श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : ‘दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय’

।।’दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय’।।

सत्ता, सामर्थ्य और शक्ति प्राप्त होते ही लोग गरीबों पर सत्याचार करने लगते हैं, जो नहीं करना चाहिए, क्योंकि कभी कभी गरीब की हाय उसे पूर्णतः नष्ट कर देती है। इसी विषय वस्तु पर आधारित रचित है मेरी कहानी “दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय”।

श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता । ‘बलजोर कामदा’ अपने नाम के अनुरूप ही बल का उपासक और एक तरह से वह बल का पर्याय ही था। पर बुद्धि के अभाव में उसका वह बल अहंकारी और विनाशक मार्ग का अनुगामी बन गया था। उसे किसी की कोई परवाह न थी। अत्याचार के क्षेत्र में वह अपने क्षेत्र का बेताज बादशाह था। शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो उसके बल से प्रताड़ित न हुआ हो। उसके इशारे के बिना उस क्षेत्र के पत्ते तक न हिलते थे। पर एक छोटी-सी घटना ने उसे बिन अस्त्र-शस्त्र के ही पराजित कर दी थी। यही तो समय की रीति है कि एक वनवासी से दिग्विजेयता को भी पराजित होना ही पड़ा था। बलजोर कामदा संभवतः पिछले सात महीने पूर्व अपनी एक अँगुली के एक घाव के इलाज के लिए मुहल्ले के ही एक डॉक्टर के पास पहुँचा था, जो एक छोटी-सी मछली के काट खाने से हो गया था। कुछ लापरवाही के कारण उसकी वह अँगुली सूज कर एक बड़े घाव के रूप में परिणत हो गयी थी। डॉक्टर ने चिकित्सीय जाँच कर बताया कि उस अँगुली में सेप्टिक हो गया है। दवाइयों को बेअसर होते देख जीवन-रक्षा हेतु मजबूरी में उसे अपनी उस अँगुली को ही कटवानी पड़ी। परन्तु उसकी शारीरिक विपदा यही तक सीमित न रही, बल्कि वह सेप्टिक अपनी संक्रमण शक्ति को बढ़ाती हुई अब पूरा दाहिना पंजा को ही ग्रस बैठी।

बलजोर कामदा अपने इसी दाहिने पंजे की कठोर मुष्टिका से अपने कितने विरोधियों, कितने लाचारों को बेवजह मिट्टी चटवाया करता था। कितनों के घर-संसार के तिनका-तिनका विनष्ट कर डाला था। पर अब उसका वही बिन पंजेवाला दाहिना हाथ उसकी दाहिनी जेब से कभी बाहर नहीं निकलता है। लेकिन शायद उसके दुर्भाग्य का प्रतिशोध अभी भी पूरा न हुआ था। वह तो शायद उसे तड़पा-तड़पा कर अपना प्रतिशोध पूरा करना चाहता था। अतः वह भी उसे जीवन के अखाड़े में पटक-पटक कर व पानी पिला-पिला कर ही चोट कर रहा था। लाचारी और शरीर रक्षा के लिए कोई क्या न करता है? कभी का वह निर्दयी बेताज बादशाह अपने जीवन की रक्षा हेतु एक तांत्रिक तक पहुँच गया। सिर से पैर तक काले आवरण को धारण किये महीनों भटकते रहा, फिर भी उस दुर्भाग्य से उसकी मुक्ति संभव न हो पाई। अँगुली और पंजा तो सेप्टिक से ग्रसित होकर दुर्भाग्य पर पहले ही अर्पण हो चुके थे। पर उसे तो और भी रक्त-मांस चाहिए। कुछ ही दिनों के उपरांत दाहिनी केहुनी तक का लगभग पूरा उसका हाथ ही उस दुर्भाग्य की बलिवेदी पर अर्पण हो गया।

इस बार तो लाचारी में डाक्टर उसके दाहिने बाजू को ही उसके कंधे से अलग करने की बात सोच रहे थे। घोर निराशा से उसका चेहरा भी निरंतर मलिन होता जा रहा था। उसकी सारी हेकड़ी कहीं गुम हो गई थी। ऐसे में ही एक दिन बलजोर कामदा की मुलाकात एक पहुँचे हुए गेरुवा वस्त्रधारी योगी से हुई। उसने अश्रुपूर्ण उद्वेगों से उसे अपनी शारीरिक पीड़ा को कह सुनाया और मुक्ति का कोई भी मार्ग सुलझाने की विनती की।
उस योगी महाराज कुछ विशेष मनन करने के उपरांत उसके विगत निर्दयी क्रिया-कलापों का उसे आयना दिखलाया और बताया कि यह सब उसके बुरे कर्मों का ही दण्ड-फल है, जो अभी भी पूर्ण नहीं हुआ है। अभी भी उसके कई बुरे कर्मों का कुफल उसे भुगतना बाकी है। इसके लिए व्यापक प्रायश्चित की आवश्यकता है। पर दुःख की बात है कि उसके अत्याचारों के अधिकांश भुक्तभोगी इस संसार में अब तक जीवित ही नहीं बचे हैं, जिनसे उसे माफ़ी मिल जाय।

