श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : गंगा ! तेरी गोद में

गंगा ! तेरी गोद में

श्रीराम पुकार शर्मा

सुबह का छः बजा होगा। चौसा पुलिस थाना में फोन की घण्टी बजने लगी, थोड़ी ही देर में वह चुप हो गई। तुरंत फिर से बजने लगी। थाने का संतरी सिपाही बाबुलाल मुख्य द्वार पर ही अभी दातुन चबा ही रहा था, बीच-बीच में अपनी गर्दन को ऊँट की भांति बढ़ाकर पास के जबरन उग आये झाड़ियों पर थूक दे रहा था। उसका साथी मोहन चौधरी अभी स्नान कर भीतर के कमरे में पुलिसिया ड्रेस ही बदल रहा था। जबकि अन्य और तीन सिपाही थाना के पीछे के नल पर स्नान करने में व्यस्त थे। भीतर से ही आवाज आई, – ‘बाबूलाल, देख किसका फोन है।’

दातुन की चबाई से बाबूलाल का मुँह भर गया था। अपने मुँह को ऊपर उठाये जोरदार थूका, जो इस बार झाड़ियों को पार कर बिछाए गए पत्थरों पर गिरा और दूर तक छिटक कर फ़ैल गया। मुँह से गिरते लार को गमछे से पोंछा और एक भद्दी गाली उच्चारते हुए कहा, – ‘साला, सुबह हुआ नहीं, कि वारदात शुरू।’ वहीं से थाना में झाड़ू लगा रहे दुबले-पतले अधेड़ झाड़ूदार से कहा, – ‘चाचा, जरा फोन तो उठाओ देखो तो, सुबह-सुबह ही किसकी माँ मरी जा रही है?’

अधेड़ झाड़ूदार फोन पर बहुत संक्षिप्त बातें कर बाबूलाल को बुलाया और कहा, – ‘कहीं लाश मिली है, बतिया लो’ और फोने के रिसिभर को टेबल पर रख दिया। ‘हेलो! चौसा थाना से बोल रहा हूँ , बोलो क्या बात है?’ – इसके बाद फिर ‘हाँ, .. हाँ, … कहाँ, …. कब, …. कौन, ….. और कौन, ….. थोड़ी देर में पहुँचते हैं’ जैसे टूटे फूटे शब्द ही इधर सुनाई दिए। तब तक मोहन चौधरी भी अपने ड्रेस को ठीक करते हुए उसके पास पहुँच गया और आँखों के इशारे से पूछा। बाबूलाल उस घटना के बारे में उसे बताने के बाद इसकी सूचना थाना के ‘छोटे बाबु’ अर्थात सब-इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर बाबु को दे दी।

पुलिस की जीप सायरन बजाती हुई चौसा नगर से निकल कर नरबतपुर पार कर ‘ब्लाक ऑफिस’ से दाहिने मुड़ी, फिर बारा जाने वाली सड़क 99 पर सरपट दौड़ने लगी। कर्मनाशा पुल के कुछ पहले ही जीप सड़क के किनारे करके रुक गई, जहाँ कई लोग अपने चहरे को मास्क से ढके उस पुल पर से नीचे नदी के किनारे की ओर देख रहे थे। पुलिस की जीप को रुकते देख लोग इधर-उधर सरकने लगे। जीप की अगली सीट से युवा सब-इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर बाबु उतरे और पीछे से सिपाही मोहन चौधरी उतरा और वह सुनील बाबु के बगल में ही कुछ दूरी बनाकर खड़ा हो गया, जबकि अन्य तीन सिपाही भी वाहन के पीछे भाग से उतर कर लोगों को दूर करने लगे।

