प्रमोद तिवारी की कविता : “लाखा पडी उतानी”

“लाखा पडी उतानी”

एक था साँप, एक थी लोमडी और एक था सियार,
कथा पुरानी है,
तीनों के यारी की,
जंगल मे रहते थे,
खाते और सोते थे,
कोई फिकर ना थी,
बाहर के दुनिया को इनको खबर ना थी,
तीनों की यारी से जलता था हर कोई,
कहते कहानी ये, दादाजी मेरे।

शाम को मिलते थे,
सुख दुःख कहते थे,
अपने घरों को वो रात में फिरते थे।

लोमडी चालाकी से भेद इनके लेती थी,
पूछा इक दिन उसने,
बोलो मित्रों!
अकल किसमे है कितनी?
आई जो आफत तो कैसे बचाओगे,
कितनी फिर बुद्धि तुम उसमे लगाओगे?

साँप ने सोचा तब,
मैं पहले बोलूँगा,
बुद्धि की अपने मैं चर्चे बखानूँगा।
बोला वो इठलाता,
पूँछ को वो बलखाता,
सौ बुद्धि रखता हूँ,
जेहन में अपने।
आये जो आफत तो,
फन मेरा देखेगी,
भागेगी डरके।

लोमडी सयानी थी,
थोडा मुसकाई वो,
सौ में क्या इठलाता?
लाखा हूँ मैं तो,
आई जो आफत तो झट ताड जाऊँगी,
उसको भगाने का जुगत भिडाऊँगी।

सियार बडा झेंपा था,
बुद्धि पे अपने,
कह भी ना पाता था,
अपनी विवश्ता वो।
बोलाः
मित्रों,
मेरे पास तो एक ही बुद्धि है।

हँसते थे दोनो सियार की हालत पे,
इतना ना घबराओ,
हमसे ना शरमाओ,
थोडी सी बुद्धि हमारी ही ले लो।

कुछ काल बीता फिर,
भडकी चिंगारी इक,
हूहू जलाती थी,
जंगल को पूरे।

सौ बुद्धि वाला फिर पेडों पे जा बैठा,
लोमड ने भी इक खोह को तलाशा था।
एक बुद्धि सियरन ने बुद्धि चलाई थी,
जंगल से बाहर की दौड लगाई थी।

बुझी आग जंगल की,
सियरन तब आया,
डाल से लटका था सौ बुद्धि वाला,
लोमड को उसने उतान ही पाया।

कहता जो फिरता था, सुनलो अब तुम भी:

“सौ बुद्धि के हिले डुले,
लाखा पडी उतानी,
एक बुद्धि का सियरन मामा,
साठ कोस भुई तानी।”

प्रमोद तिवारी

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