श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : बीरबल बा’ का ढोल

विगत संस्मरण पर आधारित और व्यक्ति विशेष को केंद्र कर रचित मेरी नई कहानी “बीरबल बा’ का ढोल” आप सभी विद्वजनों के समक्ष प्रस्तुत है। इस कहनी से सम्बन्धित आपके विचार और टिप्पणियाँ मेरे लिए प्रेरणादायक होंगे। अतः आपकी टिप्पणियों का सादर हार्दिक स्वागत है।

बीरबल बा’ का ढोल

श्रीराम पुकार शर्मा

अभी कुछ दिन पूर्व ही अपने पैतृक गाँव पहुँचा। दुपहरिया के भोजन के उपरांत बिस्तर पर अल्प विश्राम हेतु अभी लेटने का उपक्रम ही कर रहा था कि ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ के नपे-तुले बिना राग-लय व तालयुक्त ढोल की वह पुरानी चिर-परिचित आवाजें अनायास मेरे कानों में अमृत-रस घोल दी और बड़े प्रबल वेग से अपनी मोहिनी शक्ति द्वारा मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित करने लगी। फिर तो ये ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाजें आज कई दशक बाद फिर से मुझे बचपन की ओर खिंच ले चली।

तब इस ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाजें हमारे पैरों में बिजली की गति पैदा करतीं और फिर हमारी स्थिति श्रीकृष्ण की बाँसुरी की धून के सम्मुख गोपियों के सदृश अपने आप को “सम्हारि न जैहैं, न जैहैं, न जैहैं” की हो जाया करती और लाख मना करने पर भी हम घर के बाहर दौड़े चले ही जाते थे।

‘लगता है बीरबल बा’ हैं !’ – प्रफुल्लता वश जिज्ञासा व्यक्त की।
‘वही तो हैं।’ – संक्षिप्त उत्तर पाया।
मेरी स्थिति आज पुनः कोई पचास वर्ष पूर्व की बचपन जैसी ही हो गई।
“कहाँ चले?” की बात पर कोई विशेष ध्यान न देते हुए मेरे नंगे पाँव स्वतः ही उस ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की ताल के मोहिनी-मन्त्र द्वारा नियंत्रित घर के बाहर निकल पड़े।

देखा, तो बीरबल बा’ ही है। उनके कुछ शुष्क श्यामल हाथों के बाँस के पतले सिरकें उनके पुस्तैनी ढोल पर अपने पूर्वत गति से नियमित पड़ रहे हैं और वर्षों से चलते आ रहे वही पुरानी ताल ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाजें गली भर में गूंज रही है। पर आज बीरबल बा’ पहले की भाँति मुहल्ले भर के छोटे-छोटे बच्चों से घीरे हुए न हैं। ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाजें और हम सब के बीरबल बा’ दोनों एक दूसरे के पूरक ही तो हैं। ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाजें यानी बीरबल बा’ और बीरबल बा’ यानी ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाजें, दोनों एक-दूसरे के परिचय का द्योतक ही तो हैं।

बीरबल बा’ के उस पुस्तैनी ढोल की आयु की सही जानकारी गाँव के बहुत कम ही लोगों को है। सुनने में आया कि इस ढोल के ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ के बेसुरे ताल-लय की आवाज पर ही मेरे स्वर्गीय दादाजी का सवा ग्यारह रुपैये का तिलक चढ़ा था और फिर इसकी ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाज की अगुवाई के साथ ही गाँव भर की फेरी लगा कर पालकी में बैठे मेरे दादाजी को लेकर उनकी बारात गाँव से निकली थी।

मेरी स्वर्गीय दादी का स्वागत भी गाँव भर की महिलाएँ इसी ढोल के ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाज के साथ मेरे पुस्तैनी मकान के द्वार पर की थी। यही बात मेरे स्वर्गीय माता-पिताजी के साथ भी साम्य रहा था। फर्क इतना था कि उस समय बीरबल बा’ के स्थान पर उनके पिताजी ‘गुलैची चमरू’ इस ढोल पर ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ के बेसुरे ताल-लय के साथ बजा रहे थे और आज बीरबल बा’। हमारी पीढ़ी तक के लोगों के ब्याह-शादी में भी इसी ऐतिहासिक ढोल की ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाज गाँव भर में गूंजती रही थी।

