कुरूक्षेत्रः मेरी नजर से
द्वितीय भाग
अनादि आज विफल क्यों?
कुपात्र पात्र हो गया !
अनंत का यूँ अंत हो!
ये बात मानता नहीं,
अभेद का ये भेद यहाँ,
क्या कोई नहीं जानता?
ये लीला ही अनंत है।
अखंड का ये खंड जो,
विचर रहा है इस जहाँ,
न मान उसको दे सका,
न बात उसकी सुन सका।
दुर्योधन है हठी बडा,
या काल उसके सर चढा?
ये बात थी अचरज भरी,
या ये भी एक विधान है,
जो रच रहे मुरारी ही।
या बुन रहे थे माया जाल,
विधान ऐसा रच रहे,
थे पाप उसका गिन रहे,
वो घट रहे थे देखते।
अज्ञानी मद मे डोलता,
था कृष्ण को ही तोलता,
वो बाँधता हवा को था,
वो नापता ब्रह्मांड था।
अजन्म का भी भय नहीं,
हैं संगी एक एक से,
था दंभ उनका कम नहीं,
विचार विदुर कर रहे,
वो मन ही मन मे बोलते-
जो तय किया प्रारब्ध ने,
ये है उसी की बानगी।
जो सामने, वो भाई हैं,
हैं मारने को दौडते,
न देते पाँच गाँव वे,
फसाद को थे मोलते।
अजीब सा ये मोह है,
अजीब सा ये लोभ है,
अजब समय है सामने,
गजब सी हरि की लीला है,
न ज्ञानी आज बोलते,
नीतिज्ञ भय से डोलते,
विनाश इनका तय सा है,
जिसे रचे त्रिलोकी नाथ,
उसकी क्या विसात है।