महादेवी वर्मा जयंती विशेष…

“बीन भी हूँ मैं तुम्हारी, रागिनी भी हूँ।”
नाश भी हूँ मैं अनन्त विकास का क्रम भी,
पात्र भी मधु भी मधुप भी मधुर विस्मृत भी हूँ;
अधर भी हूँ और स्मित की चाँदनी भी हूँ!”

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। प्रेम-विरह की आध्यात्मपरक गहन अनुभूतियों को सजल-साकार स्वरूप प्रदान करने वाली अमर कृतिकार, जिसमें छायावादी प्राकृतिक तरलता, सरलता, सौन्दर्य-बोधता, विरह-वेदना के अनुसन्धान-शक्ति और रहस्यमय अध्यात्म-साधना रची-बसी हैं, हिन्दी साहित्य की ऐसी ही देदीप्यमान महाविभूति का ही नाम ‘महादेवी वर्मा’ है। महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख कृतिकार स्तंभों में से एक प्रमुख स्तम्भ मानी जाती हैं। इन्होंने आधुनिक हिंदी काव्य में वेदना-करुणा-रस को इस प्रकार से प्रवाहित किया है कि वह अश्रू-विगलित प्रेम-विरह की एक अलग रस-प्रवाहिनी सलिला ही बन गई है। फलतः वह ‘आधुनिक मीरा’ की संज्ञा से विभूषित हुईं और उनके मुँहबोले भ्राता कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी ने तो उन्हें ‘हिंदी के विशाल मंदिर की देवी सरस्वती’ कह कर ही सम्बोधित किया है।

‘हिन्दी के विशाल मन्दिर की देवी सरस्वती’ महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च, 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ था। उनके परिवार में लगभग 200 वर्षों या सात पीढियों के अंतराल पर देवी स्वरूपा किसी कन्या-रत्न का जन्म होने के कारण उनके बाबा बाबू बाँके बिहारी जी हर्ष से झूम उठे और नवजात कन्या को घर की ‘महादेवी’ मानते हुए उसका नाम भी ‘महादेवी’ रखा। उनके पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा संगीत-प्रेमी, हँसमुख, उच्च शिक्षित और भागलपुर के एक कॉलेज के प्राध्यापक थे। उनकी माता हेमरानी देवी बड़ी ही धर्म- परायण, भक्ति-संयत, सद् स्वभाव वाली एक सद् गृहिणी महिला थीं। वह बड़े ही तन्मयता से कबीर, मीरा, सूर और तुलसी के पदों को गाया करती थीं, जिन्हें पास में बैठी बालिका महादेवी तन्मयता से सुना करती थी, जो भविष्य की कवयित्री महादेवी को आस्तिकता के आधार पर दार्शनिक भावनाओं से नित्य समृद्ध करती रही थीं।

महादेवी वर्मा जी की प्रारम्भिक शिक्षा इंदौर में हुई, साथ ही घर पर ही संस्कृत, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा भी दी जाती रही। आठवीं कक्षा में वे राज्य भर में सर्वोत्तम स्थान को प्राप्त की थीं। इसी बीच सन् 1916 में 9 वर्ष की अवस्था में ही इनका विवाह बरेली के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया गया था। पर यह विवाह जैसे बंधन महादेवी की उन्मुक्त स्वभावगत आध्यात्मिकता और रहस्यमय चेतना को रास न आया। उनका वैवाहिक जीवन सफल और सुखमय न हो पाया। फिर परस्पर रजामंदी से इनके पति ने दूसरा विवाह कर लिया। इस प्रकार इनका विवाह-विच्छेद हो गया। उनका जीवन एक संन्यासिनी के जीवन में रूपांतरित हो गया। कालांतर में महादेवी जी ने 1919 में क्रॉस्थवेट कॉलेज, इलाहाबाद में प्रवेश लिया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य-जीवन की शुरूआत की। वे सात वर्ष की बाल अवस्था से ही कविताएँ रचने लगी थीं। “आओ प्यारे तारे आओ, मेरे आँगन में बिछ जाओ।”