इस ढोल की आयु पूछने पर एक बार स्वयं बीरबल बा’ ने बताया था, – “बाबु, इ ढोल के हम अपन दादा के बजावत देखले हिव। फिर हमर बाबूजी बजैलन और अब इ ढोल पुस्तैनी रूप में हम बजावित हिव।”
अंदाज लगाया जा सकता है, बीरबल बा’ के इस ढोल की आयु का। स्वयं बीरबल बा’ को नहीं पता है कि यह ढोल कब से उनके घर-गृहस्थी का विशेष अंग बना हुआ है।

बीरबल बा’ के इस पुस्तैनी खानदानी ढोल से ‘ढपर ढप, ढपर ढप, ढपर ढप’ के बेसुर ताल-लय ने ही गाँव भर की कई दादियों, चाचियों और भौजाइयों की पालकियों का गाँव में स्वागत किया और गाँव भर की बुआयों, दीदियों, बहनों को इसी ढोल के ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की ताल ने विदाई दी। गाँव भर के हर पर्व-त्यौहार में देवी पुजाई, ठकुरवारी पुजाई, भैरवदेव पुजाई, यहाँ तक कि बाल-बुतरू के मुंडन आदि तक के सभी सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठानों का प्रचारक-प्रसारक बीरबल बा’ का यही ढोल और उसकी यह ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाजें ही रही है।

बदलते समय और कुछ अर्थ-प्रदर्शन के शौक़ीन गाँव के कुछ तथाकथित अमीर लोगों के कारण आस-पास के छोटे शहरों से सजे-धजे ‘बैंड पार्टियों’ का गाँव में आगमन का प्रचलन अवश्य हुआ है, पर बीरबल बा’ के ढोल के बिना तो गाँव में कोई अनुष्ठान की कल्पना ही नहीं हो सकती है। उस ढोल का भक्तिपूर्वक पूजन हमारे गाँव सम्बन्धित हर किसी सामाजिक व धार्मिक उत्सव के प्रारम्भिक विशेष रीति-रिवाज ही है।

गाँव भर की महिलाएँ बड़ी ही नेम और रीति-रिवाज से पहले उस ढोल को सिंदूर, रंगीन अक्षत, कुछ मिष्टान और द्रव्य (पैसों) से पुजाई करती है, फिर घर-आँगन-द्वार पर उस ढोल की ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाजें गूँजने लगती है। बीरबल बा’ के ढोल के ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाज के बिना गाँव भर की महिलाएँ कोई देवी-देवता या खेत-धरती की पुजाई ही नहीं कर सकती है। बाहरी ‘बैंड पार्टी’ तो घंटों के हिसाब से फ़िल्मी धुन पर ‘बैंड’ बजाया करती है और मोटी रकम वसूल कर चलते बनती है।

पर सम्पूर्ण रीति-रिवाज का पालन तो बीरबल बा’ का ढोल ही किया करता है। इसकी आवाज में गाँव भर के लोगों की आत्मीयता, संतुष्टि और लोक-संस्कृति के मूल्य निहित हैं। स्मरण है, मेरे छुटपन में मेरे अंचल में एक बार भयंकर बाढ़ आई थी। पास के नाले का पानी उफान पर था। नाले का तटबंध पुराना और कमजोर हो चला था। कब टूट जाए, कहा न जा सकता था। अगर टूट गया, तो फिर गाँव भर के लोगों का जीवन सांसत में! लगातार निगरानी की आवश्यकता भी थी।

पर अंधेरिया रात में कौन रात भर जगवारी करके तटबंध की निगरानी करेगा? कहना आसान है, पर करना मुश्किल होता है। तब हरेक के साथ कोई न कोई परेशानियाँ निकल आयी थी। गाँव भर की सुरक्षा की बात थी। ऐसे में बीरबल बा’ स्वतः ही अकेले रात भर जगवारी करके तटबंध की निगरानी का दायित्व अपने माथे पर धारण किये। निश्चय हुआ कि बीरबल बा’ के ढोल की आवाज ही तटबंध के सुरक्षित रहने का संकेत होगा। ढोल की आवाज न आने पर ही गाँव पर आगत भयानक विपत्ति का अंदेशा समझा जाएगा।

