दर्द भरे गीतों के शहंशाह गायक मुकेश की जयंती पर विशेष

राजकुमार गुप्त। गायक Mukesh का पूरा नाम मुकेश चंद्र माथुर था। उनका जन्‍म 22 जुलाई 1923 को दिल्ली में हुआ। वह भारतीय फिल्मी गीत-संगीत के इतिहास में सर्वश्रेष्‍ठ गायकों में से एक थे। इनके पिता जोरावर चंद्र माथुर अभियंता थे। दसवीं तक शिक्षा पाने के बाद मुकेश पी.डब्लु.डी. दिल्ली में असिस्टेंट सर्वेयर की नौकरी करने लगे। अपने सहपाठियों और सहयोगियों के बीच के.एल. सहगल साहब के गीत सुना कर उन्हें अपने स्वरों से सराबोर किया करते थे। लेकिन किस्मत में तो उन्हें करोड़ों लोगों के दिलों पर राज करना लिखा था, अतः परिस्थितिवश मुकेश दिल्ली से मुम्बई पहुंच गए।

दरअसल 1946 में मुकेश की मुलाकात एक गुजराती लड़की से हुई। नाम था बची बेन जो कि बाद में सरल मुकेश बनी। सरल से मिलते ही मुकेश उनके प्रेम में गिरफ्त हो गए, हालांकि मुकेश जाति से कायस्थ थे और इसी वजह से उन्हें दोनो परिवारों से कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन मुकेश दोनों परिवारों के तमाम बंधनों की परवाह न करते हुए अपने जन्मदिन 22 जुलाई, 1946 को सरल के साथ शादी के अटूट बंधन में बंध गए। इस शादी में मशहूर अभिनेता मोतीलाल ने उनका साथ देते हुए अपने तीन अन्य साथियों के साथ एक मंदिर में शादी की सारी रस्में पूरी करवाई।

मुकेश का एक बेटा नितिन मुकेश और दो बेटियाँ रीटा और नलिनी है। बेटा नितिन मुकेश भी मशहूर गायक है। मुकेश के पोते ‘नील नितिन मुकेश’ बॉलीवुड के अभिनेता हैं। मुकेश यह कभी नहीं चाहते थे कि नितिन मुकेश एक गायक बने। वे हमेशा कहते थे कि गायन एक सुंदर रुचिकर, मगर बड़ा कष्टदायक काम है। वे प्रत्येक स्टेज शो की समाप्ति पर नितिन की तारीफ उनकी माता सरल मुकेश से किया करते थे और कहते थे, आज तो आपके साहबजादे ने अपने पापा से भी ज्यादा तालियां बटोरी है। मुकेश को अपने दो गीत बेहद पसंद थे- “जाने कहां गए वो दिन…” और “दोस्त-दोस्त ना रहा…

मुकेश की आवाज की खूबी को उनके दूर के रिश्तेदार मोतीलाल ने तब पहचाना, जब उन्होंने उन्हें अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना था। मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये और अपने घर में ही रखा और यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिये रियाज का पूरा इन्तज़ाम करवा दिया। सुरों के बादशाह मुकेश ने अपनी गायकी का सफर 1941 में शुरू किया था।

‘निर्दोष’ फ़िल्म में मुकेश ने अदाकारी करने के साथ-साथ गाने भी खुद गाए थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘माशूका’, ‘आह’, ‘अनुराग’ और ‘दुल्हन’ में भी बतौर अभिनेता काम किया था। उन्होंने पहला गाना “दिल ही बुझा हुआ हो तो” गाया था। बेशक मुकेश एक सुरीली आवाज के मालिक थे और यही वजह है कि उनके चाहने वाले सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी थे और इसी वजह से वो अक्सर विदेशों के दौरा करते रहते थे।मुकेश ने अपने शरूआती दिनों में बिलकुल के.एल. सहगल के अंदाज में गाने गाते थे।

