साक्षात्कार : बाधाएँ कब रोक सकीं हैं आगे बढ़ने वालों को

बिनय कुमार शुक्ल, कोलकाता। मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहीं लिखा है
“जितने कष्ट-संकटों में है
जिनका जीवन-सुमन खिला,
गौरव-ग्रंथ उन्हें उतना ही
यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला।”
इतने लंबे शीर्षक को देखकर आप के मन में एक हलचल हुई होगी, जिज्ञासा उत्पन्न हुई होगी कि आखिर मैंने यह क्या लिख दिया, किंतु आज मैं जिस विषय पर बात करने जा रहा हूँ; उस विषय के लिए मुझे यही, और यही एक मात्र उपयुक्त शीर्षक लगा। मैं आज बात करने जा रहा हूँ रवि कहर से, जो मूलतः उत्तर प्रदेश महोबा के रहने वाले हैं, उनका वर्तमान निवास दिल्ली है और इन दिनों इनकी नियुक्ति कर्मचारी राज्य बीमा निगम (कलकत्ता) में हुई है। रवि कहर दृष्टि-दिव्यांग व्यक्ति हैं, जो हिंदी में कविता, कहानी एवं नाटक लिखते हैं, साथ ही ये मोबाइल तथा कम्प्यूटर के माध्यम से लगभग वे सभी कार्य कर लेते हैं, जो आप और हम कर सकते हैं। आज हम इन से जानेंगे कि इस स्तर तक पहुँचने के लिए इन्होंने क्या-क्या संकट झेलें हैं या किन विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए यहाँ तक पहुँचे हैं। हमारा यह साक्षात्कार सब के लिए एक प्रेरक प्रसंग सिद्ध होगा। आइये आरंभ करते हैं :-

मैं : रवि जी कृपया अपने बचपन एवं परिवार के विषय में कुछ बताइए।
रवि : सर्वप्रथम तो आप सहित सभी पाठकों को मेरा सादर प्रणाम! नमस्कार तथा हृदय की अथाह गहराइयों से स्नेहवंदन! मैं मूलतः उत्तर प्रदेश के महोबा जिले के कबरअई ग्राम से हूँ और बड़े भाई साहब के कारण हमारा परिवार दिल्ली आया था। मैं एक बेहद ग़रीब परिवार से हूँ, जहाँ हर चीज़ के लिए अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता था। मैंने अपने पिताश्री सहित अपनी माताश्री को घरों में वेतन पर काम करते हुए देखा है। उन्हें मासिक वेतन 300 रुपये मिला करता था। हमारे परिवार ने जीवन में एक दौर ऐसा भी गुज़ारा है, जब रोटी के साथ कभी-कभी दाल-सब्जी नहीं होती थी।

जब कभी ऐसा होता था, तब हम सिलबट्टे पर बँटी हुई लहसुन-प्याज की चटनी अथवा पानी में नमक-लहसुन घोलकर रोटी खा लिया करते थे। हमारे पास इतने भी पैसे नहीं हो पाते थे कि 2-4 जोड़ी नए कपड़े खरीदकर पहन पाते, माताश्री जहाँ काम करती थी, वहाँ से कभी-कभी अच्छे कपड़े मिल जाते थे, जिन्हें पहनकर हम बहुत ख़ुश होते थे। आज जब मैं उन दिनों को याद करता हूँ, तब हृदय रोमांच से भर उठता है। उस ग़रीबी में भी बहुत ख़ुश रहा करते थे हम सभी। माता-पिता काम पर चले जाते थे, मैं और मेरे मंझले भाई साहब गिल्ली-डंडा, तीर-कमान, गुलेल, रस्सी वाला लट्टू और कंचे आदि खेला करते थे।

मैं : मैं थोड़ा-सा आप को रोक कर पूछना चाहता हूँ कि क्या आप जन्म से ही दृष्टि-दिव्यांग हैं या बाद में किन्हीं अन्य कारणों से ऐसे हुए हैं?
रवि : जी, मैं जन्म से दृष्टि-दिव्यांग नहीं हूँ, बचपन में मुझे आप की ही भाँति दिखाई देता था, किंतु लगभग 3 वर्ष की आयु में सफेद मोतियाबिन्द और उसी दौरान छोटी चेचक से पीड़ित हो गया था। इन दोनों बीमारियों के कारण मेरे आँखों की रोशनी चली गई। बाद में परिवार काम के लिए नोएडा सेक्टर चालिस में एक सिक्ख परिवार के यहाँ रहने लगा। वहाँ सरदार जी ने मेरी आँखों का ऑपरेशन करवाया। इस ऑपरेशन का सारा खर्चा उन्होंने ही उठाया। ऑपरेशन के बाद मुझे काफी दिखने भी लगा था। फिर कुछ वर्षों के पश्चात विद्यालय में खेलते समय सर पर चोट लग जाने से अत्यधिक खून बह जाने के कारण मिली हुई रोशनी भी जाती रही।