और उस रात बीरबल बा’ सुनसान रात्री में अकेले ही उफनती नाले के किनारे के पीपल वृक्ष के नीचे अपने पुस्तैनी ढोल के साथ रात भर जगवारी करते रहे। उनके पुस्तैनी ढोल की चिर-परिचित ताल ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाज आध कोस की दूरी से ही पूरे गाँव भर में रात भर गूंजती रहीं, जो प्रातःकालीन शैशव सूर्य के आगमन पर ही बंद हुआ था। बीरबल बा’ के ढोल की ताल ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाज में लोगों की आस्था और विश्वास निहित थे, जो आज भी बनी हुई है।

इसी तरह माघ-फागुन के महीने में गाँव के सारे लोगों के वर्ष भर की गाढ़ी मेहनत से उत्पन्न कृषि-धन खेत-खलिहानों में ही पड़े रहते हैं। ऐसे समय में भी बीरबल बा’ के ढोल की वही चिर-परिचित ताल ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाजें रह-रह कर नियमित रूप से खेत-खलिहानों में सर्वत्र गूंजती रहतीं और सभी को उनके धन-जन की सुरक्षा का भरोसा देती रहती। इसके एवज में उन्हें किसी से कोई धन या रूपये-पैसों की चाहत न थी। यह तो उनके लिए परोपकार और परमार्थ का कार्य है। इसके बदले कुछ भी ले कर वे अपने परमार्थ को कलंकित न करना चाहते थे। बहुत हुआ, तो गाँव के अनुकूल स्वागत-सेवा स्वरूप एक-आध चुटकी खैनी ही उनके लिए पर्याप्त रहा है।

बीरबल बा’ के पास पहुँचते ही मैंने झुक कर उनके चरणों को स्पर्श किया, बिना चश्में की उनकी बूढी आँखें चमक उठी। उनके श्यामल पर, मेहनतकशता से कुछ कठोर हो गए हाथों को मैंने अपने शीश पर महसूस किया और ‘दूधो नहाओ-पूतो फलो’ का आत्मीय आशीर्वाद को प्राप्त किया। उनके सम्मुख मैं अपने आप को छुटपन का ‘बड़का’ बनते पाया। बाल-प्रवृतियाँ एक बार फिर सजग हो गई। झट से अपना दाहिना हाथ उनके आगे पसार दिया और प्रेम भाव से आग्रह किया, – ‘बाबा! अपन मिठाइया में से कुछ हमरो दअ।’

बचपन में न जाने कितने बार उनके ढोल की पुजाई में उन्हें प्राप्त मिष्टान स्वरूप गुड़, बतासा, ठेकुआ, कसार आदि पर हम बच्चें अपने अधिकार को जमाये रहते और उनके फटे-पुराने, मैले-कुचैले गमछे में लपेट कर रखे गए इन तमाम मिष्टानों में हम स्वर्गीय मिष्टान के स्वाद को अनुभव किया करते। अंततः उनके घर तक उनका खाली गमछा ही पहुँचता। सारे मिष्टान-सामाग्रियाँ तो हम जैसे बाल-बंदर की टोली के ही हवाले हो जाया करती थी।

‘बाबु! अबहियों तू हमर हाथ के मिठाई खैबअ। दिल्लगी करइत हअ।’ – और उनके बूढ़े चहरे पर अजीब मुस्कान की आभा चमक गई, – ‘ल जो तोरा मन करव, ले लअ।’ – और अपने गमछे को हमारे सम्मुख पसार दिए, मानो कि उन्होंने अपने विशाल हृदय को ही हमारे सम्मुख खोल कर पसार दिए हो। अभी भी बीरबल बा’ की वह निर्मल मुस्कान भरी छबि मेरी आँखों के सामने बनी हुई है।

ऐसा लगता है, मानो कि अपने हाथ में गुड़ की ढेली लिए मुझे देने के लिए बीरबल बा’ बड़ी तत्परता से मेरे पीछे-पीछे यहाँ तक आ पहुँचे हैं। कानों में उनके पुस्तैनी ढोल के ‘ढपर-ढप, ढपर-ढप, ढपर-ढप’ की आवाजें अभी भी गूंज रही हैं। भले ही आज के सन्दर्भ में वे आवाजें बेसुरे-बिना ताल-लय के है, पर आत्मीयता से परिपूर्ण और मेरी मन-मयूरी को उद्वेलित करने में पूर्ण सक्षम है।

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