रविन्द्र नाथ टैगोर की जयंती पर विशेष…

विपदा से मेरी रक्षा करना, मेरी यह प्रार्थना नहीं,
विपदा से मैं डरूँ नहीं, इतना ही करना।
दुख-ताप से व्यथित चित्त को, भले न दे सको सान्त्वना,
मैं दुख पर पा सकूँ जय।

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । माँ भारती वरदपुत्र कवि कुलगुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर) मानवीय संवेदना सहित साहित्य, संगीत, चित्रकला की रचनात्मकता और प्रगतिशीलता के एक प्रबल प्रेरक ‘रवि-किरण-पुंज’ थे। इसके अलावे वे ब्रह्म समाज के प्रमुख दार्शनिक और तत्कालीन सांस्कृतिक समाज सुधारक भी थे। वे दो देशों यथा – भारत के राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक’ और बंगलादेश के राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बांग्लादेश’ के अमर रचनाकार शिल्पी थे। गर्व की बात यह ही कि वे प्रथम गैर-यूरोपीय ‘नोबल पुरस्कार’ विजेता भी रहे हैं। श्रीलंका के राष्ट्रगान पर भी इनका स्पष्ट प्रभाव है।

विश्वकवि व गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर का जन्म बंगला के पोचीसे बोईशाख (पचिसवाँ वैशाख, अंग्रेजी 7 मई 1861) में कोलकाता के जोड़ासाँको की भव्य जमींदारी हवेली में हुआ था। उनके पिता देवेंद्र नाथ टैगोर ब्रह्म समाज के एक वरिष्ठ नेता और सादा जीवन जीने वाले बंगाल के एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व थे। इनकी माता शारदा देवी एक धर्म परायण महिला थी। रविन्द्र नाथ अपने माता-पिता के चौदहवीं संतान थे। बचपन में सभी उन्‍हें प्‍यार से ‘रबी’ कहकर बुलाया करते थे। बचपन में ही माता की मृत्यु हो जाने के कारण उनका पालन-पोषण जमींदारी प्रथा के अनुकूल नौकरों के कठोर अनुशासन में हुआ था।

रवींद्रनाथ की प्रारंभिक शिक्षा वर्तमान कोलकाता के ‘सेंट जेवियर स्कूल’ में हुई। वे बचपन से ही बड़े ही कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। उनके पिता देवेंद्रनाथ टैगोर चाहते थे कि रविन्द्र नाथ बड़ा होकर बैरिस्टर बने। अतः रबीन्द्रनाथ को लंदन यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई के लिए भर्ती किया गया, परंतु रबीन्द्रनाथ 1880 में बिना डिग्री लिए ही वापस बंगाल लौट आए।

बचपन से ही रबीन्द्रनाथ का झुकाव कविता, छन्द और कहानियाँ लिखने की ओर था। उन्होंने अपनी पहली कविता मात्र 8 वर्ष की अवस्था में लिखी थी। 1877 में जब वह 16 साल के हुए, तब उनकी पहली लघुकथा प्रकाशित भी हो गई थी। प्रारंभ में उन्होंने ‘भानु सिन्हा’ के छद्म नाम से अपनी कविताओं का प्रकाशन शुरू किया था। वर्ष 1877 में उनकी लघु कहानी ‘भिखारिणी’ और कविता संग्रह, ‘संध्या संघ’ प्रकाशित ही चुकी थी। इसके बाद तो उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई और वह सभी अपने आप में उत्कृष्ट स्वरूप को प्राप्त कीं।

तत्कालीन बंगला साहित्य को श्रीवृद्धि करने के साथ ही साथ रबीन्द्रनाथ टैगोर ने संगीत और नृत्य साधना तथा चित्रकला को अपनी जादुई स्पर्श से समाज में शीर्ष स्थान पर स्थापित किया। आज बंगाल का हर घर-आँगन ही रवींद्र-संगीत, रवींद्र-नृत्य और चित्र-कला का आखड़ा बना हुआ है। ऐसा शायद ही कोई बंगाली परिवार मिलेगा, जो रवींद्र संगीत-नृत्य-कला से अनभिज्ञ हो। आज रवींद्र-संगीत बंगाल संस्कृति का विशेष अंग बन गया है। रबीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने जीवनकाल में कई उपन्यास, निबंध, लघु कथाएँ, यात्रावृन्त, नाटक और सहस्रो गाने भी लिखे हैं। वे सबसे ज्यादा अपनी कविताओं के लिए जाने जाते हैं। गद्य में लिखी उनकी छोटी कहानियाँ बहुत लोकप्रिय रही हैं। उन्होंने इतिहास, भाषाविज्ञान और आध्यात्मिकता से संबंधित पुस्तकें भी लिखी थीं।

