विशेष : सनातन हिन्दू नववर्ष विक्रम संवत 2081

‘अपने संग लाई है उषा अतुलित हर्षित-स्वर्ण संपदा, आज प्राची में नव वर्ष का,
शस्य श्यामला क्षितिज से सिंदूरी गगन तक, स्वर्ण किरणों के नव तान का।
नदियाँ, झरनें, विहग-वृंद गाते सब नव गीत, पवन छेड़ते मधुरम् नवल संगीत,
आज नव पल्लव, नवल पुष्पयुक्त प्रकृति, करती सादर अभिनंदन नववर्ष का।’

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। सर्वत्र ही नव पल्लवित पादप-पुंज, सुवासित इंद्रधनुषी पुष्प, भौंरों की मधुर गुँजार, पक्षियों के सामूहिक उल्लसित गान, दूर-दूर तक खेतों में लहराते स्वर्णिम फसलों आदि से सोलहों शृंगार कर हमारी शस्य-श्यामला पावन वसुंधरा अपने संग विविध सुरभित रंगीन सुमनों के हार को लिये अति हर्षित हमारे सनातन हिन्दू नववर्ष का सादर अभिनंदन और स्वागत करती है। प्रकृति के समस्त चराचर अपने शीतजन्य-आलस्य भाव को पूर्णतः त्यागकर, पत्रहीन नग्न गाछ मसृण नवल पल्लवों, पुष्पों और कुछ सुंदर कोमल-मधुर फलों को धारण कर अति उल्लसित नवीन कार्य-ऊर्जा की सचेतनता को प्राप्त कर उनका साथ देते हैं। खेतों में विविध फसलों के पकने के मधुर सौरभ अपने संग लिये प्रभाती शीतल समीर भी नववर्ष के स्वागत में इधर-उधर भागती-दौड़ती बेचैन प्रतीत होती हैं। धरती-पुत्र कृषक-संतति भी अपने लह-लहाते खेत-खलिहानों में एकत्रित स्वर्णिम फसलों को देख-देख कर सपरिवार हर्ष-विभोर होते हैं। अब जल्दी ही उनके घर में अनाज की विविध कोठियाँ अन्न-दानों (लक्ष्मी) से परिपूर्ण हो जाएंगी। श्रीरामचारित मानसकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस अवधि का यथार्थ चित्रण करते हुए लिखा है –
‘चंपक बकुल कदंब तमाला। पाटल पनस परास रसाला॥
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चंचरीक पटली कर गाना॥
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ॥
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं॥’

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के उदित सिंदूरी आभायुक्त स्वर्ण सूर्य और उनकी स्वास्थ्यवर्द्धक मनोहर भगवा स्वर्णिम किरणों से आलोकित प्रभात बेला के साथ ही हम सनातनी हिन्दुओं का नववर्ष (विक्रम संवतसर) प्रारंभ हो जाता है। प्रकृति में व्याप्त अंधकार व शीत स्वतः ही दूर होने लगते हैं, जिस कारण उनके सहयोगी अज्ञानता और अलसता भी क्रमशः दूर भागने लगती हैं। सही भी है, जब हमारे चतुर्दिक वातावरण में अज्ञानता और गहन अंधकार का कलुषित राज व्याप्त रहता हो, जब प्रकृति में सर्वत्र श्वेत हिमकणों से आवृत पत्रहीन नग्न गाछ दिख रहे हो, जब हम सभी हिमशीत से प्रताड़ित गहन निद्रा के आगोस में जकड़े रहे हों, जब हिम बतास के तीक्ष्ण भेदन से सभी चराचर व्यथित हो, तब भला नववर्ष के आगमन की बात क्या झूठी प्रतीत नहीं होती है? ऐसे में नव उल्लास की बात बेईमानी-सी लगती है।

हमारे सनातनी हिन्दू पूर्वज ऋषियों-महर्षियों ने नववर्ष का शुभारंभ ‘ऋतुराज वसंत’ से ही माना है। जब शीत ऋतु का अवसान हो जाता है। देश-प्रांतर में चतुर्दिक ही हरीतिमा और सौन्दर्य युक्त नवीन सुंदरता की आभा दिखाई देने लगती है। ऐसे में समस्त चराचरों में खुशी का अद्भुत उद्वेग बना रहता है। खेत-खलिहान स्वर्णिम खाद्यान फसलों (लक्ष्मी) से परिपूर्ण झूमने लगते हैं। सूर्य की स्वर्णिम मधुर ताप युक्त किरणें प्रकृति में फैले विभिन्न रोग-किटाणुओं को नष्ट करते हुए समस्त चराचर तथा जड़-चेतन को नई स्फूर्ति से उदीप्त करने लगती है। ऐसे में हमारा सनातनी हिन्दू नववर्ष सबको हर्षाते हुए प्रातः भगवा सिंदूरी किरणों के साथ हमारे द्वार पर दस्तक देता है।

चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि मंगलवार से ही हमारा नववर्ष विक्रम संवत २०८१ का शुभारंभ हो रहा है, जो युगाब्द (कलियुग) ५१२५ वाँ वर्ष तथा अंग्रेजी का ९ अप्रेल, २०२४ है। नव वर्ष का यह प्रथम दिन, तन-मन की शुद्धता सहित सर्व हर्ष-उल्लास का दिन है। आज के पावन दिन को भारत में संवत्सरारंभ, गुड़ीपड़वा, युगादि, वसंतारंभ आदि विविध प्रसंगानुकूल नामों से जाना जाता है। आज का दिन बहुत ही पवित्र है। देव योग से सभी अंतरिक्ष नक्षत्र बहुत ही शुभ स्थिति में होते हैं, अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिए आज का दिन सर्वाधिक शुभ माना जाता है। आज के दिन को ही हमारे तत्वज्ञानी ऋषि-महर्षि ने हमारी धरती पर जीवन के मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस प्रदान करने वाले चंद्रमा की विविध कलाओं का प्रथम दिवस माना है।

आज के दिन को वर्ष का आरंभ माना जाना पूर्णतः प्राकृतिक और खगोलीय दृष्टि से सार्थक है। इस समय न ज्यादा गर्मी ही है, न ज्यादा ठंडी ही, अर्थात शरीर के अनुकूल संतुलित समशीतोष्ण तापमान रहता है। शरीर के अनुकूल मौसम। यह समय मूलतः दो ऋतुओं का संधिकाल है, जिसमें रातें क्रमशः छोटी और दिन अपेक्षाकृत बड़े होने लगते हैं। वायु भी पूर्णतः समशीतोष्ण होती हुई समस्त चराचरों के लिए स्वास्थ्यवर्द्धक, उत्साहवर्द्धक तथा आह्लाददायक हो जाती है। विगत शिशिर ऋतु के प्रभाव से पत्रविहीन हुए पादप-पुंज पुनः नव पल्लवित और पुष्पित हो गए हैं। उनमें छिप कर बैठी ‘कुहू’,-‘कुहू’ करती कोयल-कोयली तथा अन्य विहग-वृंद प्रकृति के चारण-गायक बने मधुर स्वर में ‘नववर्ष’ के संदेश को चतुर्दिक सम्प्रेषित करते नहीं अघाते हैं । चतुर्दिक इंद्रधनुषी विविध रंगों की प्राकृतिक छटा! कितना पावन और कितना मनोहर यह दृश्य होता है!
‘बंदी जिमि बोलत बिरद बीर कोकिल हैं,
गुंजत मधुप गान गुन गहियत है।।
आवै आस-पास पुहुपन की सुबास सोई,
सोंधे के सुगंध माँझ सने रहियत है॥’

ऐसे ही हमारे सनातन दिग्दर्शी ऋषि-महर्षियों ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नववर्ष नहीं मान लिया है, बल्कि इसके पीछे आध्यात्मिक, भौगोलिक, खगोलिक और सामाजिक तथ्य शामिल हैं। शास्त्रों में कहा भी गया है कि आज ही के दिन (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) के पावन सूर्योदय बेला से ही सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने स्वयं इस भव्य और विराट सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। फलतः मुख्य रूप से ब्रह्माजी और उनके द्वारा निर्मित समस्त स्वरूपों, यथा; देवी-देवता, यक्ष-राक्षस, ऋषि-मुनि, नर-नारी, पशु-पक्षी, कीट-पतंग जैसे समस्त जलचर-नभचर-उभयचर का ही नहीं, बल्कि इन सभी से संबंधित विभिन्न रोगों और उनके उपचारों आदि की भी आज सप्रेम आराधना की जाती है। कालांतर में आज ही के दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को रघुकुल श्रेष्ठ श्रीराम जी का राज्याभिषेक हुआ था। लोगों का मानना है कि आज ही के दिन भगवान श्रीरामजी ने वानरराज बाली के अत्याचारी शासन से किष्किन्धा प्रदेश की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी। फलतः वहाँ की प्रजा अपने-अपने घरों में हर्ष-उल्लास का उत्सव मनाकर विजय प्रतीक स्वरूप ध्वज ‘गुड़ी’ फहराए थे। आज ही के दिन महर्षि गौतम ऋषि की पावन जयंती है। आज ही के दिन पाँडव श्रेष्ठ युधिष्ठिर का भी राज्याभिषेक हुआ था और ‘युगाब्‍द’ संवत (युधिष्‍ठिर संवत्) का शुभारंभ हुआ था।

