।।नालायक।।
श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता : यह एक ऐसे लड़के की कहानी है, जो विशेष अध्ययन-मनन न कर सका। फलतः तथाकथित सभ्य परिवार और समाज के द्वारा ‘नालायक’ की संज्ञा से विभूषित कर दिया गया। अतः घर के भी सभी लोग उसे ‘नालायक’ या ‘नालायकवा’ नाम से ही सम्बोधित करते हैं। लेकिन जहाँ उसका शिक्षित अफसर बड़ा भाई सपत्नी घर की जिम्मेवारियों से मुँह मोड़े रहता है, वहीं वह तथाकथित ‘नालायक’ घर की सभी जिम्मेवारियों को वहन करते रहता है। क्या फिर भी वह ‘नालायक’ ही है?
पात्र-परिचय
जयराम : 65 वर्षीय वृद्ध
कौशल्या : 60 वर्षीय वृद्धा
बुद्धिराम : 30 वर्षीय भलेमानस
नालायक : 25 वर्षीय युवक
कंचना : 25 वर्षीय
(एक साधारण घर के आँगन का दृश्य। जिसमें दोनों ओर दो दरवाजें, भीतर कमरों में जाने के लिए खुलते हैं। एक युवक नाम ‘नालायक’ एक कुर्सी पर आराम से बैठा अपने मोबाइल पर कुछ कर रहा है)
नेपथ्य से : अरे नालायकवा! अरे नालायकवा! कहाँ मर गया है? अरे, नालायकवा।
बुद्धिराम : (प्रवेश करते हुए) अरे नालायकवा! तू
यहाँ बैठा मोबाइल पर गेम खेल रहा है और मुझे एक पार्टी में जाने के लिए देर हो रही है। दौड़ के जा और देख तो, धोबी मेरे कपड़े आयरन कर दिया है कि नहीं। अगर नहीं किया हो तो आयरन करवाकर तुरंत ही लेते आ। (कुछ खिन्नता से) कुछ घर-द्वार का भी चिंता-फ़िक्र किया करो। दिन भर बैठे मोबाइल चलता रहेगा। अब उठेगा भी? उठ जा।
नालायक : (अनमने से) भईया, जाता हूँ न। (गिड़गिड़ाते हुए) भईया! सौ रूपये दो न, मुझे भी अपने एक दोस्त की शादी की पार्टी में जाना है।
बुद्धिराम : (खिन्नता से) जब देखो तो पैसा-पैसा किये रहता है। पिछले सप्ताह तो तुझे सौ रूपये तो दिए थे। सब खर्च कर डाला? जा, अभी मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। चल जा और मेरे कपड़े लेते आ।
नालायक : (रुष्ट होकर) जाता हूँ। (प्रस्थान)
बुद्धिराम : काम के न काज के दुश्मन आनाज के। माथे पर बोझ की तरह पड़ा रहता है। दिन भर आवारा गर्दी करता रहता है। बदनामी तो हमारी होती है।
जयराम : (प्रवेश करते हुए) क्या हुआ बुद्धिराम। कौन तुम्हारे माथे पर बोझ की तरह पड़ा हुआ है और किस बात की बदनामी होती है, तुम्हारी?
बुद्धिराम : जाने भी दीजिए। क्या करियेगा सुन कर। आपने ही नालायकवा को बिगड़ कर रख दिया है। उसे सर पर चढ़ाये रहते हैं। कुछ काम-धाम करना नहीं है। जब देखो पैसा-पैसा माँगते ही रहता है।
जयराम : अच्छा, अब समझा। नालायकवा की बात करते हो। अरे! तुम्हारी इतनी बड़ी कम्पनी है, उसी में उसे कोई भी काम पर रखवा देते। घर में दो पैसे आ जाते और वह भी लगा रहता। अब उसी की एक चिंता लगी रहती है। अच्छी तरह से पढ़ाई-लिखाई की होती, तो उसे भी आज कोई अच्छी नौकरी मिल जाती। तुम्हे अच्छी शिक्षा देने की चाहत में उसको आदमी बनाना ही भूल गया और उसका तो मन भी तो पढ़ाई-लिखाई में न लगा। अब करे भी तो क्या करें?
