दुर्गेश वाजपेई की कविता : प्रभा

प्रभा

वो दिख रहा है सूर्य कहीं प्रतिपल मेरी दृष्टि से
वो डूब रहा है सूर्य कहीं प्रतिपल मेरी दृष्टि में
मैं घुल रहा हूं उस उजाले में जो फैली है सम्पूर्ण नभतल में
जो मचा रही है शोर चतुर्दिक अंबर और धरातल में।

इन किरणों में क्या नया आक्रोश भरा है?
या फिर दूर कहीं लिए कोई मादक प्रेम खड़ा है?
उस सूखे से वन की डाली पर लाली जो कुसुमों की फूट पड़ी
जो दीख रही है अतिशय कोमल मुग्ध किरण से खड़ी परी।

यह किरण तो ढलते–ढलते ढल जायेगी
सहसा जाकर किसी और देश पर मंडराएगी
ये वहां तो बेशक दमक उठेगी अंतरमन देके
मगर मुझे छोड़ यूं जायेगी चंद रौशनी देके।

मैं उसके सहारे भी जी जाऊंगा
मां का आंचल ओढ़े!
मैं बिना नींद के सो जाऊंगा
अंक में उसके खुद को सिकोड़े।

दुर्गेश बाजपेयी

दुर्गेश वाजपेई

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