शाम
अरी सयानी! शाम की वेला,
आकाश सिंदूरी, आज आकाश का।
हर कोना हर्षित होकर,
उसी नदी के पावन तट पर।
तुम ठहर गयी हो,
बहती धारा से पूछ रही हो।
अरी यौवने! सागर की लहरें,
खूब उछालें भरती, तट पर आती।
तुम जंगल में, मौन समेटी,
बैठी हो, यहाँ उजास फैला है।
सितारों को तुमने, पास बुलाया,
देखो सुबह हुई,
तुम किस जंगल से,
घर आयी हो।
यह रेत घरौंदा,
कितना सुंदर।
ओ सद्य: स्नाता,
किसी नदी के पावन जल से,
भीगी लटें तुम्हारी।
अरी ज्योत्सना, तुम धूप धान सी,
महक रही हो।
कुंकुम केशर से,
खजुराहो की स्वप्नसुंदरी।
अब अधीर हो,
यह वन प्रांतर।
यह एकांत कुंज सघन है,
सन्नाटे में हवा अकेली ठहर गयी है।