अशोक वर्मा की कहानी : झूठा अहंकार

अशोक वर्मा, कोलकाता। लोग कहते है विवेक कभी भावना विहीन नही होता किंतु अगर मनुष्य का विवेक मर जाता है तो लोगों से भावनात्मक लगाव हीं नही रहता। यह तब होता है जब अहंकार पतन का मार्ग प्रशस्त करता है। बात दो दशक पहले की है उस समय हमारा संयुक्त परिवार हुआ करता था, परिवार के सारे लोग अभाव में भी बहुत प्रसन्न रहा करते थे। सब एक दूसरे के खुशी में खुश और दुःख में दुःखी हो जाते थे, जो आज के परिवार में नही रह गया है। अब तो परिवार की परिभाषा भी बदल गई है।अब के युवा पीढ़ी यहां तक कहने लगे है की मैं मेरी पत्नी और मेरे बच्चे यह छोटा सा परिवार है मेरा, जहां मां, बाप, भाई, बहन, बुआ किसी का कोई स्थान नहीं होता। पहले घर की पहरेदारी बूढ़ी दादी करती थी। अब वो भी लाचार घर के एक कोने में स्थान पा चुकी है। जिससे कोई बात भी करना पसंद नहीं करता। अब तो दरवाजे की पहरेदार का स्थान कुत्तों ने ले रखा है जो गद्दे पर मेम संग सोता है।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

कुछ लोगों को ये व्यंग लगता होगा किंतु आज का ये सत्य है। शाम का समय था मेरा मझला भाई विजय अपनें ऑफिस से लौटा था वह एक मीडिया हाउस में काम करता था। घर पहुंच कर उसने जो बतलाया की सबकी धड़कनें रुक गई। वो पिताजी से कह रहा था की ट्रेन में सफर के दौरान भरत चाचा से हमारी मुलाकात हुई और वो बतला रहे थे की चाची की तबियत बहुत खराब है, वो घर पर यह खबर देने वाले ही थे की हमसे मुलाकात हो गई। चाची बहुत कम दिनों की मेहमान है, हो सके तो आप सपरिवार उनसे देखा कर लें नही तो पछतावे की सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। विजय की बात सुन कर परिवार के लोग काफी चिंतित हो गए, कारण की भरत चाचा कोई और नहीं अपनें ही परिवार के दूसरे दादा के पुत्र थे।

पिताजी ने दूसरे दिन सपरिवार वहां जाने का मन बना लिया। किसी तरह रात कटी सारे लोगों के आखों से नीद जैसे गायब थी। दूसरे दिन पिताजी के साथ परिवार के तमाम सदस्य भरत चाचा के घर की तरफ प्रस्थान कर गये। किंतु मैं उस दिन नहीं जा सका क्योंकि घर पर रहना भी जरूरी था, सो मैंने जैसे तैसे भोजन बनाया और खा पीकर अपने कमरे में लेटनें चला गया। समय निकलता चला गया। विजय आज अपनें ऑफिस नहीं गया, जब मैने उसके ऑफिस नहीं जाने का कारण पूछा तो वो टाल मटोल करता रहा। बात मेरे समझ में नही आ रही थी की अगर ऑफिस नहीं जाना था तो विजय परिवार जन के साथ तो जा सकता था इसी बहाने वो भी चाची से मिल लेता और उनका कुशल क्षेम पूछ लेता और अगर नही जाना था घर पर ही रहना था तो हमसे बोल दिया होता हम चले गए होते।