बुद्धिराम : ऐसे अनपढ़ गवाँर नालायक के लिए मेरी कम्पनी में कोई भी जगह नहीं है और फिर मेरे स्टाफ भी मुझे क्या कहेंगे? मुझे अपने स्टाफ के सामने हमेशा लज्जित होना पड़ेगा। (प्रस्थान)
जयराम : घर में सब का बिन पैसे का नौकर बने रहने के लिए भी तो इस नालायक की जरुरत है ही। (चिंतामग्न कुर्सी पर बैठ जाते हैं)
नालायक : (एक पैकेट में कुछ कपड़े लेकर नालायक का प्रवेश) भईया! यह लीजिए, ले आया आपके कपड़े।
जयराम : वहीं से चिल्ला क्या रहा है? जा उसके कमरे में दे आ। दिन भर आवारागर्दी करता रहेगा। जा हट, मेरी नजरों के सामने से। अपना मनहूस चेहरा मुझे मत दिखा। (नालायक का प्रस्थान)
कौशल्या : (प्रवेश करते हुए कुछ कठोर आवाज में) क्यों न लगेगा? मेरे बेटे का चेहरा आपको मनहूस। घर-द्वार का सारा काम तुम्हारा वह अफसर बेटा बुद्धिराम ही तो करके जाता है? जिस दिन मेरा यह बेटा घर पर न रहे, उस दिन आपको भोजन तक नसीब न होगा। उस लाट साहब और लाट साहिबा को तो बिस्तर पर ही पड़े-पड़े समय पर सब फरमाइश पूर हो जानी चाहिए। कौन सामान कहाँ से कैसे आएगा, उसकी उन्हें क्या चिंता? महिना की शुरुआत में हाथ पर कुछ कागज गिनकर रख दिए, बस और फिर बिस्तर पर पड़े-पड़े हर चीज की फरमाइश। लगता है यह घर नहीं है, कोई होटल है। कोई धर्मशाला है और नौकर बन कर मेरा यह बेटा हमेशा हाथ बांधे खड़ा रहता है। (नालायक का प्रवेश। एक ओर बैठकर फिर मोबाईल पर कुछ करने लगता है)
जयराम : तब इसको कोई काम-काज करने के लिए कुछ बोलती क्यों नहीं? मैंने तो कई बार बुद्धिराम को इसके लिए कोई काम काज देखने के लिए कहा है। ई नलायकवा के लायक कोई काम होने पर वह जरूर इसे कोई न कोई नौकरी पर लगा देगा।
कौशल्या : देखते रहिये मुंगेरी लाल के सपने। अगर नौकरी पर लगा देगा, तो उसका और उसकी बीवी का बिन पैसे का गुलाम कहाँ से आवेगा? बुद्धिया का साला, जो कुछ न जानता है, आते ही उसको बुद्धिया ने नौकरी पर लगवा दिया। आज भी उसके ससुराल से अगर कोई आ जाए, फिर तो वो जो कहे, तुरंत होगा। न करेगा, तो साहिबा रुठ कर बैठ जायेगी। (प्रस्थान)
जयराम : (कुछ दुखी मन से) अरे नालायकवा! तू कुछ काम-धाम क्यों नहीं देखता है? कब तब अपने बड़े भाई के माथे पर बैठा रहेगा और सबको जलील करते रहेगा?
नालायक : करूँगा न, जरूर करूँगा। फिर उस दिन से आप भी मुझे नालायकवा कहना भूल जाएँगे।
जयराम : चल भाग यहाँ से, जा मेरे लिए ये कुछ दवाइयाँ लेते आ। (कागज लेकर नालायक का प्रस्थान) पता नहीं, वह दिन मुझे कब देखने को मिलेगा।
(दृश्य परिवर्तन)
नेपथ्य से : कुछ दिन बाद।
(मंच पर प्रकाश मद्धिम, एक खाट पर जयराम लेटे हुए। अचानक उठ कर जोर-जोर से खाँसने लगते हैं। खटिया से उठते ही फर्श पर गिर पड़ते हैं। मुँह से अस्पष्ट आवाज। कुछ उलटियाँ होने के लक्षण। आवाज सुनकर कौशल्या का घबराहट के साथ प्रवेश)
कौशल्या : क्या हुआ आपको? क्या हुआ?
जयराम : अ …….. अ …….. ब ……. ब …….. (अस्पष्ट भाषा)
कौशल्या: हे भगवान्, ये क्या हो गया इनको? ए बुद्धिराम। ए नालायकवा। अरे सब जल्दी आओ। (रोते हुए) देखो तो इनको क्या हो गया? हे भगवान्।
बुद्धिराम : (शयन कपड़ों में प्रवेश) क्या हुआ माँ? क्या हुआ?