मुकेश के गाने का सफर तो 1941 से ही शुरू हो गया था, परंतु एक गायक के रूप में उन्होंने अपना पहला गाना 1945 में फ़िल्म ‘पहली नजर’ में गाया। जो उस वक्त के सुपर स्टार माने जाने वाले ‘मोतीलाल’ पर फ़िल्माया गया गाना ‘दिल जलता है तो जलने दे, आंसू ना बहा फरियाद ना कर’, सुपर हिट हुआ था। यह गाना भी सहगल साहब के आवाज की हूबहू नकल थी।

मुकेश की गायन शैली के.एल. सहगल से इतनी मिलती-जुलती थी कि कई बार तो संगीत प्रेमियों में वाद-विवाद छिड़ जाता था कि इस गाने का असली गायक कौन है? मुकेश की आवाज में छिपा दर्द, दर्द भरे फिल्मी गीतों के लिए पूर्णत: सटीक होता था। जिससे श्रोता बड़े चाव से सुनते और गुनगुनाते थे।

गायक मुकेश की लोकप्रियता से शायद उस वक्त मोतीलाल को उनकी मेहनत भी सफल होती जरूर नजर आई होगी। क्योंकि वही वह जौहरी थे, जिन्होंने मुकेश के अंदर छुपी प्रतिभा को परखा था और फिर अपने साथ मुम्बई ले आए थे। के.एल. सहगल की आवाज में गाने वाले मुकेश ने पहली बार 1949 में फ़िल्म ‘अंदाज’ से अपनी खुद की आवाज में गाना गाया। उसके बाद तो मुकेश की सुनहरी आवाज देश के हर गली और चौराहे पर गूंजने लगी।

‘प्यार छुपा है इस दिल में इतना, जितने सागर में मोती’ और ‘ड़म-ड़म ड़िगा-ड़िगा, मौसम भीगा-भीगा जैसे गाने संगीत प्रेमियों के जबान पर चढ़ गए। इन्हीं गीतों ने मुकेश को प्रसिद्धि की ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया।

हालांकि मुकेश दिल से गायक नहीं बल्कि अभिनेता बनना चाहते थे और यही वजह थी कि गायकी में कामयाब होने के बावजूद भी वह अभिनय करने के इच्छुक रहते थे। परंतु एक के बाद एक तीन फ़्लॉप फ़िल्मों ने उनके सपने को चकनाचूर कर दिया और मुकेश यहूदी फ़िल्म के गानों से फिर से फ़िल्मी दुनिया पर छा गए। 1948 में प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद मुकेश से मिले और उनसे कई गीत गवाए। इन गीतों में, भूलने वाले याद ना आना…, तू कहे अगर…, झूम-झूम के नाचो आज…, टूटे ना दिल टूटे ना…, हम आज कहीं दिल खो बैठे….आदि उल्लेखनीय है। इन गीतों से मुकेश की आवाज दिलीप कुमार के लिए बहुत चर्चित हो गई।

फिर मुकेश को पहला मौका मिला राजकपूर को अपनी आवाज देने का केदार शर्मा निर्मित, निर्देशित और लिखित फिल्म ‘नीलकमल’ (1947) में। इसी दौरान नौशाद ने मुकेश को अपनी गायन की एक अलग शैली विकसित करने की सलाह दी, जिससे मुकेश की अपनी एक अलग पहचान बनी।

फिल्म आग के बाद से मुकेश राज कपूर की स्थायी रूप से आवाज बन गए। दो जिस्म और एक जान का अनूठा संगम था। मुकेश तो पहले से ही राज के लिए फिल्म नीलकमल में- आंख जो देखे… गा चुके थे। उन्होंने अपनी ज़िंदगी का आखिरी गीत- चंचल, शीतल, निर्मल कोमल… भी राजकपूर की फिल्म सत्यम, शिवम, सुदंरम के लिए रिकॉर्ड करवाया था। यह गीत उन्होंने अमेरिका के लिए रवाना होने से कुछ घंटे पहले ही रिकॉर्ड करवाया था।

राजकपूर-मुकेश की जोड़ी ने फिल्मी दुनिया की इतिहास में मिसाल कायम की। 1949 से इस जोड़ी ने न जाने कितने अनगिनत यादगार गीत दिए जैसे छोड़ गए बालम…., जिंदा हूं इस तरह के…, रात अंधेरी दूर सवेरा…, दोस्त-दोस्त ना रहा…, जीना यहां मरना यहां…, कहता है जोकर…., जाने कहां गए वो दिन… आदि गीत हिंदी सिनेमा के सदाबहार नगमों में शामिल हैं।

