संजय जायसवाल की कविता- ख्वाहिशों की पोटली

‘ख्वाहिशों की पोटली’
संजय जायसवाल

वक्त की दीवार पर
आहिस्ते से रख दी है मैंने
ख्वाहिशों की पोटली

जब कभी लगे
उचककर
या
गथियाए ईंटों पर चढ़ कर उतार लेना

और देख लेना
सबकुछ बचा है तो साबुत

दरअसल जल्दी में था मैं
दरवाजा खटखटा नहीं पाया
सांकल तक बढ़ा था हाथ
फिर लगा
दिन को ढले
काफी समय बीत गया
अंधेरे में यूं
रोशनी का सामना
मुझसे ना होता

देख लेना
उस पोटली में सैकड़ों
सुबहें हैं
हजारों मुस्कान हैं

सुनो
मैंने उदासी को कोने में गठिया दिया है
मत खोलना गांठ

मैंने बीच में रख दी है
अपनी मुलाकातों को

सुनो
सबसे नीचे मत देखना

मोर के पंख
किताब
अचार
और रोटी को उठाने के बाद
सबसे नीचे वाले हिस्से को
यूं ही फेंक देना

असल में गलती से दर्द
वहीं रह गया
सबसे नीचे
पोटली में

भला ख्वाहिशों की फेहरिस्त में
उसका क्या काम

संजय जायसवाल

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

4 × four =