गरीब भगवान भरोसे, रईस सरकार भरोसे (तरकश)

डॉ. लोक सेतिया, विचारक

डॉ. लोक सेतिया : ये राजनीति का मंच है दर्शक अंधेरे में रहते हैं सच कभी नहीं दिखाई देता झूठ का खूबसूरत दिलफ़रेब नज़ारा सामने रहता है। नाटक एक साथ कितनी जगह खेला जाता है। दिल्ली से पंजाब, उत्तर प्रदेश ही नहीं जाने कहां कहां पटकथा लिखी जाती है। राजनैतिक दलों में हंसी ठिठोली होती रहती है। बंदरबांट का झगड़ा बढ़ते बढ़ते पता ही नहीं चलता कब घर की दीवारों में दरार से बाहरी लोग तांक झांक कर चटखारे लेने लगते हैं। जो खुद अपने दल में सामान्य कहलाता है, विरोधी दल में उसी बात को अफ़सोसनाक और देश राज्य समाज के हित को ठेस पहुंचाने वाली गंभीर बात कहा जाता है।

इस सिरे से उस दूसरे छोर तक सभी राजनीतिक दल और नेता इक थाली के चट्टे बट्टे हैं। सरकार किसी भी दल की हो जानती मानती और आचरण करती है कि गरीब के लिए भगवान है। तकदीर संवारने को सरकार को अपनी गरीबी और रईसों की भूख मिटानी होती है। शासक वर्ग नेता अधिकारी कर्मचारी सभी अपने लिए सब पाने क्या छीन लेने की सोच रखते हैं, देने को उनके पास कुछ नहीं होता है। झूठे वादे छल फरेब खुदगर्ज़ी इनके झोले में यही सब रहता है, जनता समाज देश को देने को।

उनकी कही हर बात जो खबर समझी जाती है। खुद इनके मन में उन बातों का कोई महत्व नहीं होता है। आपने अक्सर सुना होगा राजनीति में कोई हमेशा का न दोस्त होता है न कोई दुश्मन। वास्तव में राजनीति और सरकार में दोस्ती दुश्मनी साथ साथ चलती रहती हैं। वास्तव में कोई किसी का नहीं सभी सत्ता धन दौलत ऐशो-आराम की खातिर कुछ भी करते रहते हैं।

चलो आधुनिक युग की इक कथा लिखते हैं, अपने क़ातिल को खुदा समझते हैं। दर्द और ज़ख़्म मिला जिनसे उन्हीं से मरहम और दवा मांगते हैं। नासमझ लोग किस से क्या मांगते हैं। मौत के सौदागर से ज़िंदगी का फ़लसफ़ा मांगते हैं। सच्ची घटना है बेगुनाह को बेरहम पुलिस ने खुले आम क़त्ल किया, मरने वाले के करीबी को शिकायत दर्ज नहीं करवाने का मशवरा दिया। पहले समझाया अदालत में इंसाफ मिलता नहीं तारीख़ मिलती है।

यकीन करना गरीब लोग समझाने से समझ जाते हैं, कारोबारी अपना गणित लगाते हैं। सरकार की चौखट पे सर झुकाते हैं जांच का भरोसा और मनचाही मुराद पाते हैं। शोकसभा में सभी खेदजनक घटना क़त्ल होने को बतलाते हैं। अफ़सोस सच्ची बात भूल जाते हैं अपने परिजन की मौत के बदले जो पाकर संतुष्ट होते हैं, उसकी आत्मा को कितना तड़पाते हैं। जाने इंसाफ किसको कहते हैं। समझौता सौदेबाज़ी और ज़िंदगी की कीमत हर किसी के पास तराज़ू है, न्याय की बात कौन करते हैं।

सरकार जांच करवाएगी बात आपको समझ नहीं आएगी। पुलिस खुद दिमाग़ लड़ाएगी भविष्य में क़त्ल कैसे करना है, जुर्म किस किस पर धरना है। ख़ुदकुशी साबित करना है या हादिसा बताना है, सवालों के हल खोज लाएगी। क़त्ल की खबर चार दिन बाद वारदात टीवी सीरियल में मनोरंजन करवाएगी। सरकार दाग़ी पुलिस वालों की सूची बनाएगी, ज़रूरत पड़ने पर उन्हीं से अपराध करवाएगी।