सोच कर हम परेशान हो गये थे मगर कर ही क्या सकते थे सोच कर नीद नहीं आ रही थी चिंता इस बात की थी की चाची का क्या हुआ होगा। विजय ने तो यहां तक कह दिया था की चाची जब कभी भी इस दुनिया को छोड़ कर जा सकती है।सोचते सोचते अचानक नीद आ गई थी, किंतु नीद में ही मुझे आभास हुआ कि विजय किसी से बात कर रहा हैं। शायद वो व्यक्ति कोई सान्याल था जो मेरे भाई का सीनियर था, उसके बातों के लहज़े से समझ में आ गया था और मैं दुःखी मन चुपचाप आखें बंद कर उन दोनों के बातों को सुन रहा था। तभी अचानक सान्याल ने विजय से पूछा ये कौन सो रहा है इशारा मेरे ही तरफ था। मुझे लगा विजय मेरी तारीफ करेगा और बताएगा की ये मेरे बड़े भैया है किंतु ऐसा नहीं हो सका विजय के बातों को सुन कर मैं सन्न रह गया।

विजय के बातों ने मुझे झंकझोर कर रख दिया वो सान्याल से कह रहा था की ये सोया हुआ आदमी मेरा किरायेदार है मजदूर और मजबूर है, यहां रहता है अपना बनाता खाता है। ऐसे भी हम लोग किराए के रूप में बहुत कम पैसा लेते है जिससे इलेक्ट्रिक बिल दिया जा सके और बाकी लोग सान्याल ने विजय से पूछा तभी विजय ने तपाक से उत्तर दिया बाकी लोग गांव पर रहते है गांव की स्थिति यहां से बेहतर है सो वहां लोगों को रहना पड़ता है। वो तारीफ के कसीदे गढ़े जा रहा था। यहां केवल हम और पिताजी रहते है आज अचानक उन्हें एक खास काम से जाना पड़ा नही तो आपसे मुलाकात हो जाती। अब विजय के बातों से लग रहा था की झूठी कहानी को गढ़ कर वो घर के तमाम सदस्यों को बाहर किया है।

विजय सान्याल की खातिरदारी में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाह रहा था। मिठाई से लेकर फल न जाने क्या क्या खाने का आग्रह कर रहा था। किंतु मेरा मन अपनें भाई के शब्दों से काफी व्यथित था, हम सोच रहे थे की इतनी छोटी उपलब्धि पर यह इतना उछल रहा है जो हमे हमारे परिचय से महरूम कर रहा है। अगर यह और भी ऊंचाई पा लिया होता तो ये परिवार जन से स्पष्ट दूर हो जाता। हे प्रभु इसे सद्बुद्धि दें, आखिर क्या है यह सान्याल जिसका भोग विजय देवता जैसा लगा रहा था जैसे सबरी के कुटिया में राम पधारे हो। आखिर ये ईश्वर तो नही अगर ईश्वर भी है तो क्या वो ईश्वर के दिए इस स्वरूप को क्यों नकार दिया। अगर हम गरीब है तो इसमें मेरा क्या दोष? ये तो कुदरत का तोहफ़ा है, किसी को कम तो किसी को ज्यादा मिलता है। सोच कर मेरे आखों के आसूं मेरे तकिये को भीगों रहे थे जो रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।

कुछ क्षण बाद सान्याल चल पड़ा था। विजय साईकिल की सवारी कर सान्याल के रिक्शे के पीछे-पीछे दूर तक छोड़ने चला गया था। देखते देखते शाम हो गये थे अंधेरा छा गया था तभी पिताजी सबको लेकर घर को आ गए थे। किंतु उनके चेहरे पर गंभीर भाव दिख रहे थे मुझे कुछ-कुछ समझ में आ रहा था वो बार-बार विजय को खोज रहे थे। तभी हमनें अपनें साथ बीते सारे वाकए को बतलाया और ये भी बतलाया की आज झूठे अहंकार की वजह विजय हमारा परिचय एक किरायेदार के रूप में दिया है। सुन कर पिताजी आग बबूला हो रहे थे वो कहने लगे ये तुम्हे ही नहीं ये आज हम लोगों को भी छला है, भरत की पत्नी बीमार है और कुछ दिनों की मेहमान है ये बात सरासर गलत है। यह झूठ और निराधार है ये हम लोगों को भी इसलिए बाहर कर दिया क्योंकि उसका सीनियर आने वाला था और हम लोगों के चेहरे पर गंवई भाव है इसलिए की हमलोग आज भी अपनें गांव और अपनी भूमि से जुड़े हुए है, जो इसे ठीक नही लगता।

