श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : नेकी कर दरिया में डाल

नेकी कर दरिया में डाल

श्रीराम पुकार शर्मा

“क्यों बाबू श्यामलाल जी! इसी को न कहते हैं ‘नेकी कर दरिया में डाल।’ एक दिन आप लोग मुझे ‘देवता’ की संज्ञा दे रहे थे और आज मैं आपलोगों के लिए ‘दानव’ बन गया। मेरी सहृदयता का अच्छा फल प्रदान किया आप लोगों ने, यह मुझे जीवन भर स्मरण रहेगा।” – बेचारे कृष्ण बिहारी जी बिफर पड़े।

अपने मित्र श्यामलाल बाबू को आगे ललकारते हुए कहे, – “श्यामलाल बाबू, मैं आपसे ही पूछता हूँ। आपका क्या विचार है? अगर मेरी बेईज्जती करने में कुछ और कसर बाकी रह गयी हो, तो आप उसे पूरा कर दीजिए।” – कृष्ण बिहारी जी वहीं पास में रखे एक स्टूल पर बैठ गए, पर उनकी निरीह आक्रोशित निगाहें श्यामलाल बाबू के चेहरे पर ही गड़ी हुई थीं।

श्यामलाल बाबू कुछ भी कह पाने में समर्थ न थे। वह मन ही मन कहीं न कहीं अवश्य गड़े जा रहे थे। कृष्ण बिहारी जी को क्या जवाब देवें? पर उनकी पत्नी श्रीमती शर्मीली देवी इस समय अपने नाम की सार्थकता को अपने से दूर रख कर रण-भैरवी का रूप धारण कर अपनी बड़ी-बड़ी आँखें निकाले कृष्ण बिहारी जी को लगातार घूर रही थीं।

उसके पास ही खड़ी उनकी बहू कुछ बोल तो नहीं रही थी, पर उसके चेहरे पर भी अपनी सास की सी खिन्नता दिख रही थी। श्यामलाल बाबू के पास ही उनका पुत्र अभिमन्यु अकड़ा हुआ खड़ा था। ऐसा लगता था मानो कि उसने अपने बाप की निरीहता को भाँप कर ही इस वाक्-युद्ध में उनके स्थान पर स्वयं तैनात कर लिया है, अर्थात घर-परिवार सम्बन्धित बातों में अब उसने अपने पिता श्यामलाल बाबू नहीं, बल्कि अब वह स्वयं निर्णायक है। पिता श्यामलाल बाबू तो बस नाम के पारिवारिक मुखिया बने हुए हैं, जैसा कि अक्सर होते देखा गया है।

(2)
कृष्ण बिहारी जी ने श्यामलाल बाबू की पुत्री की शादी में अपने नाम पर बैंक में ‘फिक्स डिपाजिट’ के रूप में जमा धनराशि को समय से पहले तुडवा कर कोई एक लाख रूपये उधार लेकर उन्हें दिए थे। शर्त यह थी श्यामल बाबू उसे समयानुसार थोड़े-थोड़े परिमाण में चुकता करते जायेंगे। जिस दिन कृष्ण बिहारी रुपया देने श्यामलाल बाबू के द्वार पर पहुँचे थे।

उस दिन उनके स्वागत के लिए श्यामलाल बाबू की पत्नी श्रीमती शर्मीली देवी अपने नाम के पर्याय बनी शर्माती हुई माथे पर आँचल डाले द्वार पर खड़ी मिली थीं। उन्हें द्वार पर पहुँचे देखकर ही वह अपने पति श्यामलाल बाबू को आवाज देकर पुकारी थीं, – “अजी सुनते हैं! देखिए, बड़े भाई साहब कृष्ण बिहारी जी पधारे हैं और आप हैं कि घर में ही बैठे हैं, बाहर आइए। इनका स्वागत कीजिए।”

श्यामलाल बाबू उस समय संध्या पूजा पर बैठे थे, पर संध्या पूजा को छोड़कर वे अपने द्वार पर लक्ष्मी सहित आगत ‘अतिथिदेव’ अपने मित्र कृष्ण बिहारी जी के स्वागत के लिए दौड़े बाहर आये थे। वे उनकी लाडली बेटी अंजलि के ब्याह के लिए उधार स्वरुप रूपये देने आये थे, जबकि उनकी आर्थिक याचना को उनके कई रिश्तदारों ने साफ़ ही ठुकरा दिए थे। सपत्नी दोनों के हाथ कृष्ण बिहारी जी के स्वागत हेतु परस्पर जुड़ गए थे।

