“कुरूक्षेत्र” मेरी नजर से तृतीय भाग (कविता) : प्रमोद तिवारी

कुरूक्षेत्रः मेरी नजर से

(तृतीय भाग)

है प्राची लाल हो गई,
किरण बेहाल हो गई,
था आज रवि भी दौडता,
वो रथ के अश्व हाँकता,
पहुँच गया कुरूक्षेत्र वो,
इस विकट रण को देखने।

प्रकाश पुंज छोडता,
वो देखता था कर्ण को,
तूणीर के शर थे चमकते,
शरीर घिरा कवच से।

कानों मे कुंडल लटकते,
क्या भव्य सा ललाट है,
क्या दिव्य आभा फूटती,
यही वो कुंती पुत्र है,
जो अंश इस रवि का है।

चलते हैं पवन मंद अब,
अर्जुन के ध्वज को देखके,
हैं बैठे उसपे आज जो,
वो मारूति के लाल हैं,
इसीलिए वे स्नेह से,
न तेज वेग से चले।

थी बात दिव्य कई यहाँ,
इतिहास लिख रहा यहाँ,
नूतन सी लेखनी से ये,
विशालता की न्यूनता,
सभा में बैठे वीरों की,
अभिमान भरी भीरूता।

संजय को दिव्य दृष्टि है,
वो देखता है विकट रण,
अधीर से धृतराष्ट्र को,
सुना रहा विनाश गीत।

हठात कृष्ण देखते,
ये हवा तीव्र क्यों हुई,
ये धूरी बीच विशाल छवि!
थे नेत्र उनके जानते।

है नवयुवा प्रकट वहाँ,
था कृष्ण से वो पूछता,
हे नाथ ये खिलौने ले,
क्यों पांडु पुत्र घूमते?

ये कैसा मायाजाल है!
ये कैसी है विडंबना!
त्रिलोक नाथ हैं खडे,
दुर्योधन करे गर्जना?

ये दृश्य अब न सह्य है,
चरित्र ये असह्य है,
न मारते जो आप अब,
आदेश ही करते जो अब,
मैं छोडता तूणीर से,
अमोघ बाण विष बुझा,
जो हर कुरू को लीलता।

माधव युवक को देखते,
थे मन ही मन मे सोचते,
ये कौन वीरपुत्र है?
ये कौन ओजवान है?
ये कौन ऊर्जापुंज है?

त्रिपुरारी कुछ विकल हुए,
थे लीला साथ मे लिए,
खडे थे पांडुपुत्र सब,
अवाक मुख को देखते।

उसी समय वहाँ खडे,
नटवर समक्ष नत हुए,
थे धर्मराज बोलते,
दुलार से थे देखते,
त्रिलोकी ये तरुण अभी,
न ज्ञान इसको है कोई,
नादान ये न सोचता,
ब्रह्मांण नाथ सामने।

बहक गया है जोश मे,
न ध्यान मे लें बात को,
कृपा करें,कृपा के सिंधु,
अज्ञानी इस बंधु को।

हे नाथ आप जानते,
ये बर्बरीक, भीम पौत्र,
हे नाथ भक्त आपका,
होके विचल ये बोलता,
जो हो गया अपराध कुछ,
तो आप करें मार्जना।

विचारते गिरधारी हैं,
जो सत्य इसकी बात है,
जो इसका बल अपार है,
जो इसने युद्ध कर लिया,
कौरव नहीं टिक पायेंगे,
वे ताश के पत्तों से,
धरा पर पसर जायेंगे।

लीला न होगी फिर यहाँ,
ये लीलाधर विचारते,
न पाप का अंजाम वो धरा को दिखा पायेंगे,
फिर किसलिए ये रण हुआ,
अपना वो हश्र खोयेगा।

तब बोले बर्बरीक से,
जो बात तेरी सत्य है,
हे ! भीमपुत्र,बर्बरीक,
दिखा कोई मिशाल इक,
जो ऐसी विद्या जानता,
तो छेद एक बाण से,
सब पात इस वृक्ष के।

था शर को साधा वीर ने,
मुरारी चाल चल गये,
इक पात तोड वो लिए,
और पैर मे दबा लिए।

बाण था जो चल दिया,
वो बेधता हर पात को,
हरि के पाँव बेधता,
वो बिंध गया उस पात से।

हतवाक से हरि हुए,
नजर पडी फिर चक्र पर,
बे सिर बर्बरीक था,
रूधिर नहाता चक्र था,
थे भीम बुत बने हुए,
अवाक धर्मराज थे,
कोई नहीं था बोलता,
पर हृदय जोर डोलता।

सिर बर्बरीक का हँस उठा,
वो नत नयन से कह उठा,
मैं जानता था नाथ तुम,
न अंत सिर्फ चाहते,
इसीलिए ये युद्ध है,
दुर्योधन बस इक नाम है,
गठित करोगे धर्म का,
विनाश हो अधर्म का,
जो भीष्म काल से चला,
रूकेगा धृतराष्ट्र पर।

न गम मुझे मरण का है,
ना मुझको बिछोह है कोई,
मेरा तरण तो हो गया,
जो मारा दीनानाथ ने,
अरज मगर ये रह गई,
न युद्ध दिख सका तेरा,
जो हो सके दिखाते नाथ,
युद्ध कुरूवंश का,
अर्जुन के तीर देखता,
गदा लिए मैं भीम को,
वो कर्ण,द्रोणाचार्य को,
और गंगा पुत्र भीष्म को।

अधरों पे हास मंद है,
नटवर को ये पसंद है,
वे चोटी एक देखते,
उठाके सर को भेजते,
तू देख इस युद्ध को,
विचार कर महत्व को,
ये युद्ध तेरा था नहीं,
मैं भी न युद्ध रत्त हूँ,
ये युद्ध नव बिहान का,
अधर्म के है अंत का।

प्रमोद तिवारी

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