अब वह बल का पोषक अहंकारी बलजोर कामदा अपनी विगत क्रिया-कलापों का आत्म-मंथन करने लगा। एक-एक करके उसके ढेरों अपराध उसे स्मरण हुए। पर किसे वह छोटा माने और किसको बड़ा? अंतर कर पाना बड़ा ही दुष्कर था। वे सब एक साथ मिलकर उसे रह-रह कर डराने लगे थे। रात्रि में उसे तरह-तरह के डरावने सपने आने लगी थीं। अक्सर अपने आप को भूखे भेड़ियों या फिर आवारा कुत्तों के बीच पाता, जो उसके अंग-प्रत्यंगों को नोचते और उसे लेकर इधर-उधर भागते नजर आते थे। कई-कई रातें वह सो भी नहीं पाता था। शारीरिक और मानसिक पीड़ाएँ भी दिन-प्रतिदिन उसे ही दुर्बल बनाये जा रही थीं। ऐसी स्थिति में कुछ शुभ-चिंतकों के परामर्श पर ही उसने अपनी क्रूरता से अब तक संचित धन का जन-सेवा में उपयोग करना भी प्रारम्भ कर दिया। उसके द्वार पर गरीबों के लिए नित्य कडाह चढ़ने लगे थे। मंदिरों में दान-अर्चना का भी दौर चल पड़ा था। मुहल्ले के जिन गरीब झोपड़ियों को वह अपने कठोर हाथों से नेस्ताबुद किया था, अब वह उन गरीब झोपड़ियों के सम्मुख खड़ा क्षमा याचना करते दिखने लगा, परन्तु दुर्भाग्य का यह आलम था कि उसके दोनों हाथ परस्पर जुड़ने लायक भी न बचे थे। यही तो समय का बदला है। भला समय को कौन जीत पाया है? राजा-महाराजाओं को भी जंगल की पगडंडियों पर नंगे पाँव देखा गया है। फिर भी भ्रम ऐसा है कि वह ही अमर है! वह ही शास्वत हैं! वह ही आजीवन राज करेगा!

भीड़-भाड़ से दूर गंगा नदी के किनारे से थोड़ी दूरी पर ही एक ऐसे ही दुर्बल झोपड़ी के सम्मुख आज बलजोर कामदा भोजन सामग्री बाँटते आ खड़ा हुआ और कुछ भोजन सामग्री लेने की गुहार लगाई। उस दुर्बल झोपड़ी से एक दुर्बल वृद्ध निकला। बलजोर कामदा को पल भर निहारा, उसे कुछ स्मरण हो आया। फिर उसने वितृष्णा से अपना मुँह फेर कर वापस अपनी झोपड़ी में जाने लगा। बलजोर कामदा को भी कुछ-कुछ स्मरण हो आया। सात-आठ महीने पहले ही तो एक सुबह इसको और इसके छोटे से बच्चे को उसने बुरी तरह से पिट दिया था। – ‘हाँ …. हाँ ….. वही तो है! कम से कम इससे तो अपने अपराध को क्षमा करवा ही लूँ।’ वह उस दुर्बल वृद्ध के मार्ग में निरीहतापूर्वक होकर खड़ा हो गया। अपने बाँये हाथ से वृद्ध के सूखे-मुरझाये हुए एक हाथ को पकड़ लिया। उस दुर्बल वृद्ध को भी उस दिन की सारी घटना किसी चलचित्र की भांति पुनर्स्पष्ट हो चली।

दस-पन्द्रह दिनों से बीमार उसके बिन माँ-बाप के दस वर्षीय अबोध पोते को डॉक्टर ने ताज़ी मछली खिलाने का परामर्श दिया था। सुबह से ही उसकी तवियत कुछ ठीक भी लग रही थी। उसने भी अपने दादा से आज मछली खाने की इच्छा प्रकट की थी। कई जगहों से फटे एक बहुत पुराने जाल अपने हाथ में थामें दादा प्रसन्नता सहित अपनी झोपड़ी से निकला। बीमारी से कुछ मुक्त दुर्बल बालक भी अपने दादा के साथ हो लिया। गंगा नदी के किनारे के कुछ कम गहराई वाले जल में ही वृद्ध ने जाल फैला दिया। कुछ समय के उपरांत धीरे-धीरे उसे बाहर खींचने लगा। बार-बार मना करने पर भी बालक कहाँ मानाने वाला था, वह भी जाल को पकड़ कर खींचने लगा। उसके लिए तो यह कौतुक ही था। पर यह क्या? जाल में फँसी अधिकांश मछलियाँ जाल के फटे भाग से पुनः गंगा के पानी में विलीन होने लगीं। बहुत कोशिश करने पर किलो भर छोटी-छोटी मछलियाँ ही जाल में अटकी रहीं, जिसे दादा और पोते दोनों मिलकर निकाले और पास में रखे अल्मुनियम के बेढंगे वर्तन में रख दिए। इतने से क्या होगा?