मैं : किस्मत का खेल भी बड़ा विचित्र है। जानकर बेहद दुख हुआ। अब आप हमें अपनी शिक्षा-दीक्षा के विषय में बताइए।
रवि : जी, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। मुझे दिखता होता, तो शायद मैं इतना पढ़-लिख न पाता और शायद यहाँ तक भी न पहुँच पाता। मैं दृष्टि-दिव्यांग हूँ, मुझे कोई खेद नहीं है, अपितु मैं इस स्थिति के लिए भी ईश्वर का कोटि-कोटि धन्यवाद देता हूँ। मेरी शिक्षा सन् 1999 में नर्सरी कक्षा से आरंभ हुई। मैं लाल बहादुर शास्त्री मार्ग नई दिल्ली 110003 पर स्थित जे.पी.एम. सीनियर सेकेन्ड्री स्कूल फ़ॉर द ब्लाइंड में पढ़ा, जहाँ सभी विद्यार्थी दृष्टि-दिव्यांग थे तथा शिक्षक-शिक्षिकाएं दृष्टिवान एवं दृष्टि-दिव्यांग अर्थात् दोनों तरह के थे। इसे ब्लाइंड रिलीफ़ असोशिएशन नामक निजी संस्था तथा सरकार के सहयोग से चलाया जाता है। मेरे मन में आरंभ से ही यह बात थी कि मुझे कुछ अलग करना है और माता-पिता का नाम रोशन करना है।

दरअसल, मैं अपनी माताश्री से बचपन में एक गाना बहुत सुना करता था, “तुझे सूरज कहूँ या चंदा; तुझे दीप कहूँ या तारा, मेरा नाम करेगा रोशन; जग में मेरा राजदुलारा।” बाद में यह मेरा उद्देश्य बन गया और मैं पूर्ण तल्लीनता के साथ कक्षा में सब कुछ याद करने लगा। मैं कक्षा में अक्सर प्रथम स्थान पर रहा तथा बाद में विद्यालय के प्रमुख विद्यार्थियों में भी गिना जाने लगा। कक्षा 7 से मैंने कविताएं लिखना आरंभ किया तथा कक्षा 8 से नाटक और कहानी। हालाँकि अभी कोई किताब नहीं छपी है, किंतु कुछ वर्षों में छप जाएगी। मैं कक्षा में प्रथम स्थान पाने के अतिरिक्त स्वरचित कविता-पाठ, भाषण, वादविवाद, एकल श्लोक, शतरंज तथा लेखन-पठन प्रतियोगिताओं में भी प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय स्थान प्राप्त करता रहा हूँ।

मैं : अच्छा यह बताइए कि आप लिखते-पढ़ते किस तरह से रहे हैं?
रवि : मेरी विद्यालयी शिक्षा ब्रेल लिपि में हुई। ब्रेल लिपि बिंदुओं पर आधारित है, जिसे अंगुलियों से छूकर पढ़ा जाता है। दरअसल, जैसे आप दृष्टिवान जन अक्षरों को नेत्रों से देखकर पढ़ते हैं, ठीक उसी तरह हम दृष्टि-दिव्यांग जन उन्हीं अक्षरों को ब्रेल के माध्यम से छूकर पढ़ते हैं। ब्रेल लिपि में सामान्य वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर को एक निश्चित ब्रेल नंबर प्रदान किया गया है, जिसे पहले अक्षरों के साथ याद करना होता है तथा फिर उन्हें छूकर पहचानना सीखना पड़ता है एवं तत्पश्चात उन्हीं अक्षरों को स्लेट पर लिखकर पहचानना भी होता है। विद्यालयी शिक्षा ब्रेल की किताबों से ही पूर्ण हुई तथा महाविद्यालयी शिक्षा ऑडियो रिकॉर्डिंग के माध्यम से। मैं विद्यालय में कार्यक्रमों तथा वार्षिकोत्सव का मंच-संचालन भी किया करता था तथा कक्षा 9 में मुझे कविसम्मेलन में प्रथम बार कविता-पाठ करने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ था।

