‘डार डार पर बोले कारी कोयलिया, रूत आ गई वसंत की सारी डगरिया’

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। आज ही एक हरितिमा युक्त साधारण-सा कृत्रिम शहरी बाग में प्रातः काल भ्रमण के दौरान अचानक बहुत पास से कानों में एक कोयलिया की कर्ण प्रिय ‘कुहू’-’कुहू’ की मधुर ध्वनि सुगमता से प्रवेश कर गई। तत्क्षण नजरें ध्वनि की दिशा की ओर उन्मुख हुईं, पर वह कोयलिया तो अपने स्वभावानुकूल किसी नवेली दुल्हन की भाँति ही शायद शरमा कर पास के ही एक आम्र पेड़ की गहरी हरीतिमा युक्त धानी में जाकर अपना चेहरा छुपा ली। फिर ‘कुहू’-’कुहू’ की वही मधुर आवृति, लेकिन उसकी ‘कुहू’-‘कुहू’ में कुछ व्यग्रता अभिव्यक्त हो रही थी। कुछ ही पल में उसके प्रत्युत्तर में थोड़ी ही दूर से उसी तरह ‘कुहू’-‘कुहू’ की ध्वनि सुनाई पड़ी। पर इस ‘कुहू’-‘कुहू’ की मधुरता में पूर्व से कुछ बारीकी अंतर अवश्य ही रही। शायद उसका कोई प्रिय साथी रहा हो, जो अपनी उपस्थिति को दूर से ही आभासित कर रहा हो और फिर उन दोनों की मधुर ‘कुहू’-‘कुहू’ उस छोटी-सी शहरी बगिया में अपनी उपस्थिति से हमें अवगत करवाकर ऋतु वसंत के आगमन की मधुर सूचना दे दी, मन गुनगुनाने लगा।

डार डार पर बोले कारी कोयलिया,
डार डार पर बोले कारी कोयलिया।
रूत आ गई वसंत की सारी डगरिया,
कलीयन को लख हरसे मोर जिया।

वैसे भी सुरम्य ग्रामीण अंचल के खेतों में कमर भर ऊँचाई पर लहराते सरसों के खिले हुए पीले स्वर्णिम फूल, नीचे उनके पायदानों में ही तीसी के चमकते नीलम के समान नीले फूल और मसूर के नीलापन युक्त श्वेत छोटे-छोटे मणि पुष्प अपने सौन्दर्य से समग्र वातावरण में ही वसंत ऋतु के आगमन का भरपूर आभास कराने पर तुले हुए रहते हैं। पर हम शहर वासियों को आडंबर के ताम-झाम में उस ओर ध्यान ही कहाँ रहता है? कब शीत गया? कब पतझड़ गया? कब वसंत आया? कब ग्रीष्म और कब पावस आएगा?

खेत-खलिहानों से दूर हम तो सरस्वती पूजा या वसंती पूजा से ही जाने-अनजाने में वसंत ऋतु के आगमन को मान लेने के आदि हो चुके हैं। पर इस संयुक्त मधुर ‘कुहू’-‘कुहू’ ने तो मन के दरवाजे पर दस्तक दे रहे वसंत ऋतु से परिचय करवा ही दिया। बड़ा प्यारा लगा। सुबह होते ही शहरी वातावरण में विषैले धुएँ को घोलती विभिन्न गाड़ियों की शोर-गुल, नली-नालों के सड़ाईन दुर्गंध से तो कहीं अधिक प्यारा लगा ही।

इसके पूर्व वसंत ऋतु के आगमन का आभास होता भी तो कैसे? वसंत के सूचक कोयल की ‘कुहू’-‘कुहू’ तथा रंग-बिरंगे पुष्प-दलों से सामना ही कहाँ हो पाया था? आस-पास के चतुर्दिक जन-संकुल क्षेत्र तो अनगिनत गगनचुंबी आवासीय इमारतों से परिपूर्ण हैं। गलियाँ और मुहल्ले, विभिन्न दुकानों, हाकरों, विषैले धुएँ छोड़ते यान-वाहनों और उनसे संबंधित ग्राहकों से बारहों मास परिपूर्ण ही रहता हैं। कब सुबह हुई, कब दोपहर और कब रात हुई? पता ही कहाँ चलता है। अपने आप को तथाकथित आधुनिक ‘अड्वान्स’ या सभ्य कहलाने की प्रतिस्पर्धा में हम लोगों ने अपनी गली-मुहल्ले में एक भी हरे पेड़-पौधे को छोड़ा ही कहाँ है! जहाँ चिड़ियों की तनिक चहचहाट ही सुनाई दे देवे। एक इंच भी जगह छोड़ देना या न हथिया लेना, तो हमारी शान व अस्मिता के खिलाफ की ही बात बन जाती है। हरियाली के नाम पर फ्लैट के सौ-डेढ़ सौ स्क्वायर फीट की दीवारों पर ही हरे रंग के कुछ चित्र अंकित दिखाई पड़ जाते हैं। आठ बाई दस के कमरे में भला आदमी खुद अपने परिजन के संग रहेगा या फिर पेड़ पौधों को रखेगा? खिड़की पर किसी तरह से एक-आध छोटे पौधों को लगाकर अपने करीब हरीतिमा का अभिमान कर ही व्यक्ति संतुष्ट हो जाया करता है।