रवींद्रनाथ टैगोर को प्रकृति की सानिध्यता काफी पसंद थी। कभी-कभी अपनी जमींदारी के सियालदह क्षेत्र में नाव लिए बीच नदी में बने टापू पर चल जाया करते और घंटों निर्जन प्रकृति के निहारते रहते और विभिन्न प्रकार के पक्षियों के कलरव के साथ आत्मीय संबंध स्थापित किया करते थे। कालांतर में उनका यही प्रकृति-प्रेम ‘शांति निकेतन’ में भी दिखाई पड़ता है। उनका मानना था कि छात्रों को प्रकृति की सानिध्यता में ही वास्तविक शिक्षा दी जा सकती है। अपने इन्हीं विचारों को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए उन्होंने 1921 में बीरभूम जिला में बोलपुर के निकट ‘शांति निकेतन’ की स्थापना की, जो कालांतर में विश्व शिक्षा का प्रमुख केंद्र बना और वह आज भी प्रमुख ही बना हुआ है।

साहित्य के क्षेत्र में अग्रणीय रहने के साथ ही रबीन्द्रनाथ टैगोर अपने देश की आजादी के लिए संघर्षरत्त सेनानियों के साथ रहे थे। ऐसे ही समय 16 अक्टूबर 1905 को ब्रिटिश सरकार ने बंगाल प्रांत को सांप्रदायिकता के आधार पर दो भागों में बाँट दिया। जिससे पूरे देश में ही भयानक जन आक्रोश और आंदोलन उत्पन्न हुआ। कविगुरु रबीन्द्रनाथ भी ‘बंग-भंग’ के विरूद्ध आंदोलन में उतर पड़े। उनके नेतृत्व में कोलकाता में हजारों लोग सड़कों पर उतर आए और आपसी एकता को प्रदर्शित करते हुए परस्पर ‘रक्षाबंधन उत्सव’ का पालन किया गया। बाद में इस आंदोलन ने भारत में ‘स्वदेशी-आंदोलन’ और वाहिष्कार-आंदोलन’ का सूत्रपात किया। इन दोनों आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार की अर्थ नीति को बहुत प्रभावित किया। अतः 1911 में ब्रिटिश सरकार ने ‘भंग-भंग’ को रद्द कर दिया।

कविगुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर ने मातृभूमि की वंदना करते हुए बंगला भाषा में ‘जन गण मन अधिनायक जय हो’ गीत की रचना की, जिसे 27 दिसंबर 1911 को पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) सभा में गाया गया था। इसे गाने वाली थी, रवींद्रनाथ टैगोर की भांजी सरला, उन्‍होंने स्‍कूली बच्‍चों के साथ यह गाना बंगाली और हिंदी में गया गया था। उस समय बंगाल के बाहर के लोग इसे जानते तक नहीं थे। इसका बाद में हिन्दी में अनुवाद किया गया। स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर ने ही इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘दि मॉर्निंग सांग ऑफ इंडिया’ शीर्षक से 1919 में किया था। कालांतर में जब हमारा देश आजाद हुआ तब संविधान सभा ने कविगुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित ‘जन गण मन अधिनायक जय हो’ को भारत के राष्ट्रगान के रूप में 24 जनवरी 1950 को स्वीकार किया। इसके अलावा उन्होंने ‘आमार सोनार बांग्ला’ नामक गीत की रचना की थी, जिसे 1971 में बांग्लादेश ने अपने राष्ट्रीय गान के रूप में अपनाया लिया। माना जाता है कि श्रीलंका के राष्ट्रीय गान का भी रविन्द्रनाथ टैगोर की कलम से सृजन हुआ है।

