घर की दास्तान (हक़ीक़त) डॉ. लोक सेतिया

डॉ. लोक सेतिया : हुआ करते थे घर गलियां चौबारे और लोग रहते ही नहीं थे जीते भी थे। अधिक पुरानी बात नहीं है आज भी ढूंढने से कहीं उनके बाकी निशान मिल जाते हैं। ये भी उन्हीं से एक घर की कहानी है जो थोड़ी थोड़ी ज़हन में याद है भूली हुई याद जैसे किसी दिन किसी बहाने आती है याद तो लगता है काश फिर से वही ज़माना वही लोग घर मिल सकते। घर था उसमें खिड़की रौशनदान दरवाज़ा हुआ करता था भौर होते ही सूरज की पहली किरण से घर उजला और खुली हवा के झौंके से ताज़गी भरता लगता था।

तब कोई पर्दा नहीं लगाया जाता था बाहर से छिपाने को रौशनी भली लगती थी ठंडी मीठी भी अब नकली चकाचौंध बिजली की आंखों को चुभती लगती है। किवाड़ की सांकल बजाने की ज़रूरत कम हुआ करती थी दिन भर गली गांव के अपने बिना कोई ज़रूरत भी चले आते थे, घर पर हो क्या आवाज़ देते तो घर से जवाब आता भीतर चले आओ अपना ही घर है। घर की चौखट लांघते ही आंगन हुआ करता था कोई पेड़ छांव देने को कोई चारपाई बिछी रहती थी।

दिन भर छहल पहल रहती थी दोपहर को मिल बैठती थी सखी सहेलियां बड़ी बूढ़ी दादी नानी हंसी ठिठोली और हाल चाल सुख दुःख का सांझा करती हुई। किसकी बिटिया की शादी है कौन बेटी ससुराल से आई है किस की बहु की ख़ुशी की खबर आने वाली है। घर लगता था महका हुआ बाग़ जैसा है खुशबू और चिड़ियों की चहकती हुई आवाज़ें सुनाई देती थी। हर मौसम सुहाना लगता था गर्मी की लू से बारिश की बौछार से सर्दी की ठंडक भी और धूप की तपिश साथ मिलकर गर्माहट को और बढ़ा देती थी।

ये भी घर हैं जैसे ख़ामोशी छाई रहती है आवाज़ सुनाई नहीं देती इंसान की और बंद खिड़की दरवाज़ा कोई आकर आहट करता है तो ख़ुशी नहीं चिंता होती है बेवक़्त कौन आया है बिना बताये कोई नहीं आता। झांकते हैं कोई अजनबी तो नहीं और सामने के घर में रहने वाला भी पराया अनजान लगता है। बिना मतलब मिलना तो क्या बात करने की फुर्सत नहीं किसी को।

आपके पड़ोस में कौन है नहीं नाम भी मालूम उसके दुःख सुख से सरोकार की बात ही क्या की जाये। खुद को अपने घर में बंद कर जैसे कैद में रहते हैं और सभी अकेलेपन के शिकार हैं। जुर्म क्या है किस बात की सज़ा खुद ही झेलते हैं भरोसा किसी को किसी पर नहीं रहा ये कैसा समाज बन गया है। मगर कहने को शहर क्या दुनिया भर से जान पहचान है दिखावे की जब भी कोई अवसर तीज त्यौहार शुभ दिन आता है मिलते हैं फ़ासला भी रखते हैं गले मिलते हैं हाथ मिलाते हैं दिल नहीं मिलते दिल की बात कोई नहीं जानता समझता।

घर अब घर नहीं रहे खाली शीशे पत्थर से बनी इमारत में मकान हो गए हैं। ये महानगर की सभ्यता गांव शहर तक पहुंच गई है कभी बड़े शहर जाकर लोग खो जाते थे अब इन मकानों के जंगल में घर खो गए हैं। मुझे चाहिए इक घर चाहे छोटा ही हो अब नहीं चाहत इक बंगला बने न्यारा।

डॉ. लोक सेतिया, विचारक

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