“आइये, आइये, पधारिये। मेरा अहोभाग्य है, जो आप मेरी छोटी-सी कुटिया में पधारे हैं। इस गरीब की छोटी-सी कुटिया में आपका स्वागत है।” – श्यामलाल बाबू हाथ जोड़े हुए आगे बढ़कर कृष्ण बिहारी का स्वागत किये थे। यही दशा श्रीमती शर्मीली देवी की भी थी।

श्रीमती शर्मीली देवी आगे-आगे और उनके पीछे-पीछे श्यामलाल बाबू और कृष्ण बिहारी जी। छोटे से बैठक खाने में उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया। श्रीमती शर्मीली देवी चमचमाते लकड़ी की कुर्सी की सीट को फिर से अपने आंचल से पोंछ कर कृष्ण बिहारी जी के सम्मुख की। कृष्ण बिहारी जी ने गृह-स्वामी श्यामलाल बाबू को बैठने का इशारा किया। पर ‘अतिथिदेवो भवः’ के सिद्धांत के अनुकूल ही उन्हें ही पहले आसन ग्रहण करना पड़ा। तब कहीं जाकर श्यामलाल बाबू और फिर श्रीमती शर्मीली देवी पास की अन्य कुर्सियों पर बैठें।

“आप ने नाहक ही कष्ट किया, मुझे ही बुलवा लिए होता।” – श्यामलाल बाबू सकुचाते तथा मन की ख़ुशी को दबाते हुए बोले।
“हाँ जी! आपने बेकार ही कष्ट किया। ये उधर बाजार जाते ही हैं, उधर आपसे मिल भी लेते। – “श्रीमती शर्मीली देवी ने भी भारतीय आदर्श नारी की आदर्शता को प्रदर्शित करते हुए अपने पति का अनुसरण की।
“भाई साहब! इसमें कष्ट कैसा? यह आपने कैसे सोच लिया कि लाडली अंजलि केवल आपकी ही बेटी है।

मेरी भी तो भतीजी हुई न और रही बात बेटी की ब्याह-शादी की, ऐसे में तो पराये लोग भी मदद के लिए आगे बढ़ आते हैं। मैं तो ठहरा आपका सहकर्मी मित्र ही, कन्या की शादी में कुछ सहायक बन पाने के कारण शायद मुझे भी कुछ पुण्य प्राप्त हो जाए।” – कृष्ण बिहारी जी ने अपनी सरलता से अपने मन की बात को व्यक्त की।

“भाई साहब! यही तो आपका बड़प्पन है। हमारे कई अन्य रिश्तेदार भी हैं, सबके सामने हमारे मुख खुले, पर कहीं से कोई भरोसा तक न मिल पाया और आप हैं कि एक बोली में ही अपना ‘फिक्स डिपाजिट’ को तुड़वा कर हमारी मदद के लिए स्वयं हाथ बढ़ाए मेरे दरवाजे पर आ खड़े हुए हैं। आपके इस उपकार के प्रति मेरा पूरा परिवार आजीवन आपका उऋणी रहेगा। आप हमारे लिए कोई ‘देवदूत’ से कम नहीं हैं, जो विपति में मुझे उबारने स्वयं मेरे द्वार पर आ पहुँचे हैं।” – बोलते-बोलते श्रीमती शर्मीली देवी का गला अवरूद्ध होने लगा और उनकी आँखें डबडबा गई।

ऐसी स्थिति में श्यामलाल बाबू ने आगे की डोर सम्भाल ली, “सच में कृष्ण बिहारी बाबू! आपने मुझे उबार लिया नहीं तो, मेरी इज्जत धूल में अवश्य ही मिलने वाली थी। आप हमारे लिए सचमुच देवदूत स्वरूप हैं। चाहे कितना भी कुछ कर लूँ, पर आपके उपकार तले मैं आजीवन दबा ही रहूँगा।” – श्यामलाल बाबू ने भी अपने दोनों हाथों को जोड़े निरीहतापूर्वक बोले। इस समय उनके प्रत्येक रोवें से कृष्ण बिहारी जी के लिए सदिच्छाएँ निकल रही थीं, जो उनकी वाणी की सहायता से अभिव्यक्त हो रही थीं।

