सिय राम मय सब जग जानी,
करहुं प्रणाम जोरी जुग पानी॥
श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । ‘पूरे संसार में ही प्रभु श्रीराम का निवास है। समस्त चराचर ही प्रभु श्रीराम का ही स्वरूप हैं। मैं हाथ जोड़कर उन सभी स्वरूपों में विराजमान प्रभु श्रीराम को प्रणाम करता हूँ।’ ‘तुलसी जयंती’ के 525 वाँ पावन गौरवमय अवसर श्रीराम भक्त प्रवर और आज घर-घर में विराजमान भक्ति प्रतीक “श्रीरामचरितमानस” के अमर कृतिकार गोस्वामी तुलसीदास को सादर हार्दिक नमन करते हुए उनकी ही सर्व विदित कथा को आप सभी तुलसीभक्तों के सम्मुख रखने की धृष्टता कर रहा हूँ। गोस्वामी तुलसीदास जी का नाम स्मरण करते ही साथ ही साथ प्रभु श्रीराम का स्वरुप भी मानस पटल पर उभर कर आ जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामभक्ति के द्वारा न केवल अपना ही जीवन कृतार्थ किया, वरन सभी को श्रीराम के आदर्शों से बांधने का एक वृहत प्रयास भी किया है।
तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर नामक गाँव में धर्मपरायण आत्माराम दुबे तथा हुलसी के आँगन में श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि, संवत 1554 को अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था। कहा जाता है कि बारह महिना तक माता के गर्भ में विकसित होकर बतीसों दांतों के साथ एक असाधारण बालक के रूप में इनका जन्म हुआ था। जन्म के तुरंत ही बालक ने ‘रामनाम’ का उच्चारण भी किया था। अतः यह विचित्र बालक ग्राम भर में ‘रामबोला’ नाम से प्रसिद्ध हो गया। परंतु इस विचित्र बालक को जन्म से ही दुख सहन करना विदित था। जन्म के अगले दिन ही माता हुलसी की मृत्यु हो गई। जिस कारण पिता ने मुनिया नामक दासी को इनका लालन-पालन के लिए सौंप दिया। पर वह मुनिया भी इनके बाल्यकाल में ही चल बसी।
अब तो अनाथ बालक रामबोला दर-दर भटकने लगा। जिसने जो कुछ दिया, वही उसका आहार बना। ऐसे में ‘रामबोला’ बालक को भगवान् शंकर की प्रेरणा से रामशैल के रहनेवाले बाबा श्री नरहर्यानन्द जी ने खोज निकला। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। वह एक ही बार में गुरु-मुख से जो सुन लेता, उसे वह कंठस्थ हो जाता। बालक रामबोला ने बिना कोई पूर्व अभ्यास के ही ‘गायत्री मंत्र’ का बहुत ही सुंदर लयात्मक उच्चारण से वहाँ उपस्थित सभी को चकित कर दिया था। फलतः बाबा नरहर्यानंद जी ने रामबोला बालक का नाम बदल कर विधिवत रूप से ‘तुलसीदास’ रख दिया और उसे अपने साथ प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या ले गए। अयोध्या में बाबा नरहर्यानन्द जी ने तुलसीदास का माघ शुक्ल पंचमी, शुक्रवार, संवत 1561 को ‘यज्ञोपवीत-संस्कार’ किया और वैष्णवों के पाँच संस्कारों को करवाकर उसे ‘रामनाम’ का गुरु मंत्र प्रदान किया।
तत्पश्चात तुलसीदास अपने पैतृक गांव राजापुर लौट आए। ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् 1583 को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोडी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव के दीनबंधु पाठक की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। वह अपनी पत्नी रत्नावली से अत्याधिक प्यार करते थे। पत्नी से पल भर का भी बिछोह उनके लिए असहनीय था। अत: तुलसीराम ने भयंकर अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में जा पहुँचे। रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उनकी इस अप्रत्याशित आगमन से खीझकर रत्नावली उन्हें धिक्कार सुनाई।
“लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ।
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।।”
पत्नी के दुत्कार ने तुलसीदास के जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी। अब उनके हृदय में लौकिक प्रेम के स्थान पर अलौकिक प्रेम ने स्थान ग्रहण कर लिया। फिर तुलसी जी राम जी की भक्ति में ऎसे डूबे कि उनके अनन्य भक्त ही बन गए।
फिर एक दिन एक प्रेत के मार्गदर्शन पर उन्होंने श्रीहनुमान जी का दर्शन प्राप्त किया और उनके ही आशीर्वाद तथा परामर्श पर चित्रकूट में एक दिन प्रातः काल उन्होंने अपने आराध्य प्रभु श्रीराम जी का अनुज श्रीलक्ष्मण सहित दर्शन प्राप्त किए। प्रभु के आदेश पर वह अयोध्या चले गए। संवत् 1631 में रामनवमी (मंगलवार) के दिन दैवयोग से वैसा ही योग बना था, जैसा कि त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने ‘श्रीरामचरितमानस’ की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये। यह विश्व की श्रेष्ठता स्वयं काशी के बाबा विश्वनाथ जी ने सिद्ध की।
काशी के तत्कालीन परम विद्वान मधुसूदन सरस्वती जी ने तुलसीकृत “रामचरितमानस” को देखकर बड़ी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी –
“आनन्दकानने ह्यास्मिंजंगमस्तुलसीतरुः।
कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता।।”
अर्थात – ‘काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भँवरा सदा मँडराता रहता है।’
तुलसीदास जी का अधिकाँश जीवन काल चित्रकूट, काशी और अयोध्या में व्यतीत हुआ है। तुलसीदास को राम प्यारे थे, राम की कथा प्यारी थी, राम का रूप प्यारा था और राम का स्वरूप प्यारा था। उनकी बुद्धि, राग, कल्पना और भावुकता पर राम की मर्यादा और लीला का आधिपत्य था। उनक आँखों में राम की छवि बसती थी। सब कुछ राम की पावन लीला में व्यक्त हुआ है जो रामकाव्य की परम्परा की उच्चतम उपलब्धि है। उन्होंने अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में अपने प्रभु श्रीराम से संबंधित कोई 39 भक्तिपूरक कालजयी कृतियों की रचना की है। यथा – गीतावली, कृष्ण-गीतावली, रामचरितमानस, पार्वती-मंगल, विनय-पत्रिका, जानकी-मंगल, रामललानहछू, दोहावली, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, सतसई, बरवै रामायण, कवितावली, हनुमान बाहुक आदि विशेष प्रमुख हैं।
तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया।
तुलसीदास जी ने अपना अंतिम समय काशी में व्यतित किया और वहीं विख्यात घाट असीघाट पर संवत 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया के दिन अपने प्रभु श्री राम जी के नाम का स्मरण करते हुए अपने नश्वर शरीर को त्याग कर सदिव के लिए श्रीराममय हो गए।
गोस्वामी तुलसीदास जी संस्कृत भाषा के विद्वान थे, परंतु प्रभु की कृपा से उन्होंने देशी भाषा अवधी और ब्रज भाषा में अपनी रचनाओं को लिखा है। इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में पूर्णतः सटीक प्रतीत होती है –
‘पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्यति।’
अर्थात ‘देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है।’
तुलसीदास जी के समय में समाज में अनेक कुरीतियाँ फैली हुई थीं। भक्त कविवर तुलसीदास ने अपनी लेखनी के माध्यम से उन्हें दूर करने का प्रयास किया। अपनी रचनाओं द्वारा उन्होंने विधर्मी बातों, पंथवाद और सामाज में उत्पन्न बुराईयों की आलोचना की। उन्होंने साकार उपासना, गो-ब्राह्मण रक्षा, सगुणवाद एवं प्राचीन संस्कृति के सम्मान को उपर उठाने का प्रयास किया। उन्होंने रामराज्य की विशद परिकल्पना की थी, जिसमें राजा सदा प्रजा का सेवक बना रहे। समाज का हर वर्ग ही अपनी मर्यादा में रहकर कार्य करे।
गोस्वामी तुलसीदास की प्रासंगिकता को आज भारत ही नहीं, बल्कि विश्व भर में ही असंख्य लोगों द्वारा उनके “रामचरितमानस” सहित अन्य ग्रंथों का नियमित पाठ के माध्यम से ही बताया जा सकता है।
(तुलसी जयंती, श्रावण शुक्ल सप्तमी, वृहस्पतिवार, 4 अगस्त, 2022)
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101,
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com