श्रीराम नवमी पर विशेष : ‘बंदउँ बालरूप सोइ रामू’

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। किसी भी प्राणी का बाल स्वरूप अपनी निर्बोधता के कारण मूलतः ईश्वर का ही रूप और ईश्वरीय नाम का ही पर्याय माना जाता है, जिसमें पूर्णतः निश्चिंतता और छल-कपट रहित केवल स्वाभाविक प्रसन्नता का ही अधिष्ठान रहता है। वह मधुर बाल-स्वरूप हर किसी के हृदय में वात्सल्य प्रेमासक्ति को जागृत कर देता है। ऐसे ही प्रभु श्रीरामचंद्र के प्रेमासक्ति के उत्प्रेरक बाल स्वरूप की मैं चीर वंदना करता हूँ, जिनके नाम स्मरण मात्र से ही सर्वसिद्धियों की सहज ही प्राप्ति हो जाती हैं, जिनमें सर्वत्र प्रेम और मर्यादा का ही विशद भंडार निहित हैं, वह अपने आप में अलौकिक मंगल का धाम हैं, समस्त अमंगल को हरने वाले हैं, समस्त प्राणियों के रक्षक स्वरूप हैं, तीनों माताओं को सुख देने वाले हैं और अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के आँगन को अपनी मधुर-क्रीड़ा से सुरलोक का आभास करवाने वाले हैं।

‘अगस्त्य संहिता’ के अनुसार चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में, कर्क लग्न में दिवस का मध्यान्ह काल में जब सूर्य अन्य पाँच ग्रहों के साथ शुभ दृष्टियुक्त मेष राशि पर विराजमान थे, वातावरण में न बहुत सर्दी और न बहुत गर्मी ही रही थी, ठीक ऐसे ही पवित्र अभिजीत मुहूर्त में साक्षात् भगवान श्रीहरि विष्णुजी का माता कौशल्या के गर्भ से अवतरण हुआ। इस धरा पर उनके स्वागत हेतु सम्पूर्ण वातावरण पुलकित हो उठा। प्रकृति में सर्वत्र यथायोग्य परिवर्तन की एक मधुर लहर दौड़ गई। मानों जगत की समस्त क्रिया-कलापों में जो एक ठहराव-सा बना हुआ था, अचानक उन सबमें गतिशीलता आ गई।
‘नौमी तिथि मधू मास पुनीता। सुकाल पच्छ अभिजीत हरिप्रिता।।
मध्य दिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा।।’

दीनों पर दया करने वाले, मुनिजनों के मन को हरने वाले, माता कौसल्याजी के हितकारी प्रभु का अवतरण हुआ। उनके अद्भुत स्वरूप को देखते ही माता कौशल्या हर्षित हो गईं। उनके मन को अविरल आनंद देने वाले प्रभु का मेघ के समान श्यामवर्ण का पुष्ट शरीर था। उनकी चारों भुजाएँ देव प्रदत्त विशेष आयुध धारण किए हुए पूर्ण समर्थ थे। उनके गले में स्वर्गीय दिव्य आभूषण और वनमाला थे। उनके दमकते भव्य मुख-मण्डल पर बड़े-बड़े नेत्र उनके सौन्दर्य को प्रतिपल अभिवृध्दि कर रहे थे। इस प्रकार अद्वितीय शोभा के अथाह सागर तथा खरादि राक्षसों को मार कर उन्हें मुक्ति प्रदान करने वाले भगवान श्रीराम के रूप में प्रभु प्रकट हुए थे l।
‘भए प्रगट कृपाला दीनदयाला, कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी l।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी॥’

पर कोई भी वात्सल्यमयी माता अपने आत्मज को ‘खरारि’ स्वरूप में तो नहीं, बल्कि उसकी गोद में बाल-सुलभ चंचल क्रीड़ाओं को करते हुए उसे प्रतिपल परमानन्द प्रदान करने वाला एक स्वस्थ मधुर शिशु रूप की ही आकांक्षा रखती है, जो उनकी सूनी गोद को अपनी चंचलता से परिपूर्ण कर देवे । अन्य माताओं की भाँति ही माता कौशिल्‍याजी भी अपनी हार्दिक अभिलाषा व्यक्त करती हुई प्रभु से अनुनय-विनय करती हुई बोली कि ‘हे प्रभु! आप यह ईश्वरीय स्वरूप को त्याग कर मेरी अभिलाषा के अनुरूप एक प्रिय शिशु स्वरूप में ही मेरी गोद में पधारें। मेरे आँगन में मेरी आँखों के सम्मुख विविध बाल-सुलभ चेष्टाओं को संपादित करें, जिसे देखने के लिए मेरी आँखें वर्षों से तरस रही हैं और जिसे अनुभव करने के लिए मेरा हृदय सर्वदा व्यग्र रहा है। आप द्वारा प्रदत यही सुख मेरे कई जन्मों का उत्तम फल और अनुपम वरदान होगा। अतः आप एक सुंदर शिशु-रूप में ही मेरे सम्मुख प्रकट हों, जिसे मैं अपनी गोद में सहेज सकूँ, मन भर लाड़-प्यार कर सकूँ, जिसे मैं अपना दुग्ध-पान करा सकूँ । यह विराट ईश्वरीय स्वरूप को भला मैं अपनी गोद में कैसे संयोजित कर सकती हूँ? कैसे वत्स के रूप में दुलार सकती हूँ?’
‘माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।।’