“बाबू श्यामलाल जी! आप मुझे कहाँ से कहाँ पहुँचा दे रहे हैं। मैं कोई देव या देवदूत नहीं, बल्कि आपका सहकर्मी मित्र कृष्ण बिहारी ही हूँ और मुझे कृष्ण बिहारी ही बने रहने दीजिये। आदमी, आदमी के काम न आये, तो फिर उसका क्या महत्व रह जाता है।” फिर कृष्ण बिहारी जी ने अपने साथ लाये एक चमड़े के बैग में से किसी बैंक से बंधित पाँच सौ रुपयों की दो गड्डियाँ को निकालें और उन्हें श्यामलाल बाबू को प्रदान करते हुए बड़ी ही सरलता से कहा, – “यह लीजिए कुल एक लाख रूपये हैं। आप इन्हें एक बार अवश्य ही गिन लीजिए, कम न हों।”

“इन्हें गिन कर आप पर अविश्वास करने का पाप करूँ? अपने देव तुल्य मित्र पर शंका? असम्भव!” – श्यामलाल बाबू रुपयों की गड्डी को अपने हाथों में सम्मान पूर्वक ग्रहण करते हुए कृतज्ञतावश अति विनयपूर्वक कहा।
“तुम खड़ी-खड़ी देख क्या रही हो? जाओ कृष्ण बिहारी जी के लिए कुछ नाश्ता-पानी का इंतजाम करो और हाँ, जरा अभिमन्यु को तुरंत भेज दो।”

– श्यामलाल बाबू ने पास खड़ी अपनी पत्नी शर्मीली देवी से आदेशात्मक स्वर में कहा। इस समय प्रसन्नता और कृतज्ञता से उनका मन उनके वश में नहीं रह पा रहा था। कृष्ण बिहारी जी मना करते रहें, पर शर्मीली देवी भी आज कहाँ मानने वाली थी। संध्या देव-पूजन और संध्या आरती में आज भले ही देर हो जाए, पर घर में पधारे साक्षात् ‘देव’ का पूजन तो अनिवार्य ही था। वह अपने पति के आदेश को सिरोधार्य कर तुरंत ही भीतर गईं। कुछ ही समय में श्यामलाल बाबू का युवा पुत्र अभिमन्यु प्रकट हुआ। झुक कर कृष्ण बिहारी के चरणों को सादर स्पर्श कर उनका आशीर्वाद ग्रहण किया।

इतने में ही उसकी बहन अंजलि भी एक ट्रे लेकर बहुत ही सादगी से पहुँची। उस ट्रे में रखे एक प्लेट में कुछ मिठाइयाँ और एक पारदर्शी स्वच्छ शीशे के ग्लास में रंगीन शर्बत था। ट्रे को पास के चाय-टेबल पर रख कर वह भी कृष्ण बिहारी जी के दोनों चरणों को सादर स्पर्श की। कृष्ण बिहारी जी उसके शीश पर अपने दाहिने हाथ को रखते हुए बहुत ही प्रसन्नता से आशीर्वाद दिये, – “हमेशा स्वस्थ, सुखी और सम्पन्न रहो। ईश्वर तुम्हें सभी खुशियाँ प्रदान करें।”

तब तक पास खड़ा अभिमन्यु उस चाय-टेबले को सरका कर कृष्ण बिहारी जी के पास कर दिया। श्यामलाल बाबू ने आग्रह किया, कृष्ण बिहारी जी मिठाई के एक टुकड़े को उठाकर अंजलि को प्रदान किये। वह पहले तो ना नुकुर की, पर पिता के संकेत को समझकर ग्रहण कर ली। दूसरा टुकड़ा अभिमन्यु को दिए। वह भी न लेना चाहा, पर फिर वह उनके विशेष आग्रह पर मिठाई का टुकड़ा ले ही लिया।
“भाई साहब आपने तो सब बाँट ही दिया, बेटी अंजलि! आपके के लिए और मिठाइयाँ ले आओ।”
“नहीं बेटी, नहीं आप तो जानते ही हैं कि मिठाइयों में मेरी रूची कम है फिर मिठाइयों के लिए तो बड़ा अवसर आने वाला ही है। उस समय आपके मना करने पर भी मैं अपने हाथ को न रोकूँगा।” – सुनते ही बेचारी अंजलि शर्माते हुए अन्दर चली गई।

