Img 20231015 152207

शादी-ब्याह जैसे शुभ अवसरों में हम अपने परिवारजनों, रिश्तेदारों और इष्ट मित्रों के अलावा अपने पूर्वजों को भी आमंत्रित करते हैं

रायबरेली। मुझे याद है विवाह के एक सप्ताह पहले से ही परिवार की महिलाएं रोज शाम को एकत्रित होकर अपने पूर्वजों को कुछ इस तरह आमंत्रित करती हैं –
शारदा सिंह हो तुमहू नेवाते,
हौंसिला सिंह हो तुमहू नेवाते।
जोखू सिंह हो तुमहू नेवाते।

वस्तुत: भारतीय संस्कृति में स्थूल शरीर के अतिरिक्त एक सूक्ष्म शरीर भी स्वीकार किया गया है, जो मृत्यु के बाद भी नष्ट नहीं होता। मान्यता है कि पितर इसी सूक्ष्म शरीर से पूजन और तर्पण को ग्रहण करते हैं।

हमारे यहां किसी परिजन की मृत्यु हो जाने पर तीसरे वर्ष उसका श्राद्ध किया जाता है और उसका पिंडदान करके पितरों में मिला दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि ऐसा नहीं करने पर पितरों की आत्मा भटकती रहती है। पिंडदान या श्राद्ध करने के बाद ही पितरों को जलांजलि दी जा सकती है और उन्हें शुभ कार्य में आमंत्रित किया जा सकता है।

श्राद्ध कर्म के विधान संपूर्ण मानवता को समर्पित है। पूर्वजों की स्मृति में दिया गया दान किसी भूखे का पेट भर सकता है। किसी जरूरतमंद की जरूरत बन सकता है। यही पितृपक्ष की सार्थकता है।

इन्हीं विशिष्ट कारणों से “सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का उद्घोष करने वाली भारतीय संस्कृति दुनिया की सबसे विलक्षण संस्कृति है। इसका लोहा इसको मिटाने का ख्वाब देखने वाले आक्रांता अपने दुर्दिन में ही सही लेकिन मानते जरूर हैं। तभी तो किले में अपने कुपुत्र द्वारा कैद शाहजहां, अत्याचारी औरंगजेब को लिखे पत्र में कहता है :-
“ऐ पिसर तू अजब मुसलमानी,
ब पिदरे जिंदा आब तरसानी।
आफरीन बाद हिंदवान सद बार,
मैं देहंद पिदरे मुर्दारावा दायम आब।”

अर्थात, तू अपने जीवित पिता को पानी के लिए तरसा रहा है। शत-शत बार प्रशंसनीय हैं वे हिंदू, जो अपने मृत पितरों को जलांजलि देते हैं।

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

fifteen − seven =