नालायक : क्या हुआ माँ? बाबूजी! क्या हुआ आपको?
कौशल्या : देख बुद्धिया। देख नालायकवा। तेरे पिताजी को क्या हो गया? (बुद्धिराम पिता के पास जाकर उन्हें सहारा देता है। उसकी पत्नी कंचना का प्रवेश। चहरे पर खिन्नता। नालायक जयराम को अपनी गोद में उठा कर खाट पर लिटा देता है)
बुद्धिराम : पिताजी! घबराइए नहीं, मैं हूँ न।
कौशल्या : बुद्धिया जल्दी कुछ कर। लगता है, इनको हार्ट अटैक हुआ है। जल्दी से इन्हें अस्पताल ले चलो।
नालायक : हाँ भईया, जल्दी ही कुछ कीजिए।
बुद्धिराम : हाँ, हार्ट अटैक ही है। मैं अभी गैराज से गाड़ी निकलता हूँ। (प्रस्थान करना चाहता है)
कंचना : कहाँ चले गाड़ी निकलने के लिए, देखते नहीं, बूढा वोमेटिंग पर वोमेटिंग किये जा रहा है। पूरी गाड़ी ही गंदी हो जाएगी। आज ही शाम को 1200 रूपये दे कर पूरी गाड़ी धुलवाई गई है। कल ही मेरी सहेली की मैरेज एनिवर्सरी (marriage anniversary) पार्टी में जाना है। गाड़ी मत निकालो।
बुद्धिराम : (लौट कर) हाँ माँ, क्या है कि गाड़ी में आज पेट्रोल नहीं है।
कौशल्या : कुछ भी कर, पर जल्दी इनको अस्पताल ले चल।
बुद्धिराम : मैं अभी कोई टैक्सी व्यवस्था करके आता हूँ। (प्रस्थान और उसके पीछे कंचना का भी प्रस्थान)
कौशल्या : नालायक बाबू! टैक्सी लाने में बुद्धिया तो बड़ी ही देर कर रहा है। जा बेटा! तू भी देख कर तो आ।
नालायक : नहीं माँ, अब ज्यादा देर करना उचित नहीं है। तुरंत ही बाबूजी को अस्पताल ले चलना ही होगा।
कौशल्या : हाँ बेटा।
नालायक : माँ, मैं बाबूजी को अस्पताल लिए जाता हूँ। (जयराम को बड़ी मशक्कत से अपने पीठ पर कौशल्या की सहायता से एक कपड़े से बाँध लेता है) माँ! मैं बाबूजी को अस्पताल लिए जाता हूँ। तुम पीछे से आओ।
बुद्धिराम : (प्रवेश करते हुए) अरे नालायक! यह तू क्या कर रहा है? भला मरीज को क्या ऐसे कोई अस्पताल ले जाता है। तू तो इन्हें अब ही मार ही डालेगा। मैं टैक्सी वाले से अभी बात करके आया हूँ। अभी वह आधे घंटे में आ ही रहा है।
नालायक : परन्तु भईया, आधे घंटे तक बाबू जी समय न देंगे। टैक्सी का इंतजार करना मुनासिब न होगा। आप उस टैक्सी से बाद में अस्पताल आइए। मैं बाबूजी को लिये चलता हूँ।
(प्रस्थान। कंचना का प्रवेश)
कौशल्या : मैं भी आती हूँ, बेटा। (प्रस्थान)
बुद्धिराम : इस नालायक को कुछ भी बुद्धि-उद्धि है ही नहीं। ऐसे ही मरीज को कंधे पर अस्पताल लिये जा रहा है। कोई देखेगा तो क्या कहेगा?
