मनुष्य जन्म से अनगढ़ है, उसे पशुत्व से दूर करने का काम संस्कृति करती है – प्रो. शर्मा

मालवी लोक संस्कृति यह सिखाती है कि मनुष्य को भूमि, जन और संस्कृति के प्रति अनुराग होना चाहिये – प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
मालवी लोक संस्कृति पर हुआ विशिष्ट परिसंवाद

भोपाल । मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय की लिखंदरा दीर्घा की परिसंवाद शृंखला में जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय, भोपाल एवं शासकीय महारानी लक्ष्मी बाई कन्या स्नाकोत्तर (स्वशासी) महाविद्यालय के सहयोग से दो दिवसीय परिसंवाद का आयोजन मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय के सभागार में किया जा गया है। इसके अंतर्गत शुभारम्भ दिवस पर 08 दिसंबर को मालवी लोक संस्कृति पर विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के कुलानुशासक एवं लोकसंस्कृति विद् प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने मालवी लोक संस्कृति पर व्याख्यान में अपने विचार प्रस्तुत किये।

मुख्य वक्ता प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने मालवी लोक संस्कृति पर व्याख्यान देते हुए कहा कि आज नई पीढ़ी को लोक संस्कृति सहेजने के लिये आगे आना चाहिये। मालवा अंचल शास्त्रकारों और लोक चिंतनशीलों का अंचल रहा है। यहां वैदिक ऋषियों ने जीवन यापन किया है। जब भी पुरातन की बात होती है, तब दो नगरों की बात होती है। जिसमें पहला उज्जयिनी और दूसरे पाटलिपुत्र की बात आती है। इन दोनों ही नगरों में अलग-अलग देश और विदेश के लोग आते रहे हैं। मालवा संस्कृति में स्थान स्थान की परंपराओं, संस्कृति, भाषा, कथा एवं लोकाचारों को आत्मसात किया है। मनुष्य जन्म से अनगढ़ है और उसे पशुत्व से दूर करने का काम संस्कृति करती है। हम बात करें भीमबेटका की तो वहां के प्रतीकों में भी मालवा की संस्कृति दिखाई देती है।

वहां जो भी रहन-सहन, दिनचर्या पर आधारित चित्र एवं प्रतीक बनाये गये हैं, उनमें मालवा की संस्कृति देखने को मिलती है। यहां छह हजार शैलाश्रय देखने को मिलते हैं। भारत देश की संस्कृति लोक संस्कृति है। बिना लोक और जनजातीय संस्कृति के भारत शून्य है। मालवी लोक संस्कृति यह सिखाती है कि मनुष्य को भूमि, जन, संस्कृति के प्रति अनुराग होना चाहिये। मालवा की माच शैली के बारे में बताया कि यह शैली 300 साल पुरानी है, जिसमें 150 से अधिक खेल प्रस्तुत हुए हैं। परिसंवाद के दौरान वक्ता श्री शर्मा ने लोक कथाएं सुनाई एवं विद्यार्थियों द्वारा उनसे मालवी लोक संस्कृति से जुड़े कई प्रश्न भी पूछे गये।

परिसंवाद का शुभारंभ दीप प्रज्वलन एवं वक्ता, अतिथियों के स्वागत से हुआ। इस दौरान मंच पर अकादमी निदेशक डॉ.धर्मेंद्र पारे, शासकीय महारानी लक्ष्मीबाई कन्या स्नातकोत्तर (स्वशासी) महाविद्यालय की प्राचार्य डॉ. ममता चंसोरिया, हिंदी की विभागाध्यक्ष डॉ. प्रज्ञा थापक संगोष्ठी के समन्वयक डॉ.सुधीर कुमार एवं बड़ी संख्या में विद्यार्थी उपस्थित रहे। परिसंवाद का संचालन शुभम चौहान द्वारा किया गया।

अकादमी निदेशक डॉ. धर्मेंद्र पारे ने कहा कि पहले जब भी लोक संस्कृति, विमुक्त एवं घुमंतू समुदाय पर बात करते थे, तो बात करने वाले को पिछड़ा माना जाता था। लोग इन विषयों पर बात नहीं करना चाहते थे, लेकिन वर्तमान में शासन, प्रशासन एवं अकादमी द्वारा इन विषयों पर चर्चा एवं मंथन किया जा रहा है। साथ ही इन पर काम भी किया जा रहा है। यह परिसंवाद हर माह आयोजित किया जाता है, जिसमें लोक संस्कृति एवं जनजातीय संस्कृति विषयों पर चर्चा की जाती है।

परिसंवाद में महाविद्यालय की प्राचार्य डॉ. ममता चंसोरिया ने कहा कि प्राचीन काल से ही मालवा की संस्कृति समृद्ध रही है। यहां की बोली, भाषा, परंपरा, संस्कृति सुभावन है। आज इस परिसंवाद के माध्यम से विद्यार्थियों को मालवा को समझने और नजदीक से जानने का अवसर मिलेगा। परिसंवाद के दौरान उन्होंने एक बुंदेली लोक कथा भी सुनाई। दो दिवसीय परिसंवाद में आज 09 दिसंबर को बघेली लोक संस्कृति पर प्रो. उमेश कुमार सिंह अपने विचार प्रस्तुत करेंगे। यह परिसंवाद संग्रहालय सभागार में दोपहर 01 बजे से आयोजित किया जायेगा।

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