एक नौजवान आगे बढ़कर सड़क की ढलान से नीचे की ओर बढ़ा। उसके पीछे सिपाही मोहन चौधरी, फिर सब-इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर और उनके पीछे तीनों सिपाही उस ढलान से उतरते हुए कर्मनाशा नदी के तट पर पहुँचे, जहाँ एक व्यक्ति की लाश नदी की जलधारा में झाड़ियों में उलझ कर फँसी हुई थी। पुलिस दल को आते देख वहाँ पर पहले जमा लोग कुछ दूर हट गए। कुछ स्थानीय लोगों ने लम्बे बांसों की मदद से लाश को किनारे के बालू पर किया। लाश किसी अधेड़ व्यक्ति की थी, जो पानी के कारण फूल गया था। उसके शरीर पर कपड़े के नाम पर केवल एक पुरानी धोती और फटी हुई बनियान थी।

उसके बारे में कोई कुछ बता नहीं पा रहा था। इतना तो निश्चय हो ही गया कि यह लाश बहुत दूर से नहीं, वरन पास के ही किसी गांवों से सम्बन्धित है। वैशाख-जेठ की नदी में कोई तेज धारा तो है नहीं, जो दूर से इस लाश को बहा कर लाएगी। चुकी यह कर्मनाशा नदी बिहार और उत्तर प्रदेश का बार्डर निश्चित करती है। नदी के दाहिने किनारे के कोनिया, बनारपुर, आदि गाँव बिहार में तथा उस पार के सिकरौल, मगर्खोई, मिसरौलिया आदि गाँव उत्तर प्रदेश में पड़ते हैं। इन्हीं किसी गाँव से ही सम्बन्धित यह लाश है। ‘पंचनामा’ तैयार करने के उपरांत स्थानीय लोगों की सहायता से ही लाश को एक अन्य गाड़ी में लदवाया और पोस्टमार्टम हेतु उसे जिला अस्पताल में भेज दिया गया।

पुलिस दल उसी दिन शाम तक सूंघते-सूंघते बनारपुर गाँव के बाहर एक छायादार पीपल वृक्ष के नीचे पहुँच गई। गाँव के पंचायत सदस्य अनवर हुसैन उनके लिए कुर्सियों का इंतजाम किया। जलपान आदि के लिए सब इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर ने सख्त मना कर दिया था। गाँव के ही भरत कहार को बुलाया गया, मंझले कद के साँवले और रोआनी सूरत लिये हुए भरत कहार अपने दोनों हाथों को जोड़े वहाँ उपस्थित हुआ। गाँव के कुछ अन्य लोग भी कौतुहलवश माजरा देखने वहाँ पहुँच गए थे, जैसा कि अक्सर होता है।

सब-इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर के सामने आकर भरत कहार सिर झुकाए जमीन पर बैठ गया। कुछ देर सब-इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर मौन रह कर ही उसकी रूप-लेखा का पुलिसिया मुआयना किया और उससे पूछा, – ‘क्या नाम है तुम्हारा? और तुम्हारे पिताजी का नाम क्या है? भरत कभी पुलिस का सामना न किया था। जरूरत भी क्या थी? आखिर मजदूर आदमी को अपने परिवार के पेट के जुगाड़ से फुर्सत ही कहाँ, जो किसी और से ताल्लुक रखे। थाना-पुलिस और कोर्ट-कचहरी से भला उस गरीब का क्या ताल्लुकात? पहले तो कुछ सकपकाया और फिर सिर नीचे किए ही बहुत ही मुश्किल से उत्तर दिया, – ‘सरकार! भरत कहार, और हमरे बाबूजी का नाम जोखन कहार है।’

‘इस समय तुम्हारा पिता जोखन कहार कहाँ है?’
‘जी, …. जी, ….. सरकार,…..I’
‘जी… जी… मत कर। साहेब जो पूछे, उसका सही जवाब दो, नहीं तो, ई पुलिसिया डंडा तुम्हरे पिछवाड़े पर पड़ा, कि महीनों तक सही ढंग से न बैठ पावोगे और न सो ही पावोगे।’ – सिपाही मोहन की आदतन कड़कदार आवाज गूँजी और उसके हाथ का डंडा भी कुछ ऊपर उठ गया था। लेकिन सब-इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर के हाथ के ईशारा को समझते ही वह रुक गया।

