“प्रथम जीव”
जीव एक था न तब,
सूर्य टूटता था जब,
पिंड कई बन गये,
दूरियों पे थम गये,
पर विलग न हो सके वे,
घेरे मे थे घूमते,
एकही था
गुरुत्व,
जिसने जोड रखा था इन्हें।
टूट के क्या नश्ल कोई,
टूटती जमात से?
याकि वो भी,
गुरुत्व के, घेरे मे ही घूमती।
अलग थे ये पिंड,
पर,
सूर्य से ही गर्म थे,
न हवा थी,
जल न था,
था, वाष्प का जीवन यहाँ,
तडित का प्रवाह और बिजलियों की बानगी।
विकिरणों ने,
कालक्रम मे,
ताप इनका हर लिया,
वाष्प द्रवीभूत होकर,
पानी-पानी हो गया।
इस तरह ही इस धरा पे,
सार सागर ने गहे,
और चल पडी थी फिर,
उत्थान की,
अशेष सी कवायदें।
दिन गये, फिर मास बीते, बरस – युग की बात क्या?
समय ने करवट थी बदली,
धरा कुछ शीतल हुई,
तब कहीं इक काल में,
कुछ तत्व आपस मे मिले।
योग हुए तत्व सारे, था संयोग भी मिल गया,
हो रही थीं,
इस धरा पर,
श्रृँखला मे अभिक्रिया।
रोज बनते,
टूट जाते,
यौगिकों के रुप थे।
एक यौगिक यूँ बना फिर,
खुद ही द्विगुणित था हुआ,
कोई कहता “कोसरवेट”
किसीने “माइक्रोस्फीयर” कहा,
नाम चाहे जो भी धर लो,
मान सबने है लिया,
इस धरा पर,
रुप मे इस,
पहला जीवन आ गया।
इस इकाई को अब,
कोशिका कहते हैं सब।
कोशिका फिर,
योग करके,
उत्तकों की हो गई,
और फिर,
पनपा,
धरा पर,
जीव का विकाशक्रम।
क्या मिला था?
क्या हुआ था?
कैसे हुआ?
क्या जानते?
जो न देखा,
जो न परखा,
कैसे उसको मानते।
बाद की कवायदें,
कयास ही लगती हमें,
अपनी अपनी मेधा से,
हर शख्स था कुछ बोलता,
ये प्रयोग, की वो निरीक्षण,
निष्कर्ष, थे निकालते,
अपनी अपनी मान्यता से,
मानकों से,
जीव की रचना का,
इतिहास थे खंगालते,
गुत्थियाँ सुलझाते वे,
अपने कहे को काटते,
फिर से वे,
एक अभिनव दिशा मे,
मार्ग को तलाशते,
हम को लगता,
जो न देखा,
उस पे तुम लडते हो क्यूँ,
मानकों के फेर मे,
बकवास ही करते हो तुम।
जीव आया किस तरह?
जन्मी थी कैसे विविधता?
बात ये क्या जान पाया,
नर कोई भी आज भी!
ओपरेन हेलडेन आये,
डार्विन लेमार्क आये,
पर न आया आज भी,
इस बात का निदान कोई।
हम जहाँ थे,
आज भी,
उस प्रश्न को टटोलते,
याकि मुर्गी, याकि अंडा,
आदि क्या है?
अंत क्या?
कहते डार्विन,
वानरों ने,
मानवों का रुप है धर लिया,
और फिर लेमार्क बोले,
बकरियों ने खींच अपने पैर और,
उचका के अपनी गर्दनों को,
लंबे कुछ इतने हुए कि,
बन गये जिराफ वो।
साधुवाद है,
इनको जो,
विकाशक्रम बता गये,
खींच तान के,
बकरी को,
जिराफ, ये बना गये।
जीव जन्मा, जल के भीतर,
तत्व के संयोग से,
पहले एक, फिर बहु, फिर अंग विकसित थे हुए,
जल में बढती भीड से फिर ये सभी विगलित हुए।
मत्स्य बदले दादुरों में,
कूदकर चलते थे वे,
दादुरों से साँप आये,
रेंगकर चलते थे वे।
वक्त बदला, काल बदला,
इस धरा का ताप बदला,
केंचुलों को छोडकर फिर,
सरीसृपों ने चाल बदला,
कुछ ने उडना,
कुछ ने चलना,
नभ, धरा के मध्य सीखा।
बन पखेरु उड गये कुछ,
कुछ ने डाला थल पे डेरा।
जरायुजों या अंडजों की,
बात भी निकली बेमानी,
प्रश्न पर दस्तक था देता,
जीव की दे दो निशानी।
साक्ष्य क्या है,
ज्ञान क्या है,
व्यर्थ है ये बात सारी,
जब न देखा,
जीव बनते,
बात ये सारी बेमानी।
हम भले यह पुष्ट करलें,
अपने मन को तुष्ट करलें,
पर क्या ये बतलाओगे तुम,
हर कडी को जोडकर,
जीव आया,
कैसे जग में,
परम सत्य बताओगे।
अति सुंदर कविता