प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”, लखनऊ । ‘लिखना’ और वैसा ‘होना’ दो अलग बातें हो सकती हैं, बल्कि ज्यादातर होती ही हैं। अगर इस बात को मानने के लिए अपने मन को तैयार नहीं कर सकते, तो बार-बार ठोकर खाते रहेंगे। जहाँ-जहाँ भी जिस-जिस रूप में ताकत है, वहाँ-वहाँ शोषण की पूरी गुंजाइश है। शब्द शक्तिशाली होते हैं। शब्द अपने आप में शोषक नहीं होते, मगर उन्हें लिखने वाला जरूर हो सकता है। लेखन, आपको ताकत देता है। ताकत एक सुविधा है। सुविधा, अवसर प्रदान करती है। अवसर, शोषण से उपजे सुख को प्राप्त करने का माध्यम है और, मनुष्य मूलतः सुखवादी होता है।
किसी का किसी से प्रभावित होना एक सामान्य सी बात है। शायद, पूरी तरह से किसी से भी अप्रभावित रहना असंभव है। कलाएँ, शीघ्रता से प्रभावित करती हैं। लेखन, एक कला है, और लेखक, कलाकार। यथासम्भव, खुद के प्रभावित होने को लेखन तक ही सीमित रखें। लेखक से प्रभावित होने से बचें। यदि हो भी जाएँ तो उसे कभी ऐसा एहसास न कराएँ कि आप उससे प्रभावित हैं। क्योंकि जैसे ही आप सामने वाले को उसके सुपीरियर होने का एहसास कराएंगे, बहुत मुम्किन है कि उसी क्षण उसके अंदर शोषक बनने के बीज पनपने शुरू हो जाएँ। सीधी सी बात है। जब आप किसी को बड़ा मान लेंगे, तो वह आपको छोटा समझने ही लगेगा।
आप मनोविज्ञान से पल्ला झाड़ सकते हैं, मगर मनोविज्ञान आपसे पल्ला नहीं झाड़ता। फेसबुक से बाहर की दुनिया हो या फेसबुक की दुनिया, आप पूरी तरह विरक्त नहीं रह सकते। भले ही आप किसी विषय विशेष में निर्लिप्त हों, मगर तब भी इस बात की गैरन्टी नहीं है कि वह विषय आपको अछूता छोड़ देगा। चीजें अंतर्संबंधित होती हैं। आप आँखें मूँदकर रात होने का भ्रम नहीं पाल सकते। व्यक्तियों के मनोव्यवहारों के प्रति आपको सचेत रहना पड़ेगा, साथ ही खुद के मनोव्यवहारों के प्रति भी। कोई क्या करता है, क्यूँ करता है, इन सब का एक पैटर्न खोजना पड़ेगा।
अक्सर आपकी हाँ में हाँ मिलाने वाले लोगों से सावधान रहिये। तुष्टीकरण करने वाला व्यक्ति किसी का सगा नहीं होता। जो आज आपके साथ मिलकर किसी और का तमाशा देख रहा है, कल को किसी और के साथ मिलकर आपका तमाशा देख रहा होगा।
“किसी पर अंधा विश्वास मत कीजिये, अपने आप पर भी नहीं”!
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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