माता कौशल्याजी के वात्सल्य जनित प्रेमपूर्ण वचन को सुनकर प्रभु मधुर मुस्कुराये, क्योंकि माता की पावन अभिलाषा में ही उनके मानवीय अवतार संबंधित विभिन्न उद्देश्यों को साकार करने के आधार निहित थे। तब देवताओं के स्वामी श्रीहरि विष्णु जी ने एक अतिसुन्दर शिशु स्वरूप को धारण कर माता कौसल्या जी की गोद में संकुचित हो गए और आम नवजात शिशुओं की भाँति ही अपने कोमल गुलाबी हाथ-पाँव को मारते हुए, अपने रक्तिम नाजुक होंठों को बिदुकाते हुए मधुर करुंदन कर अपने अवतरण की दिव्य सूचना दिग्मंडल में प्रसारित कर दी। उस मधुर बाल-करुंदन को सुनकर पहले तो माता कौशल्याजी का मन हर्षित और भाव-विभोर हो गया। उनकी अभिलाषित नयनों से प्रसन्नता की अश्रू-धार प्रवाहित हो गई। तत्पश्चात प्रभु की वह मधुर करुंदन ध्वनि अन्य दोनों माताएँ तथा पिता महाराज दशरथजी को, फिर क्रमशः समस्त नागरिक वृंद और समस्त प्राणियों को आत्मीय सुख प्रदान करने लगी थी।
‘सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥’

फिर समयानुसार अन्य तीनों भाइयों का भी शिशु स्वरूप में ही महाराज दशरथ के आँगन में अवतरण हुआ। इस पावन अलौकिक क्षण के साक्षी बनने के लिए सुरलोक के देवी-देवता भी भला कहाँ चुकने वाले थे? वे भी विविध मानवीय और गैर-मानवीय स्वरूपों को धारण कर अयोध्या में पधारने लगे और देव स्वरूप शिशुओं की पावन छवियों को अपने अन्तः में सहेजने लगे। अब अयोध्या के सिर्फ भव्य दशरथ-भवन ही नहीं, वरन सम्पूर्ण अयोध्या में ही ढोल-नगाड़े बजने लगे। सभी अयोध्यावासी उन्मुक्त भाव से नाचने-गाने और एक-दूसरे को बधाइयाँ देने लगे। हर कोई ही उन चारों दिव्य शिशु स्वरूपों को अपने हृदय में सर्वदा के लिए बसा लेना चाहता था। पता नहीं, उस भीड़ में न जाने कितने देवी-देवता भी विविध मानवीय स्वरूपों को धारण कर ढोल-नगाड़ा बजा रहे थे, उन्मुक्त भाव से नाच-गान कर अपनी प्रसन्नता को अभिव्यक्त रहे थे।
‘गृह गृह बाज बढ़ाव सुबह, प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बरिंद।।’

मन को हरने वाले शिशु स्वरूप में श्रीरामजी के शरीर में अरबों कामदेवों की शोभा परिलक्षित हो रही थी। प्रभु की लाल-लाल गुलाबी हथेलियाँ, नख-अँगुलियाँ और विशाल भुजाएँ, बाल-सिंह के समान उन्नत कंधे तथा शंख के सदृश रेखाओं से युक्त उनका सुघड़ ग्रीवा था। उस पर सुंदर ठुड्डी और मुख-मण्डल की अद्भुत छवि तो अपने आप में सौन्दर्य की पारलौकिक परकाष्ठा ही थी।
‘नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना।।
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा॥’

