महरूल : बैसवारा की लोकसंस्कृति

विनय सिंह बैस, रायबरेली, उत्तर प्रदेश महरूल का शाब्दिक अर्थ :- महरूल एक उर्दू शब्द है जिसका अर्थ नाकाबंदी करना होता है।
* महरूल के अन्य नाम :- प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, जौनपुर में इसे ‘नकटा’ (संस्कृत शब्द नाटक का अपभ्रंश) और देवरिया, गोरखपुर में इसे ‘जलवा’ कहते हैं। बिहार में इसे डोमकच, बुंदेलखंड में बहलोल, चंबल क्षेत्र में खोइया और हरियाणा में खोडिया कहते हैं।
* महरूल क्या है :- यह रात में महिलाओं द्वारा खेला जाने वाला एक प्रकार का प्रहसन, स्वांग है। महरूल की रात केवल महिलाओं की, सिर्फ महिलाओं द्वारा और बस महिलाओं के लिए होती है। इस एक रात के लिए बैसवारा का पुरूष प्रधान समाज, महिला प्रधान हो जाता है।
* कब मनाया जाता है :- बैसवारा में जिस दिन बारात लड़की वालों के घर जाती है, उस दिन वर की घर की महिलाएं रात भर जागरण कर महरूल खेलती हैं।

उद्देश्य :- शादी ब्याह में अमूमन सारी महिलाएं अपने पूरे गहने जेवर पहने रहती हैं। पुराने समय मे बारात तीन दिनों के लिए जाती थी। चोर-उचक्के इसी तरह के किसी अवसर की ताक में रहते थे और मौका पाकर चोरी कर लेते थे। इसलिए महरूल (नाकाबंदी) के माध्यम से औरतें रात भर जाग कर अपने गहनों की सुरक्षा करती थी। महरूल के माध्यम से घर की चारदीवारी में बंद महिलाएं अपनी यौन कुंठाओं को एक दूसरे से हंसी-ठिठोली के माध्यम से साझा करती हैं। यह प्रहसन उनके लिए स्ट्रेस बस्टर का काम करता है।
* महरूल से जुड़ी किवदंती :- महरूल खेलना अत्यंत शुभ माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि जिस घर मे महरूल खेला जाता है, उस घर मे नवदंपति को शीघ्र ही पुत्र/पुत्रीरत्न की प्राप्ति होती है।
* कैसे खेला जाता है :- महरूल के दौरान महिलाएं खूब नाच- गाना करती हैं। घर-परिवार के लोगों और रिश्तेदारों की नकल करती हैं। इसमें एक महिला और पुरुष बनी महिला की शादी होती है, सुहागरात होता है, फिर बच्चा भी पैदा होता है। तब महिलाएं उस बच्चे (जलुआ) के लिए नेग भी मांगती हैं। भारतीय समाज मे सार्वजनिक रूप से वर्जित यौन शिक्षा देने का भी यह एक माध्यम है।
* महरूल का भविष्य :- आजकल अधिकांश महिलाएं ब्यूटी पार्लर से सज धज कर बारात चली जाती हैं। ज्यादा पढ़ी लिखी और अपने को आधुनिक समझने वाली महिलाएं वैसे भी महरूल को पिछड़ेपन, असभ्यता की निशानी मानती हैं। इसलिए महरूल की यह लोक परंपरा अब समाप्त होने को है।

महरूल के गीत :- महरूल के सारे गीत ढोलक की थाप के साथ गाये जाते हैं। शुरुआत कुछ पौराणिक गीतों से होती है। जैसे-जब भगवती सीता, मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लक्ष्मण के साथ वन को जा रही हैं तो महिलाएं उनसे प्रश्न पूछती हैं :-
“रहिया में पूछे नर नारी, सखी काहे वन को सिधारी?
कोने राजा कि तुम हो बिटियवा,
कोने राजा बहुवारी??
सखी काहे वन को सिधारी?
तब माता सीता उत्तर देती हैं :-
राजा जनक जी की बारी बिटियवा राजा दशरथ बहुवारी।
सखी हो काहे वन को सिधारी।।”