हमारा यह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा आधारित सनातन हिन्दू नववर्ष संवत्सर अति प्राचीन है और यह किसी देवी-देवता या किसी विशेष व्यक्तित्व के आविर्भाव या तिरोधान पर आधारित नहीं। किसी अन्य ईस्वी या सन् की तरह यह किसी जाति अथवा संप्रदाय विशेष का द्योतक भी नहीं है। बल्कि हमारा यह सनातन हिन्दू नववर्ष संवत्सर पूर्ण रूपेण विशुद्ध प्राकृतिक व खगोलशास्त्रीय आधार पर आधारित है। इस प्रकार भारतीय काल-गणना का आधार हमारा यह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पर आधारित ‘नववर्ष संवत्सर’ पूर्णतः प्राकृत है, जो हमारी सनातन व भारतीयता के गौरवशाली परंपरा का प्रतीक है। हमारा यह नववर्ष परिवार में, समाज में, जाति में, देश में, प्रकृति में, अर्थात सर्वत्र ही नव उमंग, नव ऊर्जा और हर्षोल्लास का अक्षय मनोवृति का संचार करता है।

आज ही के दिन उज्जैनी विख्यात सम्राट महाधिराज विक्रमादित्य ने अपने विस्तृत साम्राज्य में एक नवीन संवत्सर का प्रचलन किया था, जिसे ‘विक्रमी संवत्’ के नाम से जाना जाता है और इसे ही हम ‘हिन्दू संवत्सर’ के रूप में भी स्वीकार करते आए हैं। आज ही के दिन तत्कालीन भारतवर्ष के सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार भगवान झूलेलाल प्रगट हुए थे। आज ही के दिन राजा विक्रमादित्य की भांति ही दक्षिण में शालिवाहन ने विदेशी आक्रमणकारियों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम साम्राज्य की स्थापना कर ‘शालीवाहन शक संवत’ को प्रारंभ किया था, जिसे स्वतंत्र भारत सरकार ने अपने ‘राष्ट्रीय शाके’ अर्थात ‘राष्ट्रीय कैलेंडर’ के रूप में स्वीकार किया है और अपनी शैक्षणिक तथा वित्तीय संरचना जैसी समस्त राष्ट्रीय क्रिया-कलापों को आयाम प्रदान करती है। आज ही के दिन हूण वंश के सम्राट महाराजा कनिष्क ने अपने राज्यारोहण के दिन को ऐतिहासिकस्वरूप प्रदान करने के लिए ‘शक संवत’ को प्रारंभ किया था।

आज ही के दिन अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को महान भारतीय गणितज्ञ भास्कराचार्य ने सूर्योदय से सूर्यास्त तक को दिन, फिर सप्ताह, फिर महीना और फिर वर्ष की गणना करते हुए विद्वत सठीक ‘पंचांग’ की रचना की थी। आज ही के दिन सिखों के द्वितीय गुरू श्रीअंगद देव जी का भी अवतरण हुआ था। आज ही के दिन मनीषी स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने ‘आर्य समाज’ की स्थापना की एवं ‘कृणवंतो विश्वमआर्यम’ (विश्व को आर्य श्रेष्ठ बनाते चलो) जैसे विश्व मानव की उन्नति के प्रभावमूलक दिव्य संदेश को विश्व भर में प्रसारित किया था । आज ही के दिन ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक’ के संस्थापक क्रांतिवीर महामानव डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्म हुआ था।

आज ही के दिन महाराष्ट्र और उसके निकटवर्ती प्रांतों में अपने-अपने घर के आँगन में ‘ग़ुड़ी’ (विजय ध्वज) को फहराने की प्रथा प्रचलित है। इसीलिए आज के दिन को ‘गुड़ी पड़वा’ नाम भी दिया जाता है। आज घर के द्वारों को आम की पवित्र पत्तियों के बंदनवार से सजाय जाता है, जो सुखद जीवन की अभिलाषा के साथ-साथ कृषि-प्रधान भारत देश में अच्छी फसल और सुख-समृद्धि का भी परिचायक होता है। कविवर केदारनाथ अग्रवाल के शब्दों में ‘सनातन हिन्दू नववर्ष’ को हम इस रूप में कह सकते हैं –
‘देश-काल पर, धूप-चढ़ गई, हवा गरम हो फैली,
पौरुष के पेड़ों के पत्ते, चेतन चमके।
दर्पण-देही दसों दिशाएँ, रंग-रूप की दुनिया बिम्बित करतीं,
मानव-मन में ज्योति-तरंगे उठतीं।’

हम सभी भारतीय अपनी प्राचीन मूल्यवान परंपरा को न भूलें, बल्कि अपने ‘नववर्ष संवत्सर’ की महिमा को अपनी संतति सहित दूसरों को भी बताते हुए इसे बहुत ही हर्ष-उल्लास के साथ मनाएँ। आप सभी विद्व सनातनी बंधुजनों को ‘सनातन हिन्दू नववर्ष विक्रम संवत २०८१’ के शुभ आगमन पर हार्दिक बधाई और आपके जीवन में सुख-संपन्नता तथा आपके सुन्दर स्वस्थ्य हेतु विशेष शुभकामनाएँ।

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

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