‘सरकार!…. ‘बाबु’ तो अभी घर पर नहीं हैं… लगता है कि…. नदी उ पार ‘बारा’ गाँव गए हैं, एक रिश्तेदार के यहाँ।’ – भरत कुछ हकलाते हुए जबरन ही कहा।
‘लेकिन तेरा बाप तो कई दिनों से बीमार था न और आज वह कुटुमइती करने नदी उ पार चला गया? सही-सही बता, न तो सही उगलवाना हमको आता है।’ – सिपाही मोहन फिर गरजा।

‘देखो भरत, हमें सब पता है। आज सुबह ही एक लाश कर्मनाशा नदी में पुल के नीचे बरामद हुई है। वह किसी और की नहीं, बल्कि तुम्हारे पिता की ही लाश है। अब तुम हमें सारी घटना बताओ। तुमने उसे क्यों मार कर नदी में बहा दिया? सच-सच बताओ। अगर तुमने झूठ कहा या फिर कुछ भी छिपाने की कोशिश की, तो फिर तुम तो जानते ही हो कि हम मुर्दों से भी सच उगलवा लेते हैं। लेकिन वह उपाय तुम्हारे लिए ठीक न होगा….. डरो नहीं तुम्हें कुछ न होगा, बोलो’ – सब-इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर ने कुछ कठोर और कुछ हमदर्दी युक्त शांत स्वर में उसे समझाते हुए बोले।

पुलिस का सामना पड़ते ही बड़े से बड़े और शातिर अपराधी भी टूट जाते हैं। भरत कहार तो दिन भर मजदूरी करने वाला एक अदना-सा आदमी है। उसका टूटना जायज भी था। भरत कहार फफक कर रो पड़ा, फिर सिसकियाँ भरते हुए कहने लगा।

अपने बाबू के साथ वह दिल्ली की एक ‘मंडी’ में सामान ढ़ोने का काम किया करता था। लेकिन कोरोना काल में मंडी के बंद हो जाते ही उनके सारे काम-काज बंद हो गए। विगत वर्ष की स्थिति को स्मरण कर वह अपने बाबू सहित दस-बारह दिन पहले ही गाँव लौटा आया। जेब में जो पैसे थे, वह तो गाँव लौटने में ही समाप्त हो गए। गाँव पर काम-धंधा की तलाश किये, पर कोरोना महामारी के कारण कोई काम न मिला।

फिर कर्मनाशा के उस पार ‘बारा’ में कुछ ईंट-बालू ढ़ोने का काम मिला। बाप-बेटा दोनों सबेरे से शाम तक उसी में लगे रहते थे, पर उसके बाबु गर्मी बर्दास्त न कर पाए और उन्हें लू लग गई। फिर भी काम करते ही रहें, मना करने पर बोलते कि कमाएंगे नहीं तो गरीब का चूल्हा कैसे जलेगा। उनका देह बुखार से तपने लगा। सिकरौल गाँव के एक डाक्टर बाबु की दवाइयाँ चलीं, बाद में पैसे के अभाव बंद भी हो गई। परसों रात से ही वह अंडसंड बड़बड़ाने लगे। अस्पताल ले जाना जरुरी समझ कर गाँव के कई लोगों के सामने गिड़गिड़ाया, पर कोई साथ न दिया। गाँव के ही एक टेम्पू वाला अस्पताल तक ले जाने के लिए पन्द्रह सौ रुपया सुनाया।

