भाग-दौड़ जीवन के
*भागते* तब भी थे
भागते अब भी है
कितना बदल गया है
सब कुछ
तब के भागने
और अब के भागने में
सुकून था भागने में तब
अल्हडलपन था, नादानी थी
न थी कुछ पाने की लालसा
न किसी को पछाड़ने की हसरत
न जीतने की कोई आरजू
न हारने में कोई परेशानी
हर सुबह नई सूरज की
किरणों के साथ
जिंदगी खिल खिल जाती थी
अब भागते हैं
कहीं कुछ खो न जाए
मिल जाए इतना कि
फिर कल भागने की
तड़प और बढ़ जाए
बेतहाशा
बेजरूरत
कुछ और मिल जाए
और कुछ हासिल कर लूं
जीने की वजह
क्या है समझे बिना
शामिल हो गए बनकर
भीड़ का एक हिस्सा
एक धावक
उस दौड़ का
जिसकी समाप्ति बिंदू
दूर दूर तक नहीं है …
मालूम नहीं जीवन को
कब मौत अपनी
आगोश में ले ले
भागदौड़ की रस्साकसी में
वजूद एक राख के ढेर में
तब्दील हो जाए ..!