सोच कर ही वृद्ध ने अपने जाल को फिर से फैलाया और उसे गंगा के पानी पर फेंका। विचित्र आवाज करके वह जाल गंगा में समा गया। कुछ समय इन्तजार में बिता। फिर बच्चा और बूढ़ा दोनों मिलकर उस जाल को खींचने लगे। इस बार भी वही बात हुई। खैर, कुल मिलाकर उसके छोटे से परिवार के लिए मछलियाँ पर्याप्त थी। जाल को समेटे लौटना ही चाहता था कि बल और क्रूरता के पोषक बलजोर कामदा वहाँ आ पहुँचा। उसकी इच्छाएँ ही उसका अधिकार था। रोकने वाला आखिर था ही कौन? जबरन उन थोड़ी-सी मछलियों को उसने हथियाँ चाहा। वृद्ध अपने बीमार पोते का हवाला देते गिड़गिड़ाते रहा, पर सब बेकार। पत्थर भी क्या कभी पसीजा है? बातें कुछ बढ़ गयीं। बल के अहंकार में चूर बलजोर कामदा ने जाल को फाड़कर एक ओर फेंक दिया। उसे उस वृद्ध की दुर्बलता और बच्चे की मासूमियत पर भी कोई तरस न आया। उसने अपने प्रभुत्व को जताने के लिए उन दोनों पर अपने मजबूत पंजों से प्रहार तक कर दिया।

दोनों सम्भल न पायें और वहीं पर गंगा की कछार की गीली मिट्टी पर गिर गए। फिर उसने अल्म्युनियम के उस बेढंगे वर्तन को भी अपने पैरों से प्रहार किया। उसमें रखी मछलियाँ भी उन दोनों की भांति ही जहाँ-तहाँ फ़ैल कर छटपटाने लगीं। उसने उन तड़पती मछलियों को एक छोटी-सी पन्नी की थैली में रख लिया और वर्तन को पुनः पद-प्रहार से गंगा के हवाले कर आगे बढ़ गया। वृद्ध बेचारा कर ही क्या सकता था? उसने अपने बीमार पीड़ित पोते को उठाया। उसके शरीर पर लगी मिट्टी को झाड़ा-पोंछा। स्वयं अपने शरीर को झाड़ा-पोंछा। वहीं गंगा के सम्मुख ही खड़े होकर कुछ पल के लिए उसने ऊपर आकाश को ओर देखा। शायद अनंत आकाश में विराजमान अदृश्य देवताओं से कुछ कहा। कुछ शिकायत की, पर क्या कहा? किसी ने नहीं सुना। उसका अबोध पोता भी नहीं सुना और फिर उस बच्चे की बाँह को थामें दुखी मन से अपनी झोपड़ी की ओर लौट गया था। आज तक उसे सब कुछ स्मरण है।

इस वक्त बलजोर कामदा को भी वह घटना स्पष्ट हो गयी। एक पैसे का महत्व न रखने वाले दीन-दुर्बल गरीब भी बलजोर कामदा को किसी वस्तु के लिए इंकार कर देवे? यह तो बहुत ही असहनीय बात है। फिर उसके नाम की सार्थकता कहाँ रह जाएगी? ऐसों को तो सबक सिखाना ही चाहिए, अन्यथा देखा-देखी विरोध के कई स्वर गूँजने लगेंगे। इसी अधेड़बून में चला जा रहा था, कि पन्नी-थैली की एक मछली ने उसकी एक अँगुली में अपनी दांत गड़ा दी। उस समय उसे जरा-सी चुभन महसूस तो हुई, पर उसने उस पर कोई विशेष ध्यान न दिया था। आखिर बात भी क्या थी, कि मन उसे जबरन याद ही रखता? कभी-कभी साधारण-सी बात विकराल स्वरूप धारण कर समग्र विनाश के कारण बन जाती है I यही बात तो हुई। अँगुली में सुजन, फिर घाव, फिर सेप्टिक, फिर अँगुली काटना, फिर पंजा काटना और फिर तो हाथ ही काटने की नौबत आ जाना।