इसे तो चकाचौंध भरी झूठी दुनियां पसंद है अगर घर वाले रहते तो इसका सम्मान इसलिए चला जाता की सब गरीब सा दिखते है जो सही है। भरत को भी इस झूठ पर काफी तकलीफ है वो भी न तो ट्रेन में मिला था न हीं उसके पत्नी की तबियत खराब है। वो तो पूरे परिवार को देख कर पहले तो चौक गया किंतु हम लोगों के आने की खुशी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी। अभी पिताजी ये सब बता हीं रहे थे की विजय घर में प्रवेश किया पिताजी गुस्से में अनाप शनाप बोले जा रहे थे और वो सर झुकाकर चुपचाप सुन रहा था। किंतु मुझे नही लगा था की उसे किसी बात की तकलीफ़ हुई होगी कारण की उसकी फितरत ही ऐसी थी। कुछ दिन बाद विजय का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया और वो यहां से परिवारजन को छोड़ कर चला गया।

समय बीतता चला गया वर्षों बाद एक साहित्यिक संस्था की ओर से मुझे सम्मानित किया जा रहा था, जहां राज्य के राज्यपाल सहित महानगर के तमाम बुद्धिजीवी उपस्थित थे। वहां सान्याल भी पहुंचे थे और वो मुझे बार-बार देख रहे थे। समय बदला था और समय के साथ साथ शरीर की बनावट और उसका स्वरूप भी बदला था, अतः वो मुझे पहचान भी न सके किंतु मैं उन्हें भली भांति पहचान रहा था। तभी मंच से उद्योषक ने मेरे नाम की घोषणा की और मुझे मंच पर आने का निवेदन किया। मैं अपनें मित्रों को नमस्कार कर मंच पर उपस्थित हुआ फिर एक बार उद्घोषणा हुई की साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए अजय सर को सूर्यकांत त्रिपाठी निराला स्मृति सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है। इसके पहले भी इन्हें काव्य कुमुद, राष्ट्रभाषा गौरव, काव्य सरोवर सम्मान, हिंदी सेवा सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। इस बार इन्हें यह सम्मान पत्र और अंग वस्त्र हमारे संस्था के अतिथि दीपक सान्याल जी देंगे।

पूरा हॉल तालियों की गूंज से गुंजायमान हो रहा था तभी सान्याल ने मुझे अंगवस्त्र और प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया।लोगों के आग्रह और उनके सम्मान में मुझे भी दो शब्द बोलना था। माइक मेरे हाथ में दे दी गई। मेरे मुंह से संबोधन के अपने पुराने शब्द “परम् पूजनीय भारत माता, उपस्थित भारत माता के गोद में पलने वाले हमारे तमाम भारतवासी सबको सादर वंदे, मैं एक-एक व्यक्ति का नाम लेता तो शायद किसी ना किसी का नाम छूट जाता इसलिए हमनें एक सूत्र में सबको पिरोना सही समझा अगर मुझसे कोई गलती हुई हो तो मुझे क्षमा करेंगे। आज मुझे यह सम्मान हिंदी सेवा के लिए दी गई है। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी की आज भारत में हिंदी भारत माता के शरीर पर एक बिंदु के जैसी दिख रही है जहां लोगों पर अंग्रेजियत की भूत सवार है, कुछ तो अपनें बच्चों को हिंदी में बोलने पर दंडित करते है और हिंदी बोलने वालों से दूरी बनाने का फ़रमान सुनाते है।