पुलिस न्यायपालिका सरकारी अधिकारी सबका इस्तेमाल सत्ताधारी करते हैं। जो आदेश जनाब, शासक से नौकरशाह कहते हैं। राजनेता निष्पक्ष जांच सरकारी विभाग को ईमानदारी से फ़र्ज़ निभाने नागरिक को निडर होकर आज़ादी से जीने जैसी बुनियादी बातों को कहां मानते हैं। अपने शासक होने के अहंकार में करते जाते हैं जो भी ठानते हैं। शपथ संविधान की उठाई थी नहीं इक पल भी निभाई थी। अपराधियों से नज़दीकी बढ़ाई थी, उलझन खुद और उलझाई थी।

राजनीति में रहा बाक़ी ईमान नहीं है, सरकार सब कुछ है भगवान नहीं है। सोचते हैं गरीब बेबस लोग उनका भी किया जाए क़त्ल, परिवार को मिले पैसा रोज़गार, मरना काम आएगा आजकल जीना है बेकार। कितना अच्छा होता है पुलिस, अदालत, सरकार का बढ़ता अत्याचार मौत का व्यापार बन गया कारोबार विपक्ष को चाहिए सिर्फ इक हथियार वर्ना उनका कोई नहीं यार, बस वोटों से है प्यार।

आत्मा नहीं पूछती कभी सवाल, क्या ज़िंदगी छीनने वाले को पकड़ेगा कोई कानून का जाल। आदमी को सामान बना दिया है, जिनको उस से नहीं मिलेगा क़त्ल होने से जो मिलता रहता। जीते हुए उनको मुआवज़ा दिया है जो मर गया उसने जीकर हंसना मुस्कुराना था उसकी आत्मा को भटकना है। देखना सबको क्या मिला किसको गिला है। बड़ा अजीब दोस्तो ये सिलसिला है बाहर से सख़्त अंदर से पिलपिला है।

इक खबर खिलाड़ी की खेल की है खुद हिटविकेट होने का तमाशा है राजनीति मंदिर का बताशा है। लंगड़ी लगाई, सीढ़ी हटाई, लिफ्ट लगाई बाप को बात समझ नहीं आई, भाई को मिली जब सत्ता की लुगाई भाई ने ठोकर लगाई ठिकाने अक़्ल आई। कुनबा सारा बंटने लगा है ऊंठ पहाड़ से डरने लगा है। हर कोई बना तमाशबीन है संपेरा बजा रहा बीन है।

ईट से ईट बजानी है, विकेट खोकर अभी सेंचुरी लगानी है। कॉमेडी वाला दरवाज़ा भी खटखटाया है, शायरी से चाटुकारिता कर सकते हैं। हर हसीना पर मर सकते हैं। किया था क़त्ल तीस साल पहले किसको इंसाफ मिला, नहले पर पड़े दहले। बात कातिल सच इंसाफ की करता है, लगता है जुर्म अपने पर हंसता है। ठोकने की बात दोनों करते हैं राम से कौन डरे, वाहेगुरु से कौन डरते हैं। अब यहां शरीक ए जुर्म सभी हैं।

टीवी, अखबार, सोशल मीडिया वाले असलियत नहीं दिखाते हैं जो भी सरकार सत्ता में होती है, उसकी डफली बजाते हैं। करोड़ों का विज्ञापन कारोबार पाते हैं। सच के झंडाबरदार बने फिरते हैं, अर्थी सच की खुद उठाते हैं। ये सभी मिट्टी के खिलौने हैं, भगवान हैं जतलाते हैं। देश की बदहाली के गुनहगार ये भी हैं, विशेषाधिकार पाकर इठलाते हैं। पुलिस अधिकारी नेता सभी से दोस्ती रखते हैं, खूब मलाई खाते हैं। कहने को बाकी बहुत फ़साने हैं पर विराम अभी लगाते हैं।

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