“भाई साहब! मैं इकट्ठा इतने पैसे तो एक साथ न लौटा पाउँगा, पर आपको वचन देता हूँ कि प्रतिमाह एक निश्चित परिमाण के आधार पर बहुत जल्दी ही चुकता कर दूँगा।” – श्यामलाल बाबू ने अपनी विवशता को व्यक्त किया।
“आपको जो सुविधा हो पर अभी लाडली अंजलि की शादी की तैयारी कीजिए, बाद में इस विषय पर सोचियेगा।” – कृष्ण बिहारी जी ने उन्हें दिलासा दिया और लगभग जबरन ही वहाँ से प्रस्थान किया था।

(3)
अंजलि की शादी हुए आज कई वर्ष बीत गए। यहाँ तक कि अभिमन्यु भी विगत कई वर्षों से सुखी दाम्पत्य जीवन का निर्वाहन करने लगा है। उसकी विशेष आमद से घर-संसार की गति में तीव्रता आ गई है। उसके अनुकूल ही उसके कई नये कारबारी मित्र भी बने हैं, फलतः उसके पिता श्यामलाल बाबू के पुराने मित्रों के आवागमन में अवश्य ही कमी आई है। घर में लक्ष्मी जी के आगमन के साथ ही कुछ अनचाही कठोर पौरुषता, कर्कशता, अहंकार जन्य दुर्गुणों का भी घर में अनायास प्रवेश हो गया था, फलतः इसके विपरीत शान्ति, सद्बुद्धि, सद्शिक्षा और सामाजिकता की दायिनी सरस्वती जी ने इस घर-परिवार में अपने उपयुक्त मान-प्रतिष्ठा में निरंतर हो रही कमी को अनुभव कर अब अपना अलग ठिकाना ढूंढने लगी थी।

वैसे भी मध्यमवर्गीय पारिवारिक घर में लक्ष्मी जी और सरस्वती जी के समवास बहुत कम ही नजर आती है। ऐसे घर-परिवारों में भले ही लक्ष्मी जी की गति धीमी हो, पर उनके सहयात्रियों यथा- कठोरता, अंहकार, कर्कशता, पौरुषता आदि की गति अतितीव्र हुआ करती है। श्यामलाल बाबू का घर-परिवार भी तो कोई दूसरे ग्रह का न था, इसी धरती और समाज से सम्बन्धित था, अतः उपरोक्त सभी बातें इनके घर-परिवार पर भी लागू हुई हैं।

कठोरता के समक्ष विनयशीलता बहुत पहले ही परास्त होकर कहीं और गमन कर चुकी थी। द्वार पर पहले जहाँ एक साधारण साइकिल खड़ी रहती थी, अब उसके स्थान को एक बेशकीमती मोटर साइकिल तथा एक चतुश्चक्र वाहन ने जबरन हथिया लिया था।

कृष्ण बिहारी जी कर्ज स्वरूप दिए गए अपने रुपयों की प्राप्ति की इच्छा से अब तक कई बार अपने मित्र श्यामलाल बाबू के दरवाजे का परिदर्शन कर चुके हैं, पर उन्हें अपने मित्र के दर्शन का सौभाग्य अब तक प्राप्त नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति श्यामलाल बाबू के परिजन के लिए कृष्ण बिहारी जी के पूर्ववत ‘देवदूत’ की भी छवि धूमिल होती गई और अब तो उसमें उन्हें भयंकर ‘दानव’ की छवि का ही परिदर्शन होने लगा है। ‘दानव’ का स्वरूप आखिर किसे प्रिय होता है? किसी को भी नहीं, अतः प्रत्येक बार श्यामलाल बाबू का पुत्र वीर अभिमन्यु ही अपनी कठोर वाणी रूपी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित कृष्ण बिहारी जी का स्वागत किया।

