मनोरमा पंत की कविता : नव नवल नूतन

।।नव नवल नूतन।।
मनोरमा पंत भोपाल

कल रात से ही, ज़मी से लेकर,
आसमाँ तक था, ठंड का पहरा,
दसों दिशाओं तक उसने
फैला रखा था कोहरा ही कोहरा,
जम चुकी थी नवजात ओस,
कहीं नहीं था कोई भी शोर,
सनसनाती तीर सी हवा चल रही
ठंड के पँखों से दिखला रही जोश,
सूरज खो चुका गर्म एहसास,
नहीं मानता धरा का एहसान,
पर जरा ठहरो! गौर से देखो
नर्म गर्म हथेलियाँ फैलाकर,
भविष्य के गर्भ से पैदा हो रहे
नव वर्ष शिशु को थाम रहा सूरज

मनोरमा पंत, कवित्री

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