महादेवी की यह प्रारम्भिक कविता-कली परवर्तित काल में फिर रचना समस्यापूर्ति से होती हुई निरंतर प्रौढ़ काव्य की ओर बहुत ही द्रुतगति से बढ़ चली। खड़ी बोली में इन्होने सर्वप्रथम गीत ‘दीया’ नामक शीर्षक से रचा था।
‘धूलि के जिन कणों में है न आभा-प्राण,
तू हमारी ही तरह उनसे हुआ वयुमान।
प्रेम का तेल भर जो हम बने निःशोक,
तो नया फैले जगत के तिमिर में आलोक।’
कवयित्री महादेवी वर्मा की बाल्यावस्था के इस प्रथम गीत की कुछ पंक्तियाँ ही ‘होनहार बिरवाँ के होत चिकने पात’ स्वरूप भविष्य की महान कवयित्री की विराट काव्य-चेतना को आभाषित करती हैं।

मैट्रिक की परीक्षा तक महादेवी वर्मा एक सफल कवयित्री के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताओं का प्रकाशन भी होने लगा था। कॉलेज में ही कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। सुभद्रा कुमारी चौहान अक्सर महादेवी जी का हाथ पकड़ कर अपनी सखियों के बीच में ले जातीं और प्रशंसा सहित कहतीं – “सुनो सहेलियाँ! मेरी प्रिय सहेली से मिलो। ये बहुत ही सुन्दर कविता भी लिखती हैं।” सन् 1932 में जब महादेवी वर्मा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एमए पास किया, तब तक उनके दो कविता संग्रह ‘नीहार’ तथा ‘रश्मि’ प्रकाशित हो चुके थे। फिर वह ‘चाँद’ पत्रिका के सम्पादन कार्य करती हुई महिला विद्यापीठ, प्रयाग की प्रधानाचार्या नियुक्त हो गई और फिर कुछ समय बाद ही उस महिला विद्यापीठ की कुलपति आदि सब कुछ बन गईं।

महिला विद्यापीठ के प्रचार्या और कुलपति के दायित्वों को वहन करती हुई भी महादेवी वर्मा अवकाश के काल में आस-पास के गाँव-गाँव, घर-घर घूम-घूम कर सरकार द्वारा उत्पीडित देश-भक्तों के परिजन की हर सम्भव सहायता करती थीं। वह एक सह्रदय समाज-सेविका, अनाथों के आश्रयदाता बनी घुमती फिरती रहती थीं। इस प्रकार से मानवता की सेवा-सहायता करना भी वह अपने साहित्य और साहित्यकार के दायित्वों का एक प्रमुख अंग भी मानती रही थीं। तत्कालीन साहित्य और साहित्यकारों की उन्नति को ध्यान में रखकर उन्होंने सन् 1944 में प्रयाग में ही ‘साहित्यकार संसद’ की भी स्थापना की थीं।

महादेवी वर्मा ने गुलाम भारत के हाहाकार रुदन को प्रत्यक्ष देखा, परखा और उससे कारुणिक होकर उस अंधकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। फिर स्वतंत्र भारत में समाज-सुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतन-भावना को भी समयानुसार जागृत करती रहीं। उन्होंने भले ही अपने स्व-मन की पीड़ा को ही काव्य रूप प्रदान किया हैं, तथापि वह ‘स्व’ से ऊपर उठकर ‘पर’ अर्थात जन-जन की पीड़ा के रूप में ही स्थापित हो गई है।
“तू जल-जल जितना होता कशी,
वह समीप आता छलनामय।
मधुर मिलन में मिट जाना तू,
उसकी उज्ज्वल स्मित में घुल-मिल।
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।”