सितंबर, 1910 में रबीन्द्रनाथ टैगोरे के 125 अप्रकाशित तथा 32 पूर्व के संकलनों में प्रकाशित गीतों को मिलकर कुल 157 गीतों का संग्रह ‘गीतांजलि’ के नाम से प्रकाशित हुआ। जीवन के लगभग अर्धशतक वर्षों तक रबीन्द्रनाथ टैगोर की सारी उप‍लब्धियाँ कोलकाता व उसके आसपास तथा कुछ स्तर पर पास के राज्यों तक सीमित रहीं। पर 51 वर्ष की उम्र में 1912 में वे अपने पुत्र के साथ समुद्री मार्ग से इंग्‍लैंड जा रहे रहे थे। इसी समुद्री यात्रा के दौरान उन्‍होंने अपने कविता संग्रह ‘गीतांजलि’ का अंग्रेजी में स्वयं अनुवाद करना प्रारंभ किया। इस संग्रह का नाम “गीतांजलि: सॉन्ग ऑफ रिंगस” रखा।

“गीतांजलि’ का अंग्रेजी अनुवाद का “गीतांजलि: सॉन्ग ऑफ रिंगस” संस्करण 1 नवंबर 1912 को ‘इंडियन सोसायटी ऑफ़ लंदन’ द्वारा प्रकाशित हुआ। यह संस्करण कवि रबीन्द्रनाथ के पूर्व परिचित मित्र और सुप्रसिद्ध चित्रकार विलियम रोथेन्स्टाइन के रेखाचित्रों से सुसज्जित हुआ तथा अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि वाई.वी. येट्स ने इसकी भूमिका लिखी। मार्च 1913 में ‘मैकमिलन पब्लिकेशन’ ने इसका नया संस्करण प्रकाशित किया और धूमधाम से यूरोप सहित कई पश्चिमी देशों में इसे प्रचारित किया। फिर यह छोटी-सी पुस्तक ने दुनिया भर के विद्वानों की नजर अपनी ओर आकृष्ट की। तत्पश्चात गीतों की इस छोटी-सी ‘गीतांजलि’ ने साहित्य के क्षेत्र में विश्व स्तरीय ‘नोबल पुरस्कार’ को अपनी ओर आकृष्ट किया और रबीन्द्रनाथ टैगोर को सन् 1913 में विश्व साहित्य का सर्वोच्च ‘नोबल पुरस्कार’ से सम्मानित करते हुए प्रथम बार एक भारतीय भाषा को सम्मानित किया। अब रबीन्द्रनाथ टैगोर ‘विश्वकवि’ के शीर्षासन पर आसीन हो गए।

फलतः 1915 में नोबेल पुरस्कार विजेता विश्वकवि रबीन्द्रनाथ टैगोर को ब्रिटिश राजा जॉर्ज पंचम की ओर से ब्रिटिश सरकार ने ‘नाइटहुड’ यानि ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया। उस समय जिस शख्स के पास ‘नाइट हुड’ की उपाधि होती थी, उसके नाम के साथ ‘सर’ लगाया जाता था। उसे ब्रिटिश सरकार की ओर से बहुत कुछ अतिरिक्त सुख-सुविधा व अधिकार प्रदान किए जाते थे। लेकिन 13 अप्रैल 1919 में हुए पंजाब के अमृतसर के जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा किए गए सबसे बड़े नरसंहार की घोर नींद करते हुए विरोध प्रकट किया और उन्होंने ‘नाइटहुड’ की उपाधि ब्रिटिश सरकार को लौटा दी और स्वयं को पीड़ित भारतीयों के साथ रहने में ही गौरव की अनुभूति प्राप्त की।

रबीन्द्रनाथ टैगोर और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा था। महात्मा गाँधी जी मानवता को राष्ट्रवाद से कम महत्व दिया करते थे, वहीं रवींद्रनाथ टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे । रबीन्द्रनाथ टैगोर ने गाँधी जी को ‘महात्मा’ का विशेषण प्रदान किया, तो गाँधी जी ने रबीन्द्रनाथ टैगोर को ‘गुरुदेव’ विशेषण से संबोधित किया। आज दोनों का परस्पर एक-दूसरे का सम्बोधन विश्व भर में व्यक्तिवाचक बन गया है।
7 अगस्त 1941 को गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का निधन हो गया।

RP Sharma
श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101, (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *