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।।दामिनी।।
कोमल शुक्ला
वो 16 दिसम्बर की रात,
जब कुछ न था उसके हाथ,
खुशी के कुछ पल लेने निकली थी वो,
अपने आंचल को समेटे थी वो,
कौन जानता था कब वक्त,
अपना नज़रिया बदल देगा,
उसके जीने का मतलब बदल देगा,
उसे इतना बड़ा दगा देगा,
उस पल सहम गई होगी वो,
उस पल पुकार रही होगी अपनी को,
उस पल जिंदगी की भीख मांग रही होगी वो,
वो कोस रही होगी खुदा को,
कि क्यों उसे ये दिन दिखाया,
क्या इसलिए उसे स्त्री बनाया,
फिर भी अपनी देह से लड़ती रही वो,
कुछ भी न बचा था पूरी टूट गई थी वो,
उन लोगो को ये हैवानियत महज लगी एक खेल,
पर कही उस खेल में वो हो गई थी फेल,
गुहार मांग रही थी वो मदद की,
तड़प रही थी वो बेटी किसी मां की,
सफदरजंग में पड़ी थी वो,
बस यही कह रही थी वो,
ए खुद!
अब न स्त्री बनाना,
क्या गलती थी उसकी,
जो जानवरों का भोजन बनी देह उसकी,
हिल उठा था दिल्ली उसकी एक पुकार में,
लेकिन वो उठ न पाई अपनी ही गुहार में,
हमारी दुवाएं थी उसके साथ,
उसके हाथों में था हमारा हाथ,
पर रोक न पाई वो खुद को,
वो चाहती थी पाना अपनी देह को,
पर उठ न पाई वो फिर दोबारा जीने को,
और चली गई वो छोड़ कर हम सबको,
कि क्यों अब मानवता नहीं?
क्यों अब स्त्री को जीवन नही?
क्यों अब सरस्वती को सम्मान नहीं?
क्यों अब गुनहगार को सजा नहीं?
और क्यों मेरे लिए अब
इस दुनिया में जगह नहीं।
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