महादेवी जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
निबंध संग्रह – श्रृंखला की कड़ियाँ, साहित्यकार की आस्था, क्षणदा, अबला और सबला।
संस्मरण और रेखाचित्र – स्मृति की रेखाएँ, अतीत के चलचित्र, पथ के साथी, मेरा परिवार।
आलोचना – हिंदी का विवेचनात्मक गद्य।
काव्य रचनाएँ – सांध्यगीत, नीहार, रश्मि, नीरजा, यामा, दीपशिखा।

महादेवी वर्मा की कविताओं में कल्पना की प्रधानता तो है, परंतु गद्य के क्षेत्र में इन्होंने यथार्थ के धरातल पर रह कर अपनी रचनाओं का सृजन किया है। इनकी भाषा अत्यंत उत्कृष्ट, समर्थ, सशक्त तथा संस्कृतनिष्ठ है। इसके साथ ही चित्रात्मकता, लाक्षणिकता और अभिव्यंजना की प्रधानता इनकी भाषा को एक विशेष आयाम प्रदान करती हैं। इनकी गद्य शैली में मार्मिकता, बौद्धिकता, भावुकता, काव्यात्मक सौष्ठव, व्यंग्यात्मकता तथा चित्रात्मकता गुण सर्वत्र विद्यमान हैं।

हिन्दी साहित्य में महादेवी वर्मा को एक अतुलनीय स्थान प्राप्त है। ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में इन्होंने स्त्रियों की मुक्ति और उत्थान के लिए जिस साहस व दृढ़ता के साथ स्त्रियों के हित-पक्ष में आवाज उठाई हैं और जिस प्रकार तत्कालीन सामाजिक रूढ़ियों की निंदा की हैं, उससे उन्हें ‘नारी मुक्तिवादी देवी’ भी कहा गया है। संसार के अधिकांश जन तो सुख को ही अपने जीवन का साध्य मानकर उसके अनुकूल ही अग्रसर होते नजर आते हैं, परंतु कवयित्री महादेवी वर्मा ‘नीर भरी दु:ख की बदरी’ बन कर पर-दु:ख से द्रवित होकर ‘आधुनिक मीरा’ बन अश्रू-जल से अपने नयनों को भिगोती आजीवन दु:ख की ही हो कर रह भी गईं।
“मैं नीर भरी दुख की बदरी।
विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना यही उमड़ी कल थी, आज चली।”

महादेवी वर्मा के मानस बंधुओ में सुमित्रानंदन ‘पंत’ और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का नाम विशेष रूप में लिया जाता है। ‘निराला’ जी के साथ से उनकी आत्मीयता कुछ अधिक ही थी। उनकी पुष्ट कलाइयों में मुँहबोली बहन महादेवी जी लगभग चालीस वर्षों तक निरंतर राखी बाँधती रहीं। उनकी सेवा-सुश्रुषा यह मुँह बोली बहन ने जिस आत्मीयता से किया है, वह आज की पावन लोक-कथाएँ बनकर समाज में प्रचलित हो गई हैं।

सौन्दर्य को काव्य-साधना और सत्य-शिव को साध्य मानकर अपनी भावना को साहित्य-कला में समन्वित स्वरूप प्रदान करने वाली ‘नारी मुक्तिवादी’ व ‘हिन्दी के विशाल मंदिर की देवी सरस्वती’ महादेवी वर्मा का देहांत 11 सितंबर 1987 को इलाहाबाद में हो गया। पर वह अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी-साहित्य जगत में सर्वदा के लिए अमरत्व को प्राप्त कर लीं हैं। हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अपने अभूतपूर्व योगदान के लिए महादेवी वर्मा चिरकाल तक स्मरणीय रहेंगी। हिंदी साहित्य जगत तथा उसके पाठक गण उनके द्वारा प्रदत्त साहित्यिक श्री- संपदा हेतु सदैव उनका ऋणी ही रहेंगे।
“पर शेष नहीं होगी यह मेरे प्राणों की क्रीड़ा।
तुमको पीड़ा में ढूँढा तुम में ढूँढूँगी पीड़ा।”

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail.com

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