जानिए ‘सेंगोल’ के बारे में

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। ‘सेंगोल’ शब्द की उत्पत्ति तमिल शब्द ‘सेम्मई’ से बताई जाती है, जिसका अर्थ है ‘नीतिपरायणता’, यानि ‘सेंगोल’ को धारण करने वाले पर यह विश्वास किया जाता है कि वह नीतियों का पालन करेगा। यही राजदंड कहलाता था, जो राजा को न्याय सम्मत दंड देने का अधिकारी बनाता था। ‘सेंगोल’, जिसे प्राचीन काल से ‘राजदंड’ के तौर पर जाना जाता रहा है। यह हमारे वैदिक रीतियों में से एक प्राचीन पद्धति है। यह राजदंड सिर्फ सत्ता का प्रतीक नहीं, बल्कि राजा के सामने हमेशा न्यायशील बने रहने और प्रजा के लिए राज्य के प्रति समर्पित रहने की स्थिरता का प्रतीक भी रहा है। राजदंड, ‘सेंगोल’ राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाने का साधन भी रहा है।

हमारे देश के उद्घाटित नवीन संसद में स्थापित ‘सेंगोल’ की यदि ऐतिहासिकता को देखा जाए तो इसका प्रमाण पौराणिक काल से मिलता है। रामायण-महाभारत के विविध कथा-प्रसंगों में भी राजसत्ता हस्तांतरण के समय राजतिलक होना, राजमुकुट पहनाना आदि सत्ता सौंपने के प्रतीकों के तौर पर इस्तेमाल हुआ करता था और इसी के साथ राजा को धातु की एक छड़ी भी सौंपी जाती थी, जिसे ‘राजदंड’ कहा जाता था। ‘महाभारत’ के ‘शांतिपर्व’ एक स्थान पर कहा गया है कि ‘राजदंड राजा का धर्म है, दंड ही धर्म और अर्थ की रक्षा करता है।’

राजसत्ता का हस्तांतरण स्वरूप ‘राजदंड’ ही ‘सेंगोल’ है। इसके ऊपर देवाधिदेव भगवान जी के सेवक नंदी की आकृति है, जो एक गोलक पर विराजमान है। यह सर्वव्यापी, धर्म और न्याय के रक्षक के रूप में माना गया है। इस पर तिरंगे की सुंदर नक्काशी भी है। इसकी लंबाई पाँच फिट है। यह चाँदी धातु से पूर्ण निर्मित है, जिस पर सोने की परत लगाई गई है। इस पर तमिल में वेद शब्द अंकित हैं।

राजसत्ता के हस्तांतरण परंपरा में उसके पूर्व राजा, नए बने राजा को ‘सेंगोल’ सौंपता था। यह ‘सेंगोल’ राज्य का उत्तराधिकार सौंपे जाने का जीता-जागता प्रमाण हुआ करता था और राज्य को निरपेक्ष न्यायोचित ढंग से चलाने का निर्देश भी दिया करता था। कालांतर में मौर्य सम्राटों (३२२-१८५ ईo पू०) द्वारा भी अपने विशाल साम्राज्य पर अपने अधिकार को दर्शाने के लिए प्रतीकात्मक ‘राजदंड’ स्वरूप ‘सेंगोल’ का प्रयोग होने की जानकारी मिलती है। फिर यह राज हस्तांतरण परंपरा गुप्त सम्राटों (३२०-५५०) से होती हुआ चोल साम्राज्य (९०७-१३१० ईस्वी) और फिर विजयनगर साम्राज्य (१३३६-१६४६ ईस्वी) के इतिहास में भी व्यवहृत रही है।

बाद में अपने देश की आजादी के साथ जुड़ा हुआ है। जब हमारा देश आजाद हुआ, तब तत्कालीन अंग्रेज वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने स्वतंत्र भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर १४ अगस्त १९४७ की मध्य रात्रि में ‘सेंगोल’ को प्रदान किया था। परंतु बाद के दिनों में हमारी आजादी का प्रतीक ‘सेंगोल’ किसी अंधेरे कोने में खो गया, या कहा जाए की इसे वर्तमान प्रयागराज शहर में स्थित ‘आनंद भवन’ में किसी की निजी संपति बन कर रह गया था। बाद में उसे ‘आनंद भवन’ से भी हटा कर प्रयागराज संग्रहालय में भेज दिया गया था। जहाँ वह किसी कोने में पड़े धूल-गरदे फाँकने लगा था।

नए संसद भवन के निर्माण के साथ ही भारत की सुदृढ़ता व भारतीयता और भारतीय संस्कृति के आग्रही हमारे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी को देश की आजादी के प्रतीक ‘सेंगोल’ के प्रति स्मरण आया और उन्होंने उसकी सुध लेते हुए उसकी विशद खोज कारवाई । पूरी तरह से जाँच-परख करवाने के बाद उसके मूल निर्माता संस्था चेन्नई के Vimmudi Bangaru Chheti Jewellers के अपने हाथों से निर्मित करने वाले आज भी मौजूद ९६ वर्षीय विमुदीएथिराजूलु से उसकी बारीकी से मरम्मत करवाया गया और फिर उस ऐतिहासिक ‘सेंगोल’ को विद्व ब्राह्मणों-संतों के पावन आशीर्वाद के साथ २८ मई, २०२३ को नव-निर्मित संसद भवन में सम्मानीय स्थान पर सादर स्थापित कर दिया गया। इस प्रकार सिर्फ एक ‘सेंगोल’ को नहीं, वरन हमारी विलीन हुई सांस्कृतिक परंपरा, ऐतिहासिक धरोहर ससम्मान हमें प्रदान किया गया।
क्या आपको गर्व अनुभव नहीं होता है!

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

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