सरकार! घर में एक समय का सही भोजन न बन पा रहा है, फिर इतना रुपये कहाँ से देता? लाचारी में साइकिल पर अपने बाबू को मुश्किल से बैठा कर अस्पताल पहुँचा। डेढ़-दो घंटे अस्पताल के बाहर धूप में दोनों पड़े रहें I फिर कईयों के पैर पकड़ने और गिड़ागिड़ाने पर अस्पताल के नए डाक्टर साहब दूर से ही पूछताछ किये और कहे, – ‘जाओ, पहले कोरोना का टेस्ट करवा के आओ, तब इलाज होगा।’ – पूछने पर पता चला कि कोरोना टेस्ट के लिए हजार रूपये चाहिए और उसका रिपोर्ट तीन-चार दिन बाद ही मिलेगा। अपने पास फूटी कौड़ी भी न थी।

सरकार! क्या करता, ‘भगवान् की मर्जी’ को मान कर फिर से उन्हें साइकिल पर लादे गाँव की ओर लौट पड़ा, लेकिन गाँव तक वापस लौटने का भी उनका नसीब न हो पाया। बाबू रास्ते में ही तड़पकर हमेशा के लिए एकदम से शांत हो गए।’ – भरत का गला अवरुद्ध होने लगा। जोर-जोर सिसकियाँ लेने की आवाज आने लगी।
उसने आगे बताया, – ‘मन हुआ कि अपने बाबू के मृत शरीर को गाँव ले चलते हैं। पर ख्याल आया कि गाँव वाले कोरोना के नाम पर अब गाँव में घुसने न देंगे। सीधा ‘मुक्तिधाम’ श्मशान घाट पर ले गया, पर वहाँ भी लाश को जलाने के लिए तीन हजार रुपये की माँग की गयी। सरकार! उतना पैसा भला कहाँ से पाता?

कुछ आगे-पीछे सोच कर लाचारी में अपने बाबू के मृत शरीर को कर्मनाशा नदी के किनारे ले गया और अकेले ही आँसू बहाते नदी में चुपचाप प्रवाहित कर दिया, सोचा था कि बाबु की लाश धारा के साथ बहते हुए कम से कम गंगा में पहुँच ही जायेगा और किसी को कुछ पता भी न चलेगा, पर गरीब के भाग्य में मर कर भी गंगाजल की प्राप्ति न लिखा था।’ – वह फुट-फुट कर रोने लगा, बिलखते हुए कहा, – ‘सरकार! अपने मरे हुए बाबु की कसम, एक जौ भर भी हम झूठ न कहे हैं।’

भरत की बातें सुनकर सब इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर कुछ पल के लिए अपनी आँखें बंद किये मौन धारण किये रहे। फिर कुछ पल के लिए उसे देखते ही रहे। एक अजीब-सी सन्नाटा पसर गई थी वहाँ पर। शायद समय की कठोर पहिया गरीब की आत्मा कुचलने के लिए अभ्यस्त हो गई हो। कुछ विचार कर अपने मौन को तोड़ते हुए बोले, – ‘भरत, तुम अनजाने में बहुत बड़ा अपराध कर बैठे। बिना इजाजत व्यक्ति की लाश को जलाना या फिर दफनाना गैर कानूनी है। पता नहीं, तुम्हारे पिता कोरोना से संक्रमित हों अगर ऐसा हुआ, तो तुम भी कोरोना से संक्रमित अवश्य हुए होगे!

कर्मनाशा नदी का पानी भी तो कोरोना वायरस युक्त हो गया। जो भी व्यक्ति या फिर पशु-पक्षी उसके जल के सम्पर्क में आयेंगे, वे सभी कोरोना वायरस से संक्रमित होकर उसके वायरस को और भी प्रसारित ही करेंगे। अब न जाने कितने घरों में, कितने लोगों तक वह घातक कोरोना वायरस फ़ैल चूका होगा। तुम्हारे घर के सभी लोग भी संक्रमित हुए होंगे! तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था।’ – वहाँ पर इक्कट्ठे हुए लोग अब स्वतः ही दूर होने लगे थे। कुछ सोचकर उन्होंने पूछा, – भरत! अभी तुम्हारे घर में कितने लोग हैं?