तो उन कोयलियों की मधुर ‘कुहू’-‘कुहू’ ने मेरी उत्सुकता को और भी जागृत कर दी। उन कोयलियों की ‘कुहू’-‘कुहू’ की मधुर ध्वनि को पीछा करती प्यार भरी मेरी नजरें अपने चतुर्दिक फैले प्रकृति का अवलोकन करने लगीं। छोटे-छोटे पौधों से लेकर कुछेक बड़े पेड़ भी वसंत ऋतु के स्वागत में नहा-धो कर नवीन किसलय-वस्त्रों को धारण कर तैयार खड़े और बहुत ही सुंदर लग रहे है। बहुत बड़े तो नहीं, परंतु रंगीन छोटी-छोटी तितली-वत्स इधर-उधर बेवजह उड़ते और जहाँ-तहाँ बैठते हुए आसक्ति के प्रेम-तन्तु को झंकृत करते प्रतीत हुए। मानों सभी पादप-पुंज व चराचर ऋतु वसंत के आगमन हेतु सज-धज कर प्रस्तुत हैं। आँखें और भी विस्मित तथा प्रफुल्लित हुईं, क्योंकि वसंत तो चुपके-चुपके किसी करीबी रिश्तेदार की भाँति कब से ही घर में पैठकर पसर चुका है और हम हैं कि उसके आगमन की प्रतीक्षा में घर के बाहर सड़कों पर ही अपनी आँखें बिछाए बैठे हुए हैं।

शायद इंसानी धूर्तता को प्रकृति भी अनुकरण करना सिख गई है। समय सबको अपने स्वरूप में ढाल ही लेता है। जो न ढल पाने की जिद पर अड़ कर बैठ जाता है, समय उसे दर-किनारे कर देता है। फिर वह रस-प्राणहीन होकर हमेशा के लिए मुरझाकर सुख जाता है। जरूरी भी है। समय ने अनगिनत हठधर्मियों को टूटते हुए दिखाया है। उसी क्रम में मेरी नजरें पास के ही रसाल वृक्ष के फूंगियों पर सरसों के दाने के समान कलियाँ युक्त मंजरियों पर जा पहुँची। कितनी मनमोहक लग रही हैं। आम्र-मँजारियों के इन छोटे-छोटे दानों के समान कलियों में कैसे रसाल के बड़े-बड़े रसदार मधुर सुस्वादु फल समाए हुए हैं! अद्भुत ईश्वरी रचना है। कहाँ कोई समझ पाया है?

चतुर्दिक वायु तरंगों में तैर रहे पुष्पों के संसर्ग से सुवासित सौरभ तन-बदन से लेकर अन्तःकरण को भी सुवासित करने लगा है। ऐसे में ही तो कामदेव के मधु-रस से विभोर छोड़े गए पुष्प-बाण से देवगण के आहत हृदय में प्रेमासक्ति भाव का संचार हो ही जाया करता था। फिर जहाँ समस्त चराचर वसंत के कमनीय बाण से विदीर्ण हैं, वहाँ चंचल मानव मन भला कैसे संयमित रह सकता है? फलतः रह-रह कर मन में वसंती गीत की पंक्तियों की आवृत हो जाना स्वाभाविक ही है।
‘मह-मह-मह डाली महक रही,
कुहु-कुहु कोयल कुहुक रही।
गुन-गुन-गुन भौंरे गूँज रहे,
सुमनों-सुमनों पर घूम रहे।’

प्राकृतिक सौन्दर्य की आभा समस्त चरचरों पर भी स्पष्ट दिख रहा है। किनारे पर पड़े घासों की ढेरी पर छोटे-छोटे हृष्ट-पुष्ट पिल्ले परस्पर गुर्राते हुए एक-दूसरे से लड़ने की बाल-क्रीड़ा में मग्न हैं और उनके पास में बैठी उनकी मातृ-कुतिया वात्सल्य भाव से परिपूर्ण बाल सुख-सम्पदा की अपरिमित धन-राशि को संचय करने में तल्लीन है। पास की दीवार से कुछ बाहर निकले एक छोटे-से छज्जे पर कबूतर-कबूतरी दोनों परस्पर प्रेमातिरेक में दुनियादारी भूले हुए हैं। पर आज इस सुरभित वसंती प्रभात-बेला में ये सब कुछ कितने मनोरम लग रहे हैं! कह पाना शब्दों से परे ही है।

पर भाव-विचार पर विज्ञान ने अचानक हमला कर दिया, मस्तिष्क के सारे नियोजित तन्तु टूट गए। मोबाईल के ‘कॉल-रिंगटोन’ ने वसंत ऋतु के अवलोकन व मनन में खोए दृष्टि-मन को जबरन अपनी ओर खींच कर दुनियादारी के निर्मम जाल में उलझा ही दिया। विज्ञान ने सब जगह अपनी पहुँच बना ली है। क्या मजाल है कि उससे कोई अपना मुख मोड़ लेवें। संभव ही नहीं है।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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