अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। जीवन एक पुष्प है और प्रेम उसका सौरभ, तभी तो मैं सोचता हूं की कितना स्वाभाविक है उसके नफ़रत के बाद भी हमेशा उसकी याद आ जाना। एक दिन वह मुझे दिखाई दी मैं उसकी अदा से काफी प्रभावित हुआ। उसकी आंखे मुझसे कुछ कह रही थी और उस भाषा को पढ़ते-पढ़ते मैं शायद उससे प्यार कर बैठा था। साधारण वेश-भूषा में सजी लिपटी वह एक सड़क के बाईं ओर चली जा रही थी और मैं उसे एकटक देखता रह गया था। दूसरे दिन मुझे उसका दीदार हुआ पर अपनी न जान थी न पहचान, लब सिले हुए थे और मैं मूक बनकर उस सांवली सूरत को देख रहा था। मन में एक हलचल सी उठ रही थी, व्याकुल मन सोच रहा था मैं क्या करूं? सहसा मेरे मन में एक बात आई, मैने कागज़ कलम उठाया और एक पत्र लिख डाला जो इस प्रकार है – प्रिये (………..)
क्या पता तुम्हें “प्रिय” लिखनें का भी अधिकार है या नहीं? मेरा प्रिये लिखना यदि तुम्हे बुरा लगे तो सिर्फ (……….) समझना। नाम का जगह भरनें का मेरा कुछ हक नही और ना ही तुम्हारे नाम से परिचित हूं। अगर थोड़ी सी भी जगह तुम्हारे दिल में हो तो खाली जगह में अपना नाम भरना और यदि लगे की यह पत्र मेरे लिये ही है तो कृपया खाली जगह में अपना नाम रखकर उसे फिर पढ़ना। तुम्हे पत्र लिखने का मकसद बस इतना सा है की तुम्हें यह पता चल जाए की तुम्हारे लिये एक हल्की सी सोची हुई बात मेरे जीवन के उतार चढ़ाव को अंजाम दे सकती है। प्यार एक ऐसा तोहफ़ा है जिसे पाकर लोग बेचैन हो उठते है और हमेशा किसी न किसी में डूबे रहते है। यह तोहफ़ा किसी के जिंदगी को हसीन बना देती है तो किसी के जिंदगी में नासूर सा बन जाती है। कुछ दिन पहले मैं भी आम आदमी की तरह जीवन व्यतीत कर रहा था। अचानक तुम्हारे करीब आने और तुम्हारे मुखाकृति को निहारने के कारण मैं बेचैन सा रहने लगा हूं।
मुझे ये पता नही की ऐसा क्यों होता है शायद तुझे भी ये अहसास हो मुझे लगता है। हो सकता है की ये मेरी भूल सोच हो। फिर सोचता हूं कहने वाले तो ये कहते है की दिल से सोची बात कभी गलत नहीं होती। शायद तुम्हारे अंदर भी इस रिश्ते को आगे बढ़ाने की सोच हो या फिर तुम कहना चाहो की कौन सा रिश्ता? मैं तो ये नहीं जानता की कौन सा रिश्ता। किंतु इतना जरूर जनता हूं कि रिश्तों की वो पहचान जो चकोर से चांद का है प्यास का पानी से है। गाड़ी का पहिये से है, चोली का दामन से है, दिल का धड़कन से है। अगर ऐसा है या फिर कहीं भी मेरे लिये तुम्हारे अंदर कोई जगह हो तो तुम एक बार इजहार जरूर करना। अगर ऐसा हुआ तो मैं काफी प्रसन्न होऊंगा। अगर इज़हार हां में हो तो एक पत्र देना और न में उत्तर हो तो खामोश रह जाना, शेष अगले पत्र की प्रतीक्षा में, शेष तुम्हारा पत्र आने के बाद। तुम्हारा और केवल तुम्हारा……….।
पत्र को लिख कर मैं बार-बार पढ़ रहा था। मगर पत्र को देने का साहस मुझ में नही था। अगले सुबह मैं बाजार के चौराहे पर एक तरफ खड़ा था तभी वो झलक पड़ी वो आज लाल साड़ी में लिपटी खुले हुए बालों में गज़ब सी लग रही थी। साथ में उसके एक छोटा सा बच्चा था जो सहारा के रूप में मुझे मिल गया। मैंने तुरंत एक चाकलेट खरीद कर अपनें पॉकेट में रख लिया, सहसा मेरे पैर आगे की तरफ बढ़ गए जहां वो खड़ी होकर दुकान से सामान खरीद रही थी मेरा पैर वहां तक जाकर रुक गया। अचानक मुझे वो अपनें करीब देख कर मुस्कुरा दी, उसकी मुस्कुराहट देख कर मेरे मन को शांति मिली और मैं प्रेम सागर में गोता लगाने लगा। मेरे लब खुल गये और मैंने कहा बहुत प्यारा बच्चा है वो मेरी बातों को सुन कर हल्की मुस्कान बिखेर रही थी।
बच्चे के माध्यम से मेलजोल बढ़ाने के लिये मैने बच्चे से उसका नाम पूछा और उसने अपना नाम राजा बताया। बहुत अच्छा नाम है बिल्कुल जैसा रूप रंग वैसा ही नाम। चाकलेट,चॉकलेट खाओगे? हाथ में चॉकलेट आगे बढ़ाते हुए मैंने पूछा। बच्चे ने संग-संग उत्तर दिया, अंकल हम किसी अंजान का दिया हुआ नही खाते। वो हस पड़ी और मैं निराश हो गया तब तक उसने अपनें बच्चे को दुलारते हुए कहा, बाबू चॉकलेट ले लो ये मेरे पहचान के हो चले है यह शब्द मुझे झेपनें पर मजबूर कर दिया था और पलकें झुकाकर मैंने चॉकलेट बच्चे को थमा दी। अचानक कुछ ऐसा हो जायेगा मुझे विश्वास नहीं हो रहा था उसने मुस्कुराकर मुझसे कहा – मुझे क्या कुछ नही मिलेगा?
