डीपी सिंह की कुण्डलिया

कुण्डलिया

बोली इक दिन डोर से, आकर तङ्ग पतङ्ग
उड़ना है खुलकर मुझे, छोड़ो मेरा सङ्ग
छोड़ो मेरा सङ्ग, दङ्ग थी डोरी सुनकर
था दिल में सन्ताप, कहा मन में यह गुन कर
कोई कटी पतङ्ग, कहाँ कब किसकी हो ली
एक बार तो हश्र, देख लेती बड़बोली

डीपी सिंह

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