मैने भी इस दर्द को झेला है जब हमारे अपनों ने ही हिंदी बोलने पर हमें गवार समझा है और हमें हमारे परिचय से महरूम किया है। अब की आवश्यकता है की भारत माता के शरीर पर हिंदी को बिंदी नही पूरे परिधान के रूप में रखा जाय। हिंदी हमारी जननी है जिसे बोलकर हमने, हम और हमारे पूर्वज भाषा ज्ञान प्राप्त किए है। ये गवारो की भाषा नही यह विश्व को शांति का संदेश देने वाली भाषा है। अगर मुझसे जाने अंजाने में कोई गलती हुई हो तो क्षमा करेंगे। कह कर हम अपने माइक को उद्घोषक की तरफ बढ़ा दिए फिर एक बार तालियों की गूंज से हॉल गुंजायमान हो रहा था और मैं नीचे उतर कर अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे।

किंतु फिर एक बार सान्याल की नजरें मुझे ढूंढ रही थी और वे मेरे पास आकर बैठ गए। सहसा उसने मुझसे पूछ डाला आप बुरा न मानें तो शायद आप विजय…. , तभी हमनें उनके बातों को काटते हुए कहा हां मैं विजय का किरायेदार जहां आप मुझे देखे होंगे, बहुत प्रसन्नता हुई आपको यह सम्मान पत्र देकर, श्रमिकांचल और अभाव में रहते हुए भी आपने साहित्य की जो सेवा की है प्रशंसनीय है। कुछ दिन पहले जब मुझे ये सूचना मिला की आपको ये सम्मान पत्र मिलने वाला है तो मैने आपको गूगल पर सर्च किया जहां आपके कृतित्व को देख कर आपसे मिलने का इच्छा और प्रगाढ़ हो गई सान्याल कह रहे थे। खैर! विजय आजकल कहां रह रहा है?

सर वे बड़े लोग है पैसे वालों को ये ज्यादा तवज्जो देते है फिर भी हम खबर लेते रहते है एक साथ जो रहे है, किसी न किसी के माध्यम से खबरें मिल हीं जाती है बीच में हमसे भी एक दो बार बात हुई थी उसकी बातों से यह लग रहा था की वो कुंठा से ग्रसित है फिर हमसे भी वो दूरी बना लिया। मैं भी अब दूर हो चुका हूं उससे, सान्याल साहब यह कह रहे थे।उनकी बातों को सुन कर मेरा भी मन कह रहा था की जो अपनें झूठे अहंकार और कुंठा के चलते अपने सगे का सम्मान नही करता वो भला आपका क्या करेगा। आज भी विजय को किसी से मतलब नहीं वो अपनी जिंदगी अपनें तरीके से जी रहा है। कभी कभी मैं उसके स्टेट्स को देख लेता हूं वहां भी हमेशा नकारात्मक और दुःखदायी पोस्ट ही मिलते है जो उसके मनोभाव की दर्शाते है।

कुछ दिन पहले उनके एक पोस्ट को देखा जिसमें लिखा था – कर्म का थप्पड़ इतना भारी और भयंकर होता है की हमारा जमा हुआ पुण्य कब खत्म हो जाए पता भी नहीं चलता, पुण्य खत्म होने पर समर्थ राजा को भी भीख मांगनी पड़ती है, इसलिए कभी किसी के साथ छल कपट करके किसी की आत्मा को दुःखी ना करें। मैं सोच रहा था की उस वाकये को क्या कहूं जहां लोग अंध घमंड में अपनों को भी नौकर और किरायेदार बता देते हैं। हो सकता है यह पोस्ट उसका प्रायश्चित हो। किंतु मुझे ऐसा नहीं लगता क्योंकि उसके झूठे अहंकार ने उसे अपने बस में कर रखा है, यह पोस्ट भी उसी कुंठा का नतीज़ा है। लोग कहते है की वो ज्यादा पढ़ा लिखा और प्रबुद्ध है किंतु मैं कहता हूं की –
बुद्धिमान के बिना ज्ञान गधे की पीठ पर लदी पुस्तकों के समान है।

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