समय के अंतराल में अब प्रभु के शिशु स्वरूप में यथोचित सामान्य परिवर्तन परिलक्षित होने लगा। फिर तो उनके डगमगाते पैरों पर अरबराते शारीरिक गतिविधियाँ, कलबल अर्थात तोतली वाणी, उनके रक्ताम्बर कमल की पंखुड़ियों के सदृश होठ, उसके भीतर ऊपर-नीचे दमकते उज्ज्वल दो-दो दंतुलियाँ हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। प्रस्फुटित नीले कमल के समान उज्ज्वल नेत्र, टेढ़ी भौंहें, सम और सुंदर कान, काले और घुँघराले केश-राशि, सुंदर ग्रीवा, मनोहर नासिका, भव्य ललाट पर गोरोचन का तिलक और उनके चेहरे पर सर्वदा सब सुखों को देने वाले चंद्रमा की समस्त कलाओं से पूर्ण मधुर किरणों के समान मधुर मुस्कान विराजमान रहता था। ये सभी अद्वितीय शारीरिक अंग-उपांग प्रभु के बालक स्वरूप को अपने आप में अलौकिक और अद्वितीय बना रहे थे। हर कोई प्रभु के उस नयनाभिराम छवि को अपने हृदय में अधिक से अधिक परिमाण में सहेज कर आश्वस्त होना चाहता था, पर किसी का मन ही संतुष्ट नहीं हो पाता था।
‘नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन॥
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए॥’

राजा दशरथजी के अलंकृत आँगन में क्रीड़ा-विहार करते हुए सौन्दर्य की अनुपम राशि श्रीरामजी अपनी परछाहीं को देखकर नाचते और उसे पकड़ने का विविध उपक्रम करने लगे। ऐसे में कागभुशुंडी जी भी उस आँगन में पहुँचकर प्रभु के साथ कुछ बाल-कौतुक क्रीड़ा का आनंद लेना चाहते हैं। आँगन में पधारे कागभुशुंडी जी को देखते ही प्रभु उन्हें पकड़ने के लिए दौड़ पड़ते, पर कागभुशुंडी जी को फिर ऐसा अवसर कब प्राप्त हो? कोई ठीक निश्चित न था। अतः आनंद की इस पावन घड़ी के रंचमात्र क्षण को भी न चूकने देना चाहते थे। कभी प्रभु के करीब, तो कभी से दूर चले जाते थे। प्रभु उनके पीछे डगमगाते भागने लगते। क्या विचित्र दृश्य रहा था! सृष्टि आगे-आगे और स्रष्टा उसके पीछे-पीछे ! साधारण बच्चों जैसी लीला देखकर संदेह होता है कि सच्चिदानंदघन प्रभु यह कौन-सी लीला कर रहे हैं? पर प्रभु की लीला तो अत्यंत ही रहस्यमयी और सर्व कल्याणकारी ही होती है। फिर ‘रावणारि’ तो मर्यादा पुरुषोत्तम ही रहे हैं।
‘प्राकृत सिसु इव लीला देखि, भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु, चिदानंद संदोह॥’

जैसा कि विदित है, ‘रम’ धातु से ही ‘राम’ शब्द बना हुआ है। ‘रम’ का अर्थ होता है ‘प्रसन्न होना या क्रीड़ा करना’। इसी तरह से ‘राम’ शब्द का अर्थ हुआ ‘रमण करने वाला, सबको प्रसन्नता प्रदान करने वाला’। परंतु यह तभी संभव हो सकता है, जब उस पात्र विशेष में एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श प्रजा-वत्सल्य राजा आदि संबंधित तमाम आदर्शों का अधिष्ठान हो। मातृ-पितृ भक्ति और उनकी इच्छा के सम्मुख अपने स्वार्थ की तनिक भी परवाह न करना ही तो ‘रामत्व’ है। फलतः आज भी माता-पिता ‘राम’ जैसे ही पुत्र की कामना करते हैं।

यही कारण है कि आज किसी भी सनातन के घर शिशु के जन्म लेते ही सोने या फिर चाँदी की ‘राम’ या ‘ॐ’ अंकित शालाका को मधु में डुबोकर उस शिशु के जीभ पर अंकित कर दिया जाता है। ताकि उसमें ‘रामत्व’ के भाव का आविर्भाव हो। माता कौशल्या की भाँति ही तमाम प्रसूति माताओं के साथ ही उनके तमाम परिजनों के जिह्वा पर ‘भए प्रगट कृपाला दीनदयाला’ के गीतिय शब्द प्रकंपित होने लगते हैं। हर कोई चाहता है, उनका राम-सा आदर्श पुत्र हो, जिसमें पुत्रवत समस्त मर्यादा का वास हो। जय जय श्रीराम।

(‘श्रीरामनवमी’ चैत्र शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि, विक्रम संवत २०८१ तदनुसार १७ अप्रेल, २०२४)

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व लेखक
हावड़ा – ७१११०१
(पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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