कंचना : उसे हमारी इज्जत और स्टैट्स की थोड़े ही कोई परवाह है। जो मन में आता है, वही करता है। अपने मन का मालिक बना फिरता है।
बुद्धिराम : मैं भी अस्पताल जाता हूँ।
कंचना : नालायकवा तो गया ही है। इतनी रात गए अब आप अस्पताल जा कर क्या करेंगे? जो कुछ भी करना है, वह डाक्टर ही तो करेगा। अब सबेरे अस्पताल जाइएगा। चलिए आराम किया जाय। (जम्हाई) अब तो नींद भी पूरी न होगी (कंचना का, फिर बुद्धिराम का प्रस्थान)
(दृश्य परिवर्तन)
नेपथ्य से : कुछ दिनों के बाद, जयराम स्वस्थ होकर घर आ गए हैं।
(जयराम आराम कुर्सी पर बैठे हुए। कौशल्या पास बैठी सूप में चावल बिनती हुई। नालायक दरवाजे के पास बैठा मोबाइल पर खेलते हुए)
जयराम : अरे नालायकवा जा, जरा आज का अखबार तो लेते आ।
कौशल्या : आप भी इसे नालायक ही कहते हैं और नालायक ही समझते हैं। बुद्धिया को तो कुछ कहते नहीं हैं। यह बेचारा दिन भर भागे फिरता है। फिर भी घर के सब लोग इसे नालायकवा ही कहते-फिरते रहेंगे, तो दुनिया वाले इसे नालायक क्यों न कहेंगे? उस दिन अगर आपका यह नालायक बेटा आपको अस्पताल में बैल बनकर न पहुँचाता, तो आप आज इस तरह से इसे नालायकवा भी न कह रहे होते, समझे। जब देखो तो नालायक, जब सुनो तो नालायकवा।
जयराम : (मुस्कुराते हुए) अरे कौशल्या! तुम क्या जानो? जब लोग इसे ‘नालायकवा’ कहते हैं, तब उस समय मेरे हृदय पर कितनी चोट लगती है। मेरा कलेजा फट-सा जाता है। लेकिन मैं हृदय थामे रह जाता हूँ, पर मैं इसे बुद्धिराम तो कदापि नहीं कह सकता और न चाहता ही हूँ कि यह कभी बुद्धिराम के जैसा क्रूर हृदय का असामाजिक, बुद्धिहीन और स्वार्थी बने, जिसके हृदय में केवल अपनी ठाट-बाट और शानों-शौकत को स्थान प्राप्त हो, पर अपने माँ-बाप, घर-परिवार और मानवता के लिए रंच-मात्र भी जगह न हो, (रूक कर) मेरा यह बेटा भले ही दुनिया की निगाह में नालायक है, परन्तु मेरे हृदय-भावों का उतराधिकारी यही है। यही नालायकवा ही है और सदैव रहेगा।
नालायक : बाबू जी! यह आप क्या कह रहे हैं? (जयराम से लिपट कर) मैं तो आपका बेटा नालायक हूँ। किसी योग्य नहीं हूँ, बाबू जी, ऐसा प्रेम मत दिखलाइए बाबूजी। मैं प्रेम-भाव सहन नहीं कर सकता। सभी कोई मुझसे नफरत करते हैं। आप भी मुझसे नफरत कीजिए। यही मेरी नियति है। मुझे नालायकवा कहिए। मुझसे घृणा कीजिए, पर प्रेम मत दिखाइए। मैं सचमुच आपका नालायक बेटा हूँ, बाबू जी, नालायक।
कौशल्या : (भर्राए गले से जयराम के पास आकर) फिर भी आप इसे ही नालायक कहते हैं?
जयराम : अरे पगली! मैं मन से इसे कहाँ नालायक कहता हूँ, यह तो मेरे बाहरी शब्द हैं। यह नालायक नाम ही तो इसे जिम्मेवार बना दिया है। इस पर तो मुझे इतना भरोसा है, जितना अपने आप पर नहीं है। मैं नहीं चाहता हूँ कि यह भी बुद्धिराम कहलाकर उस बुद्धिराम की तरह ही स्वार्थी बन जाए।
नालायक : बाबू जी! मैं तो अब तक समझता था कि आप भी मुझसे नफरत ही करते हैं, जैसे कि अन्य लोग मुझे से नफरत करते हैं।
जयराम : और सुनो कौशल्या! मुझे अपने पर जितना भरोसा नहीं है, उससे ज्यादा भरोसा मुझे इस काबिल नालायकवा पर है। हम दोनों का पार लगाने वाला भी वह बुद्धिराम कदापि नहीं है, बल्कि यही मेरा बेटा नालायकवा ही होगा। हे प्रभु! अगर ऐसे काबिल बेटे को नालायक कहा जाता है, तो प्रभु! मैं तुमसे यही प्रार्थना करता हूँ कि बुद्धिराम की तरह तथाकथित योग्य बेटा किसी को न देना, बल्कि मेरे इस नालायक बेटे की तरह ही सबको ऐसा ही नालायक कहलाने वाला ही बेटा देना, नालायक कहलाने वाला ही बेटा देना।
नालायक : बाबू जी। (लिपटकर रोते हुए)
(मंच पर सभी पात्र स्थिर हो जाते हैं) समाप्त