सपने लिए आँखों मे आ गया इक शहर में
ढूंढता रहा जिंदगी जी रहा हूँ इक कहर में।।
चकाचौध मे गुजरता गया भूलता रहा गाँव
कठिन धूप मे चलता रहा मिलता नही छाँव।।
महक मेरे मिट्टी की खो रहा था इस शहर में
जात धर्म मे बँट रहा सपने अधूरे इस शहर में।।
इंसानों की शहर हैं पर इंसानियत कहाँ हैं यहाँ
कपड़े छोटे हो रहे बिक गया अब संस्कार यहाँ।।
भागदौड़ में भाग रहे लोग मंजिल तलाश में
ख्वाब पड़े सड़कों पे हर कोई यहाँ हताश में।।
मेरा गाँव मेरा ही हैं सभी हैं मेरे अपने यहाँ
शहर सिर्फ शहर हैं बिकता रोज सपने यहाँ।।
लहू रंग लाल नही काला मिलता अब शहर में
लोग डरते आईने से टूटता आईना इस शहर में।।
गाँव टूट रहा था बदल रहा था इक शहर में
अपने सब सपने हो गए बिछड़े बीच सफर में।।
कहाँ गए वो सब लोग जिसने शहर बसाया था
झुंड में वो सब खो गये जिसने गाँव चुराया था।।
सुधीर सिंह
आसनसोल