पारो शैवलिनी की कविता : रोटी की तलाश

रोटी की तलाश

संसद
अंधेरी गुफा बन गई है
जहाँ से
रोटी के लिए लगने वाली आवाज़, उसकी दीवार से टकरा कर वापस लौट आती है।
सोचता हूँ
वो कौन सी भाषा है, जो
संसद में सुनी जाती है?
उस भाषा के व्याकरण को संसद से बाहर
निकालना होगा
गंगाजल से उसे
धोना होगा, उपरांत
हमारे पवित्र ग्रंथों से पूर्व
इस भाषा के व्याकरण को गले लगाना होगा
जिसमें छिपी हुई है
रोटी की राजनीति।
व्यवस्था को फटकारते हुए, न्यायपालिका के ऊंचे गुम्बद से जब
चाँद देखता हूँ, तो मुझे
रोटी की याद आती है।
पेट की आग से हार कर
अंदर की आग को दबाकर जब मानवता को हलाल होते देखता हूँ तब, पथराई और दहकती
दावानल के बीच
व्यवस्था पर थूकते हुए
आगे बढ़ जाता हूँ
रोटी की तलाश में।

पारो शैवलिनी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

nine − 8 =