बांग्ला कवि सुनील माझी की कविता
वन मल्लिका
किस जतन से तुमने खुद को इतना चमकीला बना रखा है ‘हे रमणी’
शरीर में प्रवेश कर चांदनी सा निर्मल रहता है तुम्हारा लावण्य
हड्डियों के ढांचे संग शरीर के मामले में मैं हूं बेहद विपन्न
छाया रहित किसी देश के मानिंद
प्रशासन तीर धनुष और बम के विस्फोट से
लहुलूहान है एक तारा, सूफीवाद
जंगल का सन्नाटा, रेप होने के जीवाश्म की तरह है
इसलिए उसकी ओर से न कोई अपील है और न निमंत्रण
जो कभी किताबें लेकर भटकते थे वन-वन
वे थके हुए और अक्षम है।
क्योंकि गिरे हुए पत्तों की आग में, जल रहे हैं मिट्टी व बीज
फिर भी इस मौसम में कैसे उग रहे हैं श्वेत पुष्प
हमारे जीवन में नहीं है ओस भीगी मिट्टी
आग की तपिश से नहीं है सिहरन
केवल डरावने दृश्य और बारूद के गंध की महक है।
मैने आपको किसी समय टैगोर उपनाम से बुलाया था
उस समय सांसों में बहुत तेज धारा चल रही थी
तुम्हारी खूबसूरत आंखों का आश्चर्यजनक चुंबन, अहा
सपने में संवर कर, हाथों से किया तर्पण-अर्पण
आज मुझे एक सपना दो, दे दो कुछ अकल्पनीय
गांव-देश में फैले आस्था, समरसता और आरती की रोशनी।
सुनील माझी के बांग्ला कविता संग्रह “फूल” से अनुवाद : तारकेश कुमार ओझा द्वारा