इसके अलावा आवारा हूं…, मेरा ना राजू…, मेरा जूता है जापानी…, मेरे मन की गंगा…, ओ मेहबूबा…, सरीखे गीत उनकी एक अलग प्रतिभा का उदाहरण हैं। लेकिन उनको सामान्यत: दर्द भरे गीतों का जादूगर माना जाता रहा। राज कपूर की लगभग सभी फिल्मों की आवाज थे मुकेश। दोनो ही नायक और गायक एक दूसरे के लिए ही बने थे। मुकेश के निधन की खबर सुनकर राज कपूर स्तब्ध रह गए थे और उनके मुंह से निकल पड़ा था- आज मैंने अपनी आवाज खो दी।

मुकेश ने गाने तो हर प्रकार के गाये, मगर दर्द भरे गीतों की चर्चा मुकेश के गीतों के बिना अधूरी है। उनकी आवाज ने दर्द भरे गीतों में जो रंग भरा, उसे दुनिया कभी भुला नहीं सकेगी। “ज़िन्दा हूँ इस तरह से गमे जिंदगी नही’, ‘ये मेरा दीवानापन है’ फ़िल्म यहुदी से, ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना’ फ़िल्म बन्दिनी से, ‘दोस्त दोस्त ना रहा’ फ़िल्म संगम से, जैसे गानों को अपनी आवाज के जरिए दर्द में डुबो दिया तो वहीं ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार’ फ़िल्म अन्दाज से, ‘जाने कहाँ गये वो दिन’ फ़िल्म मेरा नाम जोकर से, ‘मैंने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने’ फ़िल्म आनन्द से, ‘कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है’ फ़िल्म कभी कभी से, ‘चंचल, शीतल, निर्मल, कोमल’ संगीत की देवी सरस्वती फ़िल्म ‘सत्यम शिवम सुन्दरम्’ से, जैसे गाने गाकर प्यार के एहसास को और गहरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

यही नहीं मुकेश ने ‘मेरा जूता है जापानी’ फ़िल्म आवारा जैसा गाना गाकर लोगों को सारा गम भूल कर मस्त हो जाने का भी मौका दिया। मुकेश द्वारा गाई गई भक्ति गीत ‘तुलसी रामायण’ आज भी लोगों को भक्ति भाव से झूमने को मजबूर कर देती है।

करीब 200 से अधिक फ़िल्‍मो में आवाज देने वाले मुकेश ने संगीत की दुनिया में अपने आपको ‘दर्द का शहंशाह’ तो साबित किया ही, इसके साथ साथ वैश्विक गायक के रूप में अपनी पहचान भी बनाई। विदेशों में खासे लोकप्रिय थे, रूस में तो आज भी वे लोकप्रिय हैं। ‘फ़िल्‍म फ़ेयर पुरस्‍कार’ पाने वाले वह पहले पुरुष गायक थे।

वैसे तो उन्होंने काफी पुरस्कार पाए थे, परंतु उल्लेखनीय पुरस्कार इस प्रकार है।
* 1959 – फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- सब कुछ सीखा हमनें (अनाड़ी)
* 1970 – फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- सबसे बड़ा नादान वही है (पहचान)
* 1972 – फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- जय बोलो बेइमान की जय बोलो (बेइमान)
* 1974 – नेशनल पुरस्कार- कई बार यूँ भी देखा है (रजनीगंधा)
* 1976 – फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है (कभी कभी)

मुकेश का निधन 27 अगस्त, 1976 को दिल का दौरा पड़ने के कारण अमरीका में एक स्टेज कार्यक्रम के दौरान हुआ था। उनके गीतों की चाहत उनके चाहने वालों के दिलों में सदा जीवित रहेगी। मुकेश जैसे गायक कभी नहीं मरते अपनी आवाज के द्वारा हमेशा लोगों के दिलों में जिंदा रहते हैं।

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