मैं : वाह! आप के विषय में इतना कुछ जानकर अत्यंत हर्ष का अनुभव हो रहा है और मुझे अपना शीर्षक भी एकदम सार्थक लग रहा है। अब आप अपने महाविद्यालयी काल के विषय में बताइ। कैसे रहे आप के अनुभव?
रवि : सन् 2012 में कक्षा 12वीं पास करने के पश्चात यह परेशानी थी कि यूनिवर्सिटी में कैसे दाखिला होगा, फ़ीस के लिए पैसे कहाँ से आएंगे और रहने का ठिकाना कहाँ होगा? दिन गुज़रे; समय बीता और 12वीं का परीक्षा-परिणाम भी आ गया। मुझे अपेक्षा से कम अंक प्राप्त हुए, जिन्हें मैंने साथ बिठाकर पढ़ाया-समझाया था, उनके कुछ विषयों में मुझसे अधिक अंक आए। हम सब ने जून की गर्मी में भटकना आरंभ कर दिया और जो भी फ़ॉर्म भरने की प्रक्रियाएं थीं, उन्हें पूर्ण किया। पहले मुझे दिल्ली यूनिवर्सिटी का श्री वेंकटेश्वर कॉलेज मिला, जिसकी फ़ीस भी अधिक थी और वह दूर भी था।

मैंने रिस्क लेते हुए उसे छोड़ दिया। फिर मुझे जाकिर हुसैन कॉलेज मिला, उसे भी मैंने कुछ समस्याओं के कारण छोड़ दिया। कुछ दिनों पश्चात मुझे पता चला कि हिंदु कॉलेज में हिंदी ऑनर्स में 1 सीट रिक्त है और मुझे जाकर प्रयास करना चाहिए। मैं वहाँ गया, हिंदी की प्राचार्या जी ने मेरा साक्षात्कार भी लिया, किंतु अंत में उन्होंने पूछा, “बेटा, आप के हिंदी में नंबर कितने हैं?” मैंने बताया, “जी 73 हैं।” तब उन्होंने कहा, “सॉरी बेटा, यहां तो 75 पर भर्ती है, आप इसके लिए योग्य नहीं हैं।” मुझे बड़ा दुख हुआ, क्योंकि मैंने आधे घंटे तक सभी प्रश्नों के सभी उत्तर बिल्कुल ठीक दिये थे और फिर वह कॉलेज यूनिवर्सिटी का एक मुख्य कॉलेज भी था और आज भी है। कुछ दिनों में मुझे फिर पता चला कि हिंदु कॉलेज में बी.ए. प्रोग्राम में 1 सीट रिक्त हुई है, मैंने प्रयास किया और मुझे भर्ती के लिए पर्ची प्राप्त हो गई।

अब समस्या थी कि फ़ीस के 900 रुपये कहाँ से आएं, क्योंकि घर से प्राप्त रुपये मैंने आने-जाने में खर्च कर दिये थे तथा प्रतियोगिताओं में प्राप्त राशि भविष्य के लिए कभी सुरक्षित नहीं की थी। तब मैंने अपने विद्यालय के सीनियर आदरणीय हरीश गुलाटी सर से अपनी समस्या बताई और उन्होंने मेरी सहायता की। उसके पश्चात मैंने हिंदु कॉलेज में प्रवेश लिया। मेरा कॉलेज समय भी बहुत संघर्षों से भरा रहा, क्योंकि आने-जाने में बहुत समय लगता था तथा घंटों बस की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। कई बार तो खाने के लिए अधिक रुपये न होने के कारण बस चाय-मट्ठी से ही काम चलाना पड़ता था। हाँ, कॉलेज में सहपाठियों का अच्छा सहयोग रहा, सभी प्राचार्य-प्रचार्याओं की भी पूर्ण सहायता मिली। कुल मिलाकर वे 3 वर्ष हँसते-हँसते गुज़र ही गए।

