरेलू नौकरानी एक ग्लास में पानी लाकर रख गयी थी। बच्चों के साथ दिन कैसे बीत गया, रुक्मिणी देवी को पता ही नहीं चल पाया? वह भी उन बच्चों की किया-कलापों में ही स्वयं को ढूंढने का प्रयास कर रही थीं। रात बीती, सुबह हुई। स्वभावगत वह भोर में ही उठ गई थीं। पर, अभी तक सभी कमरे के दरवाजे बंद ही थे।

बाहर जाने के लिए मुख्य द्वार को वह कई बार खोलने की कोशिश की, पर आटोमेटिक दरवाजे को न खोल पाईं। लगभग सवा आठ बजे पुत्र-पुत्रवधू के कमरे का दरवाजा खुला। अपने बिखरे बालों को समेटते हुए पुत्रवधू गर्विता कमरे से बाहर निकली और फिर रसोईघर में प्रवेश की। इधर बेचारी रुक्मिणी देवी को तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? रसोई घर से ही गर्विता श्रीनारायण को वह आवाज दी, – “रात में दूध तो बचा ही नहीं है, जाइए दूध लेकर आइये, तब न चाय बनेगी।”

तभी बाहर घंटी बजी। दरवाजा गर्विता ने ही खोला। घरेलू काम-काज करने वाली नौकरानी को आया देख कर उसे ही दूध लेने के लिए नीचे भेज दी और स्वयं अपने कमरे में जा घुसी। नौकरानी दूध लेकर आई और रसोई घर में प्रवेश की। कुछ ही देरी में वह दो बिस्कुट सहित एक कप चाय रुक्मिणी देवी के लिए हाल के ही चाय-टेबल पर रखी। फिर वह श्रीनारायण और गर्विता के लिए चाय और बिस्कुट उनके कमरे में ही पहुँचा आई और फिर वह अन्य घरेलू कामों में लग गई थी।

अबतक दोनों बच्चे भी जाग गए थे। दोनों ही अपनी दादी के बगल में बैठ कर साथ बतिया रहे थे। गर्विता अपने कमरे से निकली और दोनों बच्चों को लगभग डाँटती हुए बोली, – “जाओ हटो वहाँ से। जाकर ब्रश करो और अपनी पढ़ाई का काम पूरा करो। चलो जाओ।” – दोनों बच्चे मुँह लटकाए वहाँ से उठे और अपने कमरे की ओर चले गए। बेचारी दादी अबोध बच्चों के समर्थन कुछ बोल भी न पाई। श्रीनारायण भी हाल में आया और माँ से पूछा, – “माई! तुम चाय पी ली हो?”

“हाँ बेटा! तुम लोग बहुत देर तक सोते हो। सबेरे जल्दी उठना ठीक रहता है। तुम दोनों के देखा-देखी बच्चे भी देर तक सोते हैं। हम तो बड़े सबरे से ही उठ कर कमरे से बाहर जाने के लिए बेचैन हैं, पर बाहर का दरवाजा ही बंद पड़ा था।

“माँ जी! देर आफिस से लौट कर इन्हें घर में भी तो एक-दो घंटें काम करना पड़ता है। फिर TV पर समाचार आदि देखते-सुनते और खाते-पीते ग्यारह-साढ़े ग्यारह बज ही जाते हैं। सोते-सोते बारह बज भी जाते हैं। ऐसे में जल्दी सुबह उठ पाना तो मुश्किल हो ही जाता है। बच्चे भी इसी रूटीन में ढल गए हैं।” – गर्विता हाल में आते ही श्रीनारायण की जगह माँ जी को उत्तर दी। शायद श्रीनारायण से उपयुक्त उत्तर का उसे भरोसा न था। माँ रुक्मिणी देवी हाल के ही TV पर ‘रामायण’ धारावाहिक देखने लगी। गर्विता फिर से रसोई घर में प्रवेश कर गई थी।