‘बाबा! मेरे अपराध को क्षमा कर दो। मैं अपनी करनी का बहुत दण्ड भोग चूका हूँ। अब और दण्ड भोगने का मुझमें सामर्थ्य नहीं है। मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ। कहो तो तुम्हारे पैरों को धोकर मैं उसे पी जाऊँ, पर मुझे माफ़ कर दो।’ – बलजोर कामदा की आँखों में आज सचमुच ही पश्चताप के आँसू झर-झर गिर रहे थे। परन्तु उस वृद्ध की आँखों में अंगारे दाहक रहे थे। कैसे इस निर्दयी ने उसके पोते के अरमान को धूल में मिला दिया था। वह स्वयं भी तो उसके बलिष्ठ हाथों के प्रहार से पीड़ित होकर कई सप्ताह तक शैय्या-सेवी बना रहा था।

‘बाबा! मेरी गलतियों को क्षमा करो। देखो, तुम्हारे सामने अब मैं हाथ जोड़कर माफ़ी माँगने के काबिल भी न रहा। बाबा! अपने श्राप से मुझे मुक्त कर दो, तुम्हारे श्राप के कारण ही मेरा शरीर बर्वाद हो गया। मेरा सारा अहंकार चूर-चूर हो गया है। कहो तो तुम्हे लिए मैं अलग से एक घर बनवा देता हूँ।’ – कभी का निर्दयी साँढ़ बलजोर कामदा आज किसी बच्चे के सरिख उस दुर्बल वृद्ध के सम्मुख घुटना टेके याचना कर रहा था। यही तो समय का बदला होता है। जब समय बदला लेता है, तब कोई भी भौतिक अस्त्र-शस्त्र या सम्पदा काम न आते हैं। देवताओं को भी संरक्षण देने वाले परम वीर अयोध्या नरेश भी तो श्रापग्रस्त होकर पुत्र-वियोग में ही तड़प-तड़प कर अपना प्राण त्यागे थे। समय का प्रतिदान अटल और अमोध भी है। सामर्थ्यवान व्यक्ति के लिए यह बात सर्वदा अनुकरणीय होनी चाहिए।

‘बाबा! आखिर तुमने मुझे ऐसा कौन-सा श्राप दे दिया, जिसे मैं अथाह दण्ड को पाकर भी मुक्त नहीं हो पाया हूँ।’
‘मुझे आज भी सब कुछ स्मरण है। तुम्हारे अहंकार और शक्ति से पीड़ित होकर मैंने इस धरातल और अनंत आकाश के समस्त चराचर के स्वामी ईश्वर से केवल यही शिकायत की थी, -‘हे प्रभु! इस अन्याय को देखा कर भी तुम चुप हो। हे गरीबों के नाथ! एक बार तुम अपनी शक्ति से इसे भी परिचय करवा दो।’ – और आगे उसने कहा, – ‘यह तो उनके शक्ति का रंचमात्र ही प्रदर्शन है। जाओ, अपनी सारी शक्ति लगा कर भी इसे अगर बदल सकते हो तो बदल लो।’ – उस वृद्ध ने बहुत ही सहजता परन्तु वितृष्णा के साथ कहा।

‘बाबा! अब तुम ही मेरा उद्धार कर सकते हो मेरा उद्धार कर दो। मैं हार चूका हूँ। मेरा अहंकार, मेरी शक्ति, मेरी सम्पदा सब कुछ हार चुके हैं। अब मैं तुम्हारे ही शरण में आया हूँ। मुझे निराश न करो, मुझे माफ़ कर दो। बाबा!’ – ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसके मन के अहंकार उन आँसू के जल में घुल कर बह गए। अब उसके पास एक पवित्र हृदय मात्र ही रह गया है।

‘आज तुम मेरे द्वार पर एक याचक बन कर आये हो। पर मैं दीन-हीन तुम्हें दे ही क्या सकता हूँ? पर ईश्वर से तुम्हारे अपराधों को क्षमा करने की प्रार्थना मात्र ही कर सकता हूँ। अब तुम जाओ। सुखी और स्वस्थ रहो।’ – वृद्ध अपनी झोपड़ी में प्रवेश कर गया I अब विनय के पोषक बलजोर कामदा आज उस दुर्बल वृद्ध के द्वार से मनवांछित अमूल्य संजीवनी वस्तु को सिरोधार्य कर चला। सच ही तो, डॉक्टर को भी इस अनहोनी चमत्कार पर आश्चर्य हुआ। सेप्टिक संक्रमण के कारण उसके कंधे से ही उसकी भूजा को काटने जैसे निर्णय को उन्हें बदलना पड़ा। उसके संक्रमित घाव बिन उपचार के ही मात्र कुछ ही दिनों में सूखने लगे थे। लेकिन आज के दयावान, विनम्र और मृदुल भाषी बलजोर कामदा को गंगा किनारे वाला वह दुर्बल वृद्ध बहुत प्रयास करने पर भी फिर से कहीं दिखाई न दिया।

श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail।com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

10 + ten =