मैं : क्या बात है रवि जी! आप के विषय में जानकर तो सच में अत्यंत आनन्द का अनुभव हो रहा है। अब हम साक्षात्कार के अंतिम चरण पर चलते हैं। अब आप यह बताइ कि आप ने मोबाइल तथा कम्प्यूटर में दक्षता कैसे और कहाँ से अर्जित की तथा यहाँ तक आने में आप का सफर कैसा रहा?
रवि : कम्प्यूटर तो हमारे विद्यालय में कक्षा 6 से पढ़ाया जाता था। हम दृष्टि-दिव्यांग जन कम्प्यूटर को स्क्रीन रीडर सॉफ़्टवेयर के माध्यम से संचालित करते हैं। इसी तरह मोबाइल में भी ऐसे ऐप्लीकेशन होते हैं, जो स्क्रीन की रीडिंग करते हैं। जो कुछ भी स्क्रीन पर आता है, उसे स्क्रीन रीडर बोलता है अर्थात रीड करता है। विश्व की लगभग सभी भाषाएं स्क्रीन रीडर के लिए आज उपलब्ध हैं, बस इसके लिए हमें अपना मस्तिष्क प्रयोग में लाना होता है। मैंने सन् 2017-2018 में देहरादून में राजपुर रोड स्थित एन.आई.वी.एच. (जो अब एन.आई.ई.पी.वी.डी. है।) से शॉर्ट-हैंड का प्रशिक्षण प्राप्त किया, जहाँ मुझे हिंदी टाइपिंग सीखने को मिली तथा कुछ अमूल्य रिश्ते प्राप्त हुए, जिन में मेरे शिक्षक तथा कुछ सुमित कुमार जैसे अनन्य मित्र भी हैं।

रही बात यहाँ तक के सफर की, तो यह भी अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा। कॉलेज के पश्चात सन् 2015 में मैं प्रेम में असफल होने के कारण 6 मास तक अवसाद (डिप्रेशन) का शिकार रहा, उसके पश्चात कुछ मित्रों तथा शुभचिंतकों के समझाने पर अपना इलाज करवाया। लगभग 6 मास दवा चली तथा उसके पश्चात मैंने वोडाफोन, आइडिया, रिलाइंस लोन आदि कंपनियों में कम वेतन पर कार्य किया और फिर जिओ के आ जाने से मार्केट डाउन होने के कारण मैंने शॉर्ट-हैंड के लिए परीक्षा दी, चयनित हुआ तथा उसके पश्चात 2019 में मथुरा में फरह स्थित एक निजी दृष्टि-दिव्यांगों हेतु विद्यालय (लुई ब्रेल दृष्धिबाधितार्थ संस्थान) में जुलाई से फरवरी तक अर्थात 8 माह शिक्षण का कार्य किया। 2016 से 2019 तक बैंक पी.ओ. की कई परीक्षाएं दी, किंतु असफल रहा। सन् 2018 में आई.बी.पी.एस. पी.ओ. में मैंने साक्षात्कार भी सफलता पूर्वक पास किया, परंतु अलॉटमेन्ट-लिस्ट में 0.83 अंक से रह गया। उस असफलता के पश्चात मैंने ई.एस.आई.सी. एम.टी.एस. की परीक्षा पास की और आज आप के सामने हूँ।

मैं : वाह!-वाह! रवि जी। कमाल है! इतना संघर्षपूर्ण जीवन तथा आप का साहस सच में प्रेरणा का स्रोत है। अंत में आप संक्षेप में कुछ कहना चाहेंगे?
रवि : बस इतना ही कि हमें जीवन में कभी भी घबराना नहीं चाहिए, हमें हर स्थिति से डटकर सामना करना चाहिए तथा यदि कुछ खो जाए अथवा जो आप पाना चाहें और वह आप को न मिले, तो कभी निराश न हों, अपितु यह सोचें कि ईश्वर ने आप के लिए कुछ और अधिक अच्छा सोच रखा होगा। यक़ीन मानिए, आप के जीवन में सब अच्छा होता चला जाएगा। आप सब से यह भी कहना है कि आप जीवन में किसी भी मोड़ पर हों, पुस्तकें पढ़ना न छोड़ें। विशेष तौर पर आत्मकथाएं तथा जीवनियाँ। बड़ों को सम्मान दे, बराबर वालों से मित्रवत व्यवहार बनाए रखें तथा अपने से कम उम्र वालों को भरपूर स्नेह दें। अंतिम बात यह कि ईश्वरवादी रहें, किंतु अंधविश्वासी न बनें, सब की सहायता करें। यक़ीनन ईश्वर आप की सहायता करेंगे या यह समझिये कि प्रकृति की सकारात्मक ऊर्जा आप का हित साधेगी।

(भेंट वार्ता का यह अंश रवि जी ने अपने कंप्यूटर पर टाइप करके मुझे व्हाट्सप्प पर भेजा है)

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