जैसे जैसे रात बीतती जाती है। गाने थोड़े रूमानी होते जाते हैं। देखिये कि एक महिला किस तरह पुरवैया हवा और अपने पति की शिकायत करती है :-
“बैरन चले पुरवइया, मैं का करूं।
सैंया बड़े हैं सोवइया, मैं का करूं।।
गौड़ मीजि सासू का सोवायेन, तब तक जागी ननदिया, मैं का करूं।
मीठा दै ननदी का सोवायेन, तब तक जागे होरिलवा, मैं का करूं।।
ठोक -पीट होरिला का सोवायेन, तब तक हो गया सवेरा, मैं का करूं।।
बैरन चले पुरवइया, मैं का करूं।
सैंया बड़े हैं सोवइया, मैं का करूं।।”

और जब रात पूरी जवां हो जाती है, तब महिलाएं पुरुषों का वेश धारण करती हैं तथा अश्लील, भद्दे, भौंडे मजाक करती हैं। उस रात वह अपने दिल के सारे गुबार निकाल देती हैं। गीतों के माध्यम से महिलाएं पुरुषों तथा महिलाओं दोनों को खूब जी भर के गालियां देती हैं। एक बानगी देखिये कि एक भाभी अपनी ननद से लोकगीत के माध्यम से कैसे हास-परिहास कर रही है :-
“छुटकी ननदिया छिनार हो, मांगेले झुमकवा।
टीका जो मंगतू तो दे देत ननदी, पापा का देहल हमार हो।।
नाहीं देबो झुमकवा।।।

महरूल की कहानी, प्रत्यक्षदर्शी की जुबानी :- बहुत साल पहले तेजगांव में रहने वाले मेरे साढू के बडे पापा श्री शिवकुमार सिंह के पड़ोस से बारात गई हुई थी। तब बड़े पापा जवान थे। ठंडी का मौसम था और बड़े पापा बरामदे में चारपाई डाले आराम से सो रहे थे। सहसा इन्हें महसूस हुआ कि कोई इन्हें कोड़ा मार रहा है। ये घबराकर उठ बैठे। देखते हैं कि एक पुरुष कुर्ता पायजामा पहने हुए, सिर में पगड़ी बांधे और कमर में अंगोछा जैसा कुछ लपेटे हुए इनकी ओर आग्नेय नेत्रों से देख रहा है। उसके पीछे कुछ और पुरूष और महिलाओं का गैंग है। उसने दाहिने हाथ मे कपड़े का बना हुआ कोड़ा पकड़ रखा है जिसे वह अब भी हवा में फटकारता जा रहा है।

बड़े पापा घबराकर चारपाई से उठ बैठे। फिर कुछ होश संभालकर और चारपाई के नीचे ऐसे ही किसी मौके के लिए रखी हुई तेल पिलाई और नीचे की तरफ लोहा जड़ी हुई लाठी हाथ मे लेकर ललकारा :-” कौन हो तुम लोग और क्या चाहते हो?”
उधर से कड़कती आवाज़ आई :- “मादर #%द पूरा गांव जाग रहा है और तू रजाई ओढ़ के सो रहा है। चल साले दौड़ते हुए गांव के सात चक्कर लगा।”
बड़े पापा को यह आवाज़ कुछ जानी पहचानी से लगी। वह बोल पड़े:” “अरे फलाने भौजी तुम!! हमीं मिले थे तुमको ठंडी में परेशान करने के लिए??”

लेकिन उन मर्दाना वेश वाली भौजी और उनके पूरे गैंग ने कोई जवाब न दिया। बस एक जोरदार ठहाका लगाया, मानो कि एक काम पूरा हो गया हो। फिर यह गैंग और उसकी लीडर किसी दूसरे शिकार की खोज में जोर जोर से यह गाती हुई निकल गई :-
‘सारे बाराती बराते गए,
अपनी बहिनी के भतरा हियें रहि गए।’

“जागते रहो बहन#@$दों”

Vinay Singh
विनय सिंह बैस

विनय सिंह बैस
गांव-बरी, पोस्ट-मेरुई, जनपद-रायबरेली (उत्तर प्रदेश)

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