पारिवारिक कोशिश भी तो यही रहती कि कृष्ण बिहारी जी के सम्मुख निरीह श्यामलाल बाबू की उपस्थिति ही न होने दिया जाय। अगर विषम परिस्थितिवश उनकी उपस्थिति कभी हो भी जाय, तो तुरंत ही उनके स्थान को कोई अन्य सबल सेनानी अर्थात श्रीमती शर्मीली देवी या फिर वीर अभिमन्यु सम्भाल लेवें, जिनके पास आगन्तुक कृष्ण बिहारी जी के लिए विनयशीलता इतिहास की एक प्राचीन घटना बन चुकी है। यहाँ तक कि वीर अभिमन्यु उन्हें कई बार साफ़ संकेत भी दे दिया कि अभी पैसे नहीं हैं, मिलते ही उन्हें दे दिया जायेगा।

सचमुच कर्ज दे कर कृष्ण बिहारी जी आज स्वयं ही संसार का एक महामूर्ख शुभ चिन्तक व्यक्ति बन गए हैं। अपने मान-सम्मान के पैरों पर उन्होंने स्वयं ही उधार रूपये देने रुपी धारदार कुल्हाड़ी से कठोर वार कर बैठा है। मित्रता की बात ही क्या, रिश्तेदारी की दीवार को भी उधारी रूपये-पैसे रूपी दीमक अति दुर्बल बना देते हैं, फिर वह दीवार बिना आघात के ही भरभरा कर गिर पड़ती है।

आज भी पूर्व की भांति ही कृष्ण बिहारी जी अपनी मान-प्रतिष्ठा को दाव पर लगा कर अपने रुपयों की तगादा करने अपने पूर्व मित्र श्यामलाल बाबू के घर पर पहुँचे हैं। पर जैसे पहले हुआ करता था, आज भी उन्हें देखते ही श्यामलाल बाबू के सुपुत्र वीर अभिमन्यु ने अपना तेवर चढ़ा लिया। उसके पिता श्याम बिहारी कुछ कहते इसके पहले ही उसने चतुर सेनानी की भांति अपने प्रतिपक्ष को सम्भालने न दिया और विष वाण को छोड़ दिया, – “अंकल, बार-बार मेरे घर पर क्यों आ जाते हैं? आपको तो कई बार कह चूका हूँ कि पैसे हाथ में आते ही आपको मिल जायेगा। आप अनावश्यक हमें क्यों परेशान करते रहते हैं?”

“देखो बेटे! इन्तजार करते-करते आज सात वर्ष से भी अधिक हो गए, यदि थोड़े-थोड़े करके भी चुकाए होते तो सारा कर्ज कब का चुक गया होता और रही बात पैसे हाथ में न होने की, तो मैं कोई दूध पीता बच्चा तो नहीं हूँ, कि इतना भी न समझूँ कि पैसे के बिना ऐसे रहन-सहन, द्वार पर गाड़ी, अक्सर सैर-सपाटे कैसे हो जाते हैं। बस मेरे पैसे लौटाने की बात पर ही अभाव अचानक कहीं से आ टपकता है।” – कृष्ण बिहारी जी ने बहुत ही सौम्यता के साथ अपनी कुछ कठोर बात कहने की कोशिश की।

“अंकल जी! मैं आपको अपने पिता तुल्य मान-सम्मान देते आया हूँ, पर इसका यह मतलब नहीं कि आप मेरे घर पर आकर मेरे सिर पर ही ताण्डव करने लगें। आप तो बच्चों के समान लड़ने पर ही उतारू हो रहे हैं।” – अभिमन्यु ने अपना कुछ पैंतरा बदला।

“क्या बात है? किससे उलझ रहे हो?” – भीतर के कमरे से अचानक श्रीमती शर्मीली देवी साक्षात् प्रकट हुई। कृष्ण बिहारी जी को देख कर कुछ सकुचाई, पर समर-भूमि में अपने प्रतिद्वंदी के प्रति प्रेम, सहानुभूति या सम्मान का प्रदर्शन अन्तः दुर्बलता को बढ़ावा देना है और उसके वार का इन्तजार करना अपनी पराजय का कारण बन सकता है, अतः प्रतिघाती वाणी रुपी तलवार लेकर समर भूमि में कूद पड़ी और हुंकार के साथ गंभीर वार की, – “क्यों भाई साहब! आपको तो कई बार कहा गया है कि पैसे होने पर दे दिया जायेगा। अब आप की नजरों में हमारा रहन-सहन, खान-पान सब के सब चुभने लगे है। आप क्या चाहते हैं कि मेरे परिजन न अच्छे खाए, न अच्छे पहने, भिखारी का जीवन जिए?”

“देखिये भाभी जी! पैसों की मुझे सख्त आवश्यकता है। एक समय था, जब मैं आपके परिजन के लिए ‘देवता’ सदृश था, पर आज अपने ही पैसे माँगने पर मैं आप लोग को ‘दानव’ सदृश दिखने लगा हूँ, विचित्र बात है! अच्छी मित्रता निभाई है, आपलोगों ने, श्यामलाल बाबू! आप भी तो कुछ कहिए? कुछ आपका विचार भी सुन लूँ।” – कृष्ण बिहारी जी ने उन दोनों सबल प्रतिद्वंदी से हट कर घर के कमजोर और अपने मूल प्रतिद्वंदी से ही मुकाबला करना उचित समझा।

लेकिन श्रीमती शर्मीली देवी अपने पति की भावुकता जन्य कमजोर पहलू को जानती थी, अतः इस वाकयुद्ध से उन्हें दूर ही रखती हुई स्वयं ही मोर्चे पर डटी रहीं, – “अगर ये विचार करने लायक ही होते, तो क्या आज हमें ये दुर्दिन देखने पड़ते? कोई काबुलीवाले की तरह सबके सामने हमारा पानी क्या उतार देता? आपने हमारा जीना दुर्भर कर दिया है।

कुछ न बोलने का यह अर्थ थोड़े ही होता है कि आप हमारे माथे पर ही चढ़ते जाए। मेरे बेटे को अपने झमेले में न लपेटिये, वरना इसका गरम खून है, कहीं कुछ उल्टा-सीधा कर बैठेगा, तो आपकी जग हँसाई हो जाएगी। अभी आप जाइए, अब आपको हमारे द्वार पर आने को कोई आवश्यकता नहीं है, पैसे होंगे, तो आपके पास पहुँचा दिया जायेगा, नहीं होने की स्थिति में आप चाहे कितना भी चिल्लाते रहिये, हम नहीं दे पायेंगे। ऐसी स्थिति में आप जो करना चाहे, ख़ुशी से कर सकते हैं।”

श्रीमती शर्मीली देवी ने जिस ब्रह्म-वाण से हमला की, उसकी काट हेतु कोई भी वाण कृष्ण बिहारी जी के पास न था। वे तो सत्य, विश्वास और आस्था रूपी शस्त्र से विजय की प्राप्ति की चाहत में इस समर-भूमि में उतरे थे। सतयुग होता तो शायद विजयश्री उनके गले की शोभा बनती, पर यह तो कलयुग है, जहाँ कलुषित भाव-विचार की ही अक्सर जीत होती दिखाई देती है। अब ऐसे कुतर्कों का वे भद्र व्यक्ति क्या उत्तर देते?

समर-भूमि में बेचारे औंधे मुँह गिर पड़े। शायद उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। इससे आगे वे कर ही क्या सकते थे, केवल पछताने के अतिरिक्त? श्रीमती शर्मीली देवी अपने प्रतिद्वंदी को परास्त और निष्प्राण हुआ देख अपने लाचार पति को इस समर-भूमि से सावित्री के समान ही ‘यम के फाँस’ से सुरक्षित बचा कर भीतर के कमरे में प्रवेश कर गई और बहुत ही झटके के साथ दरवाजा बंद कर कृष्ण बिहारी जी के अरमानों की गला सदा के लिए घोंट दी।

यही तो दुनियादारी है। मित्रता के भाव में बह कर सोचा था, कुछ पुण्य कमा लूँ, पर यहाँ तो हवन करते अपने हाथ ही नहीं, वरन् अपने ह्रदय को ही जला बैठे। मित्रता और रिश्तेदारी की मजबूती रूपये-पैसों की पर्याप्त दूरी या फिर दिए गए उधार स्वरूप रूपये-पैसों को सर्वदा के लिए ही भूल जाने जैसी क्रिया-कलापों से ही सुरक्षित रह सकती है। कुछ खोकर कृष्ण बिहारी जी ने आज इस सांसारिक कड़वी सत्यता का शोध किया।

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