अच्छा मौका था बिना समय गवांए तुरंत मैंने पत्र को निकाली और उसके हाथों पर रख दिया। वो भी चौक गई बाज़ार जो था। लोग देख लेते ऐसे में तुरंत उसने पत्र को अपनें पर्स में डाल लिया और मैं कह रहा था ये आपके लिये है बहुत मीठा है जीवन में मिठास घोलने के लिए। वो खामोश और गंभीर हो गई थी, उसने दुकानदार से कहा भैया मेरा सामान निकल गया? तभी दुकानदार ने सामान और पर्ची थमा दी, उसने बिल चुकता किया और अपने घर की तरफ चल दी। आज पूरी रात आंखों से नींद गायब थी,कुछ भय था तो कुछ खुशी, भय इस बात का कि कहीं ये पहल कोई बड़ा समस्या खड़ा न कर दे। ऐसे में मेरा मान-सम्मान सब खत्म हो जाएगा। लोग मेरे बारे में क्या क्या सोचेंगे और खुशी इस बात की, कि अगर वो मेरे प्यार को स्वीकृति दे दी तो मैं धन्य हो जाऊंगा।
रात भर करवटें बदलता रहा और सुबह हो गई मैं अपनें कामों में लग गया किंतु मन बेचैन था एक सप्ताह होने को थे मगर उसकी झलक भी मुझे नही मिली। मुझे लगा वो मुझसे नाराज़ है और इधर मेरी नजरें हमेशा उसे ढूंढती।अचानक उसकी आवाज मुझसे टकराई। संबोधन ऐसा था जिससे मुझे आगे बढ़ने का सहारा दिया और मैंने पलकें झुका कर अपनी स्वीकृति दे दी। उसके मन में भी जो हलचल थी वो शांत हो गयी। फिर क्या था हम दोनों धीरे-धीरे एक हो गये। निरंतर हम दोनों का प्यार बढ़ता गया हम दोनों काफी खुश रहने लगे। वह भी हमेशा खुश रहती, उसका खुश रहना मेरी शांति का केंद्र था और मायूसी दुःख का समुंद्र। मैं उससे काफी हंसी-मजाक किया करता था अगर एक दिन भी उससे मुलाकात न हो पाती तो मैं तड़प जाया करता था।
इसी बीच अचानक वह कुछ दिन के लिए अपनी दीदी की ससुराल चली गयी मैं उसे देखे बगैर परेशान रहने लगा। बहुत दिनों के बाद वह मुझे नजर आयी। उसे देख मैं बहुत खुश था पर लौटने के बाद सब उल्टा हो चुका था। उसके व्यवहार से मैं बहुत दुःखी रहने लगा और यह जानने की कोशिश करने लगा की आखिर मैंने कौन सी गलती कर दी जिससे हमारे बीच इतनी दूरियां आ गयी। मैं दुःखी रहने लगा। एक दिन उसे मैंने एक अजनबी के साथ देखा, मैने सोचा कोई उसके पहचान का होगा जिसके साथ बेफिक्र होकर घूम रही थी। मगर मेरी नजर हमेशा उसे उस आदमी के साथ देखने लगी। मैने पता किया तो वह अब उसे चाहती थी। कारण की वह व्यक्ति नगर के एक रसूखदार परिवार से ताल्लुक रखता था। विलासिता संबंधी तमाम सुख साधन उसके पास थे। यह जानकर मेरा दिल टूट चुका था। मैं सोचता हूं जब वह पहले से किसी और के साथ थी तो मेरे साथ उसने यह खेल क्यों खेला? आज भी जब वह मेरे सामने आती है तो मैं खुद को ठगा सा महसूस करता हूं और वह मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाती है आखिर मैं “इस प्यार को क्या नाम दूं”।