‘सरकार, बूढी मतारी है, हमर घरवाली है और दो बच्चे सहित अब हम लोग कुल पाँच जने हैं।’
‘घर में खाने-पीने की व्यवस्था?’
‘सरकार, कुछो नहीं है। राशन दुकान वाला बताया कि इस माह का राशन बँट गया है, अब अगले महीना राशन मिलेगा। जो कुछ हाथ में पैसा था, वह तो बाबू के दवा-दारू में ही खर्च हो गए।’

सुनील राजशेखर कुछ सोचते हुए ग्राम पंचायत के सदस्य अनवर हुसैन को पास बुलाया और उसके माध्यम से सभी को समझाते हुए कहा, – ‘चुकी इसने अपराध तो किया है, परन्तु कोरोना के टेस्ट के बिना मैं इसे गिरफ्तार नहीं कर सकता हूँ। लेकिन जो भी व्यक्ति इसके और इसके परिजन के सम्पर्क में आये हैं, वे सभी गाँव में घूमेंगे-टहलेंगे नहीं, सभी अपने-अपने घर पर ही एक सप्ताह के लिए क्वारंटाइन में रहेंगे। बाहरी किसी भी व्यक्ति को अपने गाँव में प्रवेश न करने देंगे। यह देखना अब आप सबका काम है, अन्यथा पूरे गाँव पर ही मुकदमा कर दूँगा।’

अब भरत आगे-आगे, उससे पर्याप्त दूरी बनाये हुए सब-इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर सहित अन्य सिपाही और कुछ लोग भी उसके पीछे-पीछे गाँव की ओर चल पड़े। भरत का घर गाँव में प्रवेश करते ही था। घर तक पहुँचते ही सब इंस्पेक्टर सुनील राजशेखर ने कहा, – ‘भरत! तुम घर में ही रहोगे, तुम या तुम्हारे घर का कोई भी सदस्य कहीं बाहर नहीं जायेगा। अगर जरुरत हुआ तो अपना मुँह-नाक को मास्क से ढँके और अन्य लोगों से काफी दूरी बना कर घर से निकलोगे। तुम्हारे परिजन के लिए राशन की व्यवस्था मैं कर दे रहा हूँ। अब तुम घर में जाओ।’ – भरत हाथ जोड़े हुए अपने घर में घुस गया।

फिर साथ आया पंचायत सदस्य अनवर हुसैन से कहा, – ‘फिलहाल यह रास्ता बंद रहेगा। दोनों तरफ कुछ दूरी पर बाँस से घेरा लगवा देवें, ताकि कोई भी व्यक्ति इस रास्ते से आवाजाही न करे। और सुनो, क्या इस परिवार के लिए कुछ राशन की व्यवस्था हो सकती है?’
‘जी?……. कोशिश करके देख सकता हूँ।’ – अनवर हुसैन कुछ हिचकिचाते हुए बहुत ही संक्षिप्त उत्तर दिया।

उन्होंने अपने एक सिपाही रामचरण सिंह को पास बुलाया और एक हजार रुपये देते हुए कहा, – ‘रामचरण, तुम अनवर के साथ जाओ और एक महीने के लिए राशन सम्बन्धित जरुरी सामान लेकर भरत के घर पर पहुँचाओ। इसके बाद तुम्हारी ड्यूटी इसी गाँव में होगी, कोई अनावश्यक न घर से निकले। भरत पर विशेष निगरानी रखोगे।’

‘जी सर’ – सिपाही रामचरण सिंह ने कहा और अनवर हुसैन के साथ एक ओर चला गया। तभी गाँव का ही एक युवक आकर सूचना दी, – ‘सरकार! कर्मनाशा नदी के किनारे बालू में दफन कई और लाशें दिखाई दे रही हैं, कुछ को आवारे कुत्ते नोंच रहे है।’

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