कुछ ही देरी में श्रीनारायण तैयार होकर खाने के लिए टेबल की कुर्सी पर आ बैठा। बच्चे भी बगल की कुर्सियों पर बैठ गए थे। गर्विता दो-तीन प्लेटों में नास्ते के सामन लेकर आई और उसे अलग-अलग प्लेटों में उनके लिए परोसने लगी। श्रीनारायण ने माँ की ओर देखकर ही कहा, – “माई! आओ, तुम भी नास्ता कर लो।” – माँ अपने बेटे के प्यार भरे आमन्त्रण को सुनकर गर्व महसूस की और सोफे से उठना ही चाहती थी कि रसोई घर से ही बहु गर्विता की आवाज सुनाई दी, – “माँ जी को थोड़े ही कहीं आफिस जाना है। वह थोड़ी देर बाद नाश्ता कर लेंगी। दो ही तो हाथ हैं। पहले आपलोग नाश्ता कर लीजिये।”

गर्विता की बात सुनकर बेचारी रुक्मिणी देवी फिर सोफे पर ही बैठ गई। क्या करे, वह बोली, – ‘बेटा! हम तो जब चाहे खा-पी लेंगे। पहले तुम खा-पी के आफिस जाओ।”

श्रीनारायण के पश्चात् ही बच्चें भी तैयार होकर स्कूल चले गए। फ्लैट के बाहर कुछ खुले में रुक्मिणी देवी जाना चाही। पर गर्विता को यह बिल्कुल ही पसंद न था कि उनकी देहाती बूढी सास किसी और के पास जाएँ और इधर-उधर की बातें करें। जैसे भी रहें अपने फ्लैट में ही रहें। TV पर रामायण देखना चाही, तो बहु को शोर पसंद नहीं था। बेचारी दिन भर पिंजरे में परवश कैद की तरह पड़ी रहती। हर बात और हर काम के लिए उन पर गर्विता की बंदिशे थीं।

अब तो वह हाल के ही एक कोने में सिमट कर रह गई थीं। गाँव में रहती थीं, तो सबेरे से ही उनका आँगन गाँव भर की औरतों से भर जाती थी। सभी अपने दुःख-सुख की बात आपस में साझा किया करती थीं। पर यहाँ तो मुख से शब्द उच्चारित भी नहीं हो रहे थे। बहुत ही संक्षिप्त केवल ‘हाँ’ या ‘ना’ में ही बहु के साथ भावों के आदान-प्रदान हो रहे थे। या यों कहा जाय, इससे अधिक सुनने की फुर्सत गर्विता को भी न थी। वह जानती थी कि उनकी सास कुछ दिनों के लिए ही यहाँ आई हैं। फिर ज्यादा आत्मीयता की जरुरत ही क्या है?

श्रीनारायण को भी अपनी माँ के पास बैठने की फुर्सत कहाँ थी? वह भी आफिस से लौटते ही अपने कमरे में बंद हो जाता था। उसी में उसका चाय-पानी आदि होता था। बच्चे भी स्कूल से लौट कर आते ही काम्प्लेक्स के मैदान में खेलने चले जाते और फिर लौटते ही अपने कमरे में पढ़ने बैठ जाते थे। रुक्मिणी देवी को पहाड़-सा दिन बिताना भी अब मुश्किल लगने लगा था।

अपने साथ ‘गुटका रामायण’ तो लेकर आई थीं, पर घर में प्रतिदिन अंडे-चिकन का उपयोग और उसके दुर्गन्ध से युक्त घर में उन्हें ‘गुटका रामायण’ को निकालने की इच्छा ही नहीं हो पाती थी। अभी उन्हें इस घर में आये एक सप्ताह भी पूरे न हुए थे, पर वह अनुभवी बुढ़िया इस घर में अपनी अनावश्यकता को अच्छी तरह से भाँप गई थी।

फिर एक दिन रुक्मिणी देवी अपने पुत्र श्रीनारायण से वापस गाँव पहुँचा देने का आग्रह की। पहले तो श्रीनारायण एकाध सप्ताह और रुकने का आग्रह किया। लेकिन तुरंत ही उनके मन को बदलने के पूर्व ही उन्हें गाँव पहुँचाने की बात को मान गया। मानना उसकी लाचारी भी थी, ऐसा नहीं था कि वह अपने घर की परिस्थिति और अपनी पत्नी गर्विता की मनोभावना से अनभिज्ञ था। उसे सब पता था, पर वह अपने एकांत पारिवारिक जीवन की शांति को भंग करने का ‘रिस्क’ नहीं लेना चाहता था।

श्रीनारायण अपनी कुछ छुट्टी सम्बन्धित समस्या बता कर छोटे भाई जगनारायण को माँ को वापस गाँव ले जाने के लिए लखनऊ बुलवा लिया था। जगनारायण उसी दिन की रात्रि वाली ट्रेन से माँ के साथ वापस लौटने लगा। बच्चे दादी को और कुछ दिन रुकने का आग्रह करने लगे। गर्विता भी प्रेम-प्रदर्शन करते हुए अपनी सासु माँ को पुनः आने का आग्रह की।

श्रीनारायण तो अपनी गाड़ी में उन्हें साथ लिये स्टेशन तक आया था। रेलगाड़ी में सामान व्यवस्थित कर जगनारायण कुछ जरुरी सामान लेने उतर कर बाहर गया था। श्रीनारायण बहुत ही विनम्र भाव से माँ से आग्रह करते हुए निवेदन किया, – ‘माई! हमको मालूम है कि तुम्हें हमारे यहाँ बहुत कष्ट हुए हैं। पर क्या करें, दिन भर आफिस में अशांति और फिर घर आकर उसी तरह की अशांति करके कोई घर में ही कैसे रहा जा सकता है? इसीलिए मैं गर्विता की बातों में अपनी टांग नहीं अड़ाता हूँ।

माँ का मन भी खिन्न ही था। वह बोली, – ‘ठीक कहते हो बेटा। हम तो भयानक विपत्ति में भी अपने पेट को काट-काट कर और छोटे जगनारायण के अधिकार पर छूरी चला कर तुम्हें पढ़ा-लिखा कर इस काबिल बना दिए कि अब तुम अपने पारिवारिक जीवन में कोई अशांति न आने दो। तुम अपनी माँ की एक सप्ताह की सेवा करने में ही उब गए। तुम्हारा पारिवारिक जीवन अशांत हो गया। सही बात तो यह है बेटा, कि माँ या बाप अकेले अपनी सभी संतानों के सभी बोझों को निज पेट काट-काट कर खुशी-खुशी उठा सकते है, पर वृद्ध माँ या बाप के बोझ को सभी सन्तान मिलकर भी नहीं उठा सकते हैं।’

‘माई! तुम तो गलत समझ रही हो। मेरा कहने का मतलब यह नहीं है।’
‘बेटा! तुम मेरा ही जन्मा है। तुम कुछ बोलोगे, क्या मैं तभी कुछ समझ पाऊँगी? माली से पौधे का क्या मर्म छुपा रह सकता है? जा बेटा जा। तुम पूरे परिवार सुख-शांति से रहना। जाते-जाते मेरी एक बात याद रखना, हमारे घर का आँगन बहुत बड़ा है, उसमें गाँव भर के लोग भी कम ही पड़ जाते हैं। हमारे घर-आँगन में तुम्हारा पूरे परिवार का स्वागत है। उसमें तुम लोगों को कभी कोई तकलीफ न होगी।’

‘माई! मैं बहुत लज्जित हूँ, माई! तुमसे मेरी एक प्रार्थना है, यहाँ की बातें गाँव में कोई जानेगा, तो अपने परिवार की ही इज्जत खराब होगी न। अब तुमको जो सही लगे, वही करना।’
‘बेटा! तू बड़ा ही अबोध ही। तुम निश्चिन्त रहो। हमारे परिवार पर कोई अँगुली न उठावेगा। जा बेटा, जब तुम्हारा मन अशांत रहने लगे, तब तुम अपने गाँव, अपने आँगन में, अपनी माई के पास आ जाना। वहाँ तुम्हारे मन को बहुत शान्ति मिलेगी। जा बेटा, जा।’
चुकी गाड़ी को चलने का समय लगभग हो गया था।

जगनारायण भी कुछ सामान लेकर आ गया था।
‘भैया! गाड़ी खुलने का समय हो गया है। अब आप नीचे उतर जाइये। अन्यथा आपको परेशानी होगी।’ – जगनारायण ने अपने बड़े भाई श्रीनारायण को सावधान करते हुए बोला और उसके चरणों को स्पर्श किया। श्रीनारायण भी अपनी माता के चरणों को स्पर्श किया और भारी मन से गाड़ी से उतर कर माँ की सिट वाली खिड़की के पास ही आ खड़ा हुआ था। उसके मन में एक भयानक बवंडर उत्पन्न हो रहा था, फिर भी वह